Tuesday, August 30, 2011

हरतालिका तीज व्रत...


भविष्योत्तर पुराण के अनुसार भाद्र शुक्ल तृतीया को `हरतालिका´ का व्रत किया जाता है। इस व्रत को सौभाग्‍यवती स्त्रियां ही करती हैं। लेकिन कहीं-कहीं कुमारी कन्या भी इस व्रत को करती है। ऐसी मान्यता है है कि इस व्रत को करने से सुहागिन स्त्रियां सौभाग्यवती बनती है और उनके पति की उम्र लंबी होती है। कुमारी कन्याओं की विवाह शीघ्र हो जाती है। इस दिन मां गौरी व भगवान शंकर का पूजन किया जाता है। इस व्रत को ‘हरतालिका’ इसलिए भी कहते हैं कि पार्वती की सखी उसे पिता प्रदेश से हर कर घनघोर जंगल में ले गई थी। हरत अर्थात हरण करना और आलिका अर्थात् सखी, सहेली। इसे बूढ़ी तीज भी कहते हैं। इस दिन सासें बहुओं को सुहागी का सिंधरा देती हैं। बहुएं पांव छूकर सास को रुपए देती है।
हरतालिका तीज व्रत की कथा

भगवान शिव ने पार्वती जी को उनके पूर्वजन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी। भगवान भोले शंकर बोले, “हे गौरी, पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधेमुखी होकर घोर तप किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबाकर व्यतीत किए।
माघ की विकराल शीतलता में तुमने निरन्तर जल में प्रवेश करके तप किया। बैसाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलाधर वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया। तुम्‍हारी इस कष्ट साध्य तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बड़े दु:खी होते थे, उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे।
नारदजी ने कहा,“गिरिराज, मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस सन्दर्भ में मैं आपकी राय जानना चाहता हूं।´´
महामुनि जी की बात सुनकर गिरिराज गदगद हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश की दूर हो गए। प्रसन्नचित होकर वे बोले ” यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं, तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात् ब्रह्मा हैं।”
नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णु जी के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार कह सुनाया। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम चिंतित हो उठी ।
तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा। तब तुमने बताया, मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिव शंकर का वरण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णु से निश्चित कर दिया। मैं विचित्र धर्म संकट में हूं। अब क्या करूं प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है।”
तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी। उसने कहा, “सखी प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है । संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यन्त उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हे घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जहां साधना में लीन हो जाना। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।´´
तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दु:खी तथा चिन्तत हुए। वे सोचने लगे कि जाने कहां चली गई। मैं विष्णु जी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं । यदि भगवान बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।
इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराध्ना में लीन थी। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निमार्ण करके व्रत किया। रातभर मेरी स्तुति के गीत गाए।
तुम्हारी इस कष्टसाध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरन्त तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा। तब अपनी समस्या के पफलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा, “मैं हृदय से आपको पति के रूप् में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहां पधरे हैं तो मुझे अपनी अर्धंगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।´´तब मैं तथास्तु कहकर कैलाश पर्वत पर लौट आया।
प्रात: होते ही तुमने पूजा की समस्त साम्रगी को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का समापन किया।
उसी समय अपने मित्रों व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते हुए वहां पहुंचे। तुम्हारी दशा को देख कर गिरिराज अत्‍यधिक दु:खी हुए थे। पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आये थे।
तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा, “पिताजी मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे। इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेव जी से करेंगे।´´
गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात दोनो को विवाह सूत्र में बांध दिया।
हे पार्वती, भ्रादपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराध्ना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्‍वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुमारियों को मनोवांछित फल देता हूं। इसीलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूर्ण निष्ठा एवं आस्था से करना चाहिए।”
व्रत का विधान
1.व्रत के एक दिन पहले (द्वितीया) को रात में 12 बजे से पहले चिरचिटा, नीम, गूलर, आदि से दातुन करनी चाहिए।
2. सुबह उठकर सबसे पहले भगवान शंकर का स्माण करना चाहिए।
3. नित्यकर्मों से निवृत्त होकर शिवालय जाना चाहिए।
4. शाम के समय भगवान शंकर, माता पार्वती और भगवान गणेश की बालू या मिट्टी (पिडोर) से प्रतिमा बनाकर उसे केले व फूलों से बने बंदनवार के मंडप में स्थापित करना चाहिए।
5. शाम को धूप,दीप,नैवेध, दूध,दही,धतूरा,फल,फूल, बेलपत्र आदि वस्तुओं से विध-विधान के साथ पूजन करना चाहिए।

Thursday, August 25, 2011

Brahmand Pavan shrikrishna kavach सर्व-सिद्ध-प्रद ब्रह्माण्ड-पावन श्रीकृष्ण कवच

।। ब्रह्मोवाच ।।
राधाकान्त महाभाग ! कवचं यत् प्रकाशितं ।
ब्रह्माण्ड-पावनं नाम, कृपया कथय प्रभो ! ।। १
मां महेशं च धर्मं च, भक्तं च भक्त-वत्सल ।
त्वत्-प्रसादेन पुत्रेभ्यो, दास्यामि भक्ति-संयुतः ।। २
ब्रह्माजी बोले - हे महाभाग ! राधा-वल्लभ ! प्रभो ! ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ नामक जो कवच आपने प्रकाशित किया है, उसका उपदेश कृपा-पूर्वक मुझको, महादेव जी को तथा धर्म को दीजिए । हे भक्त-वत्सल ! हम तीनों आपके भक्त हैं । आपकी कृपा से मैं अपने पुत्रों को भक्ति-पूर्वक इसका उपदेश दूँगा ।। १-२
।। श्रीकृष्ण उवाच ।।
श्रृणु वक्ष्यामि ब्रह्मेश ! धर्मेदं कवचं परं ।
अहं दास्यामि युष्मभ्यं, गोपनीयं सुदुर्लभम् ।। १
यस्मै कस्मै न दातव्यं, प्राण-तुल्यं ममैव हि ।
यत्-तेजो मम देहेऽस्ति, तत्-तेजः कवचेऽपि च ।। २
श्रीकृष्ण ने कहा - हे ब्रह्मन् ! महेश्वर ! धर्म ! तुम लोग सुनो ! मैं इस उत्तम ‘कवच’ का वर्णन कर रहा हूँ । यह परम दुर्लभ और गोपनीय है । इसे जिस किसी को भी न देना, यह मेरे लिए प्राणों के समान है । जो तेज मेरे शरीर में है, वही इस कवच में भी है ।
कुरु सृष्टिमिमं धृत्वा, धाता त्रि-जगतां भव ।
संहर्त्ता भव हे शम्भो ! मम तुल्यो भवे भव ।। ३
हे धर्म ! त्वमिमं धृत्वा, भव साक्षी च कर्मणां ।
तपसां फल-दाता च, यूयं भक्त मद्-वरात् ।। ४
हे ब्रह्मन् ! तुम इस कवच को धारण करके सृष्टि करो और तीनों लिकों के विधाता के पद पर प्रतिष्ठित रहो । हे शम्भो ! तुम भी इस कवच को ग्रहण कर, संहार का कार्य सम्पन्न करो और संसार में मेरे समान शक्ति-शाली हो जाओ । हे धर्म ! तुम इस कवच को धारण कर कर्मों के साक्षी बने रहो । तुम सब लिग मेरे वर से तपस्या के फल-दाता हो जाओ ।
ब्रह्माण्ड-पावनस्यास्य, कवचस्य हरिः स्वयं ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री, देवोऽहं जगदीश्वर ! ।। ५
धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु, विनियोगः प्रकीर्तितः ।
त्रि-लक्ष-वार-पठनात्, सिद्धिदं कवचं विधे ! ।। ६
इस ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ कवच के ऋषि स्वयं हरि हैं, छन्द गायत्री है, देवता मैं जगदीश्वर श्रीकृष्ण हूँ तथा इसका विनियोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हेतु है । हे विधे ! ३ लाख बार ‘पाठ‘ करने पर यह ‘कवच’ सिद्ध हो जाता है ।
यो भवेत् सिद्ध-कवचो, मम तुल्यो भवेत्तु सः ।
तेजसा सिद्धि-योगेन, ज्ञानेन विक्रमेण च ।। ७
जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियों, योग, ज्ञान और बल-पराक्रम में मेरे समान हो जाता है ।
।। मूल-कवच-पाठ ।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्माण्ड-पावन-कवचस्य श्रीहरिः ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीकृष्णो देवता, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीहरिः ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, श्रीकृष्णो देवतायै नमः हृदि, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
प्रणवो मे शिरः पातु, नमो रासेश्वराय च ।
भालं पायान् नेत्र-युग्मं, नमो राधेश्वराय च ।। १
कृष्णः पायात् श्रोत्र-युग्मं, हे हरे घ्राणमेव च ।
जिह्विकां वह्निजाया तु, कृष्णायेति च सर्वतः ।। २
श्रीकृष्णाय स्वाहेति च, कण्ठं पातु षडक्षरः ।
ह्रीं कृष्णाय नमो वक्त्रं, क्लीं पूर्वश्च भुज-द्वयम् ।। ३
नमो गोपांगनेशाय, स्कन्धावष्टाक्षरोऽवतु ।
दन्त-पंक्तिमोष्ठ-युग्मं, नमो गोपीश्वराय च ।। ४
ॐ नमो भगवते रास-मण्डलेशाय स्वाहा ।
स्वयं वक्षः-स्थलं पातु, मन्त्रोऽयं षोडशाक्षरः ।। ५
ऐं कृष्णाय स्वाहेति च, कर्ण-युग्मं सदाऽवतु ।
ॐ विष्णवे स्वाहेति च, कंकालं सर्वतोऽवतु ।। ६
ॐ हरये नमः इति, पृष्ठं पादं सदऽवतु ।
ॐ गोवर्द्धन-धारिणे, स्वाहा सर्व-शरीरकम् ।। ७
प्राच्यां मां पातु श्रीकृष्णः, आग्नेय्यां पातु माधवः ।
दक्षिणे पातु गोपीशो, नैऋत्यां नन्द-नन्दनः ।। ८
वारुण्यां पातु गोविन्दो, वायव्यां राधिकेश्वरः ।
उत्तरे पातु रासेशः, ऐशान्यामच्युतः स्वयम् ।
सन्ततं सर्वतः पातु, परो नारायणः स्वयं ।। ९
।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं ब्रह्मन् ! कवचं परमाद्भुतं ।
मम जीवन-तुल्यं च, युष्मभ्यं दत्तमेव च ।।

बेगि हरो हनुमान महाप्रभू जो कछु संकट होये हमारो

बेगि हरो हनुमान महाप्रभू जो कछु संकट होये हमारो

कोन सो संकट मोर गरिब को जो तुमसे नहीं जात है टारो

जै जै जै हनुमान गोसाई कृपा करो महाराज,

हनुमत कृपा करो महाराज ||

तन में तुम्हरे शक्ति बिराजे ,मन भक्ति से भिना

जो जन तुम्हरी शरण में आये दुखः दरद हर लिना

हनुमत दुखः दरद हर लिना|

महावीर प्रभू हम दूखियन के तुम हो गरिबनिवाज

हनुमत तुम हो गरिबनिवाज |

जै जै जै हनुमान गोसाई कृपा करो महाराज,

हनुमत कृपा करो महाराज ||

राम लखन वैदही तुम पे सदा रहे हर्षाये

ह्रदय चीर के राम सिया का दरसन दिया कराय

हनुमत दरसन दिया कराय |

दो कर जोर अरज हनुमन्ता कहियो प्रभू से आज

हनुमत कहियो प्रभू से आज

जै जै जै हनुमान गोसाई कृपा करो महाराज,

हनुमत कृपा करो महाराज ||

Tuesday, August 23, 2011

राम से बड़ा राम का नाम


राम से बड़ा राम का नाम

अंत में निकला ये परिणाम, ये परिणाम

राम से बड़ा राम का नाम ....


सिमरिये नाम रूप बिनु देखे

कौड़ी लगे ना दाम

नाम के बांधे खिंचे आयेंगे

आखिर एक दिन राम

राम से बड़ा राम का नाम ....


जिस सागर को बिना सेतु के

लांघ सके ना राम

कूद गये हनुमान उसी को

लेकर राम का नाम

राम से बड़ा राम का नाम ....


वो दिलवाले डूब जायेंगे और वो दिलवाले क्या पायेंगे

जिनमें नहीं है नाम

वो पत्थर भी तैरेंगे जिन पर

लिखा हुआ श्री राम.

राम से बड़ा राम का नाम ....

Tuesday, August 16, 2011

परशुराम-कृत श्रीदुर्गा-स्तोत्र


परशुराम-कृत श्रीदुर्गा-स्तोत्र

।। परशुराम उवाच ।।

श्रीकृष्णस्य च गो-लोके-परिपूर्णतमस्य चः । आविर्भूता विग्रहतः, परा सृष्ट्युन्मुखस्य च ।।
सूर्य-कोटि-प्रभा-युक्ता, वस्त्रालंकार-भूषिता । वह्नि-शुद्धांशुकाधाना सुस्मिता, सुमनोहरा ।।
नव-यौवन-सम्पन्ना सिन्दूर-विन्दु-शोभिता । ललितं कबरीभारं मालती-माल्य-मण्डितम् ।।
अहोऽनिर्वचनीया त्वं, चारुमूर्ति च बिभ्रती । मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां, महाविष्णोर्विधिः स्वयम् ।।
मुमोह क्षणमात्रेण दृष्ट्वा, त्वां सर्वमोहिनीम् । बालैः सम्भूय सहसा, सस्मिता धाविता पुरा ।।
सद्भिः ख्याता तेन, राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी । कृष्णस्त्वां सहसाहूय, वीर्याधानं चकार ह ।।
ततो डिम्भं महज्जज्ञे, ततो जातो महाविराट् । यस्यैव लोमकूपेषु, ब्रह्माण्डान्यखिलानि च ।।
तच्छृङ्गारक्रमेणैव त्वन्निःश्वासो बभूव ह । स निःश्वासो महावायुः स विराड् विश्वधारकः ।।
तव घर्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम् । स विराड् विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह ।।
ततस्त्वं पञ्चधाभूय पञ्चमूर्तीश्च बिभ्रती । प्राणाधिष्ठातृमूर्त्तिर्या कृष्णस्य परमात्मनः ।।
कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविदः ।।
वेदाधिष्ठात्रीमूर्तियां वेदाशास्त्रप्रसूरपि । तं सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिणः ।।
ऐश्वर्याधिष्ठात्रीमूर्तिः शान्तिश्च शान्तरूपिणी । लक्ष्मीं वदन्ति संतस्तां शुद्धां सत्त्‍‌वस्वरुपिणीम् ।।
रागाधिष्ठात्री या देवी, शुक्लमूर्तिः सतां प्रसूः । सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां प्रवदन्ति बुधा भुवि ।।
बुद्धिर्विद्या सर्वशक्तिर्ज्या मूर्तिरधिदेवता । सर्वमङ्गलमङ्गल्या सर्वमङ्गलरूपिणी ।।
सर्वमङ्गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना ।।
शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके । सरस्वती च सावित्री वेदसू‌र्ब्रह्मणः प्रिया ।।
राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च । परमानन्द-रूपस्य परमानन्दरूपिणी ।।
त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषितः ।।
त्वं विद्या योषितः सर्वास्त्वं सर्वबीजरूपिणी । छाया सूर्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्वमोहिनी ।।
शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी । वरुणानी जलेशस्य वायोः स्त्री प्राणवल्लभा ।।
वह्नेः प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी । यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी ।।
ईशानस्य शशिकला शतरूपा मनोः प्रिया । देवहूतिः कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती ।।
लोपामुद्राप्यगस्त्यस्य देवमातादितिस्तथा । अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुन्धरा ।।
गङ्गा च तुलसी चापि पृथिव्यां याः सरिद्वराः । एताः सर्वाश्च या ह्यन्याः सर्वास्त्वत्कलयाम्बिके ।।

गृहलक्ष्मीगृहे नृणांराजलक्ष्मीश्च राजसु । तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च ।।
सतां सत्त्‍‌वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्कुरा । ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्ति स्त्वं सगुणस्य च ।।
सूर्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने । जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे ।।
त्वं भूमौ गन्धरूपा च आकाशे शब्दरूपिणी । क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनां सर्वशक्तयः ।।
सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी । स्मृतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्ति र्विपश्चिताम् ।।
कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञानप्रसूः शुभा । शूलिने कृपया सा त्वं यतो मृत्युञ्जयः शिवः ।।
सृष्टिपालनसंहारशक्त यस्त्रिविधाश्च याः । ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते ।।
मधुकैटभभीत्या च त्रस्तो धाता प्रकम्पितः । स्तुत्वा मुमोच यां देवीं तां मूर्ध्ना प्रणमाम्यहम् ।।
मधुकैटभयोर्युद्धे त्रातासौ विष्णुरीश्वरीम् । बभूव शक्तिमान् स्तुत्वा तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे । यां तुष्टुवुः सुराः सर्वे तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शम्भुः समुत्थितः । जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
यदाज्ञया वाति वातः सूर्यस्तपति संततम् । वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निस्तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद् भ्रमति वेगतः । मृत्युश्चरति जन्त्वोघे तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
स्त्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया । संहर्ता संहरेत् काले तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
ज्योतिःस्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुणः स्वयम् । यया विना न शक्तश्च सृष्टिं कर्त्तुं नमामि ताम् ।।
रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व मे । शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति ।।
इत्युत्तवा पर्शुरामश्च प्रणम्य तां रुरोद ह । तुष्टा दुर्गा सम्भ्रमेण चाभयं च वरं ददौ ।।
अमरो भव हे पुत्र वत्स सुस्थिरतां व्रज । शर्वप्रसादात् सर्वत्र ज्योऽस्तु तव संततम् ।।

सर्वान्तरात्मा भगवांस्तुष्टोऽस्तु संततं हरिः । भक्तिर्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ ।।
इष्टदेवे गुरौ यस्य भक्तिर्भवति शाश्वती । तं हन्तु न हि शक्ताश्च रुष्टाश्च सर्वदेवताः ।।
श्रीकृष्णस्य च भक्तस्त्वं शिष्यो हि शंकरस्य च । गुरुपत्‍‌नीं स्तौषि यस्मात् कस्त्वां हन्तुमिहेश्वरः ।।
अहो न कृष्णभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् । अन्यदेवेषु ये भक्ता न भक्ता वा निरेङ्कुशाः ।।
चन्द्रमा बलवांस्तुष्टो येषां भाग्यवतां भृगो । तेषां तारागणा रुष्टाः किं कुर्वन्ति च दुर्बलाः ।।
यस्य तुष्टः सभायां चेन्नरदेवो महान् सुखी । तस्य किं वा करिष्यन्ति रुष्टा भृत्याश्च दुर्बलाः ।।
इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा दत्त्‍‌वा रामं शुभाशिषम् । जगामान्तःपुरं तूर्णं हरिशब्दो बभूव ह ।।
।।फल-श्रुति।।
स्तोत्रं वै काण्वशाखोक्तं पूजाकाले च यः पठेत् । यात्राकाले च प्रातर्वा वाञ्छितार्थं लभेद्ध्रुवम ।।
पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी कन्यकां लभेत् । विद्यार्थी लभते विद्यां प्रजार्थी चाप्नुयात् प्रजाम् ।।
भ्रष्टराज्यो लभेद् राज्यं नष्टवित्तो धनं लभेत् ।।
यस्य रुष्टो गुरुर्देवो राजा वा बान्धवोऽथवा । तस्य तुष्टश्च वरदः स्तोत्रराजप्रसादतः ।।
दस्युग्रस्तोऽहिग्रस्तश्च शत्रुग्रस्तो भयानकः । व्याधिग्रस्तो भवेन्मुक्तः स्तोत्रस्मरणमात्रतः ।।
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे च बन्धने । जलराशौ निमगन्श्च मुक्त स्तत्स्मृतिमात्रतः ।।
स्वामिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च दारुणे । स्तोत्रस्मरणमात्रेण वाञ्छितार्थं लभेद् ध्रुवम ।।
कृत्वा हविष्यं वर्षं च स्तोत्रराजं श्रृणोति या । भक्तया दुर्गां च सम्पूज्य महावन्ध्या प्रसूयते ।।
लभते सा दिव्यपुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम् । असौभाग्या च सौभाग्यं षण्मासश्रवणाल्लभेत् ।।
नवमासं काकवन्ध्या मृतवत्सा च भक्तितः । स्तोत्रराजं या श्रृणोति सा पुत्रं लभते ध्रुवम् ।।
कन्यामाता पुत्रहीना पञ्चमासं श्रृणोति या । घटे सम्पूज्य दुर्गां च सा पुत्रं लभते ध्रुवम् ।।
।। ब्रह्म-वैवर्त्त-पुराण, गणपतिखण्ड-४५/१८-७८ ।।

भावार्थः-
परशुराम ने कहाः-
प्राचीन काल की बात है; गोलोक में जब परिपूर्णतम श्रीकृष्ण सृष्टिरचना के लिए उद्यत हुए, उस समय उनके शरीर से आपका प्राकटय हुआ था । आपकी कान्ति करोडों सूर्यो के समान थी । आप वस्त्र और अलंकारों से विभूषित थीं । शरीर पर अग्नि में तपाकर शुद्ध की हुई साड़ी का परिधान था । नव तरुण अवस्था थी । ललाट पर सिंदूर की बिन्दी शोभित हो रही थी । मालती की मालाओं से मण्डित गुँथी हुई सुन्दर चोटी थी । बडा ही मनोहर रूप था । मुख पर मन्द मुस्कान थी । अहो ! आपकी मूर्ति बडी
सुन्दर थी, उसका वर्णन करना कठिन है । आप मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करने वाली तथा स्वयं महाविष्णु की विधि हो । बाले ! आप सबको मोहित कर लेने वाली हो। आपको देखकर श्रीकृष्ण उसी क्षण मोहित हो गये । तब आप उनसे सम्भावित होकर सहसा मुस्कराती हुई भाग चलीं। इसी कारण सत्पुरुष आपको मूलप्रकृति ईश्वरी राधा कहते हैं । उस समय सहसा श्रीकृष्ण ने आपको बुलाकर वीर्य का आधान किया । उससे एक महान् डिम्ब उत्पन्न हुआ । उस डिम्ब से महाविराट् की उत्पत्ति हुई, जिसके रोमकूपों में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं । फिर राधा के श्रृङ्गार क्रम से आपका निःश्वास प्रकट हुआ । वह निःश्वास महावायु हुआ और वही विश्व को धारण करने वाला विराट् कहलाया । आपके पसीने से विश्वगोलक पिघल गया । तब विश्व का निवासस्थान वह विराट् जल की राशि हो गया । तब आपने अपने को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच मूर्ति धारण कर ली । उनमें परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है, उसे भविष्यवेत्ता लोग कृष्णप्राणाधिका राधा कहते हैं । जो मूर्ति वेद-शास्त्रों की जननी तथा वेदाधिष्ठात्री है, उस शुद्धरूपा मूर्ति को मनीषीगण सावित्री नाम से पुकारते हैं । जो शान्ति तथा शान्तरूपिणी ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति है, उस सत्त्‍‌वस्वरूपिणी शुद्ध मुर्ति को संत लोग लक्ष्मी नाम से अभिहित करते हैं । अहो ! जो राग की अधिष्ठात्री देवी तथा सत्पुरुषों को पैदा करने वाली है, जिसकी मूर्ति शुक्ल वर्ण की है, उस शास्त्र की ज्ञाता मूर्ति को शास्त्रज्ञ सरस्वती कहते हैं । जो मूर्ति बुद्धि, विद्या, समस्त शक्ति की अधिदेवता, सम्पूर्ण मङ्गलों की मङ्गलस्थान, सर्वमङ्गलरूपिणी और सम्पूर्ण मङ्गलों की कारण है, वही आप इस समय शिव के भवन में विराजमान हो।
आप ही शिव के समीप शिवा (पार्वती), नारायण के निकट लक्ष्मी और ब्रह्मा की प्रिया वेदजननी सावित्री और सरस्वती हो । जो पूरिपूर्णतम एवं परमानन्दस्वरूप हैं, उन रासेश्वर श्रीकृष्ण की आप परमानन्दरूपिणी राधा हो । देवाङ्गनाएँ भी आपके कलांश की अंशकला से प्रादुर्भूत हुई हैं । सारी नारियाँ आपकी विद्यास्वरूपा हैं और आप सबकी कारणरूपा हो । अम्बिके ! सूर्य की पत्‍‌नी छाया, चन्द्रमा की भार्या सर्वमोहिनी रोहिणी, इन्द्र की पत्‍‌नी शची, कामदेव की पत्‍‌नी ऐश्वर्यशालिनी रति, वरुण की पत्‍‌नी वरुणानी, वायु की प्राणप्रिया स्त्री, अग्नि की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी भार्या, यम की पत्‍‌नी सुशीला, नैर्ऋत की जाया कैटभी, ईशान की पत्‍‌नी शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा, कर्दम की भार्या देवहूति, वसिष्ठ की पत्‍‌नी अरुन्धती, देवमाता अदिति, अगस्त्य मुनि की प्रिया लोपामुद्रा, गौतम की पत्‍‌नी अहिल्या, सबकी आधाररूपा वसुन्धरा, गङ्गा, तुलसी तथा भूतल की सारी श्रेष्ठ सरिताएँ-ये सभी तथा इनके अतिरिक्ति जो अन्य स्त्रियाँ हैं, वे सभी आपकी कला से उत्पन्न हुई हैं । आप मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं के भवनों में राजलक्ष्मी, तपस्वियों की तपस्या और ब्राह्मणों की गायत्री हो । आप सत्पुरुषों के लिए सत्त्‍‌वस्वरूप और दुष्टों के लिये कलह की अङ्कुर हो । निर्गुण की ज्योति और सगुण की शक्ति आप ही हो।
आप सूर्य में प्रभा, अगिन् में दाहिका-शक्ति , जल में शीतलता और चन्द्रमा में शोभा हो। भूमि में गन्ध और आकाश में शब्द आपका ही रूप है। आप भूख-प्यास आदि तथा प्राणियों की समस्त शक्ति हो । संसार में सबकी उत्पत्ति की कारण, साररूपा, स्मृति, मेधा, बुद्धि अथवा विद्वानों की ज्ञानशक्ति आप ही हो । श्रीकृष्ण ने शिवजी को कृपापूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान की प्रसविनी जो शुभ विद्या प्रदान की थी, वह आप ही हो; उसी से शिवजी मृत्युञ्जय हुए हैं । ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जो त्रिविध शक्तियाँ हैं, उनके रूप में आप ही विद्यमान हो; अतः आपको नमस्कार है ।
जब मधु-कैटभ के भय से डरकर ब्रह्मा काँप उठे थे, उस समय जिनकी स्तुति करके वे भयमुक्त हुए थे; उन देवी को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मधु-कैटभ के युद्ध में जगत् के रक्षक ये भगवान् विष्णु जिन परमेश्वरी का स्तवन करके शक्तिमान् हुए थे, उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ । त्रिपुर के महायुद्ध में रथसहित शिवजी के गिर जाने पर सभी देवताओं ने जिनकी स्तुति की थी; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ । जिनका स्तवन करके वृषरूपधारी विष्णु द्वारा उठाये गये स्वयं शम्भु ने त्रिपुर का संहार किया था; उन दुर्गा को मैं अभिवादन करता हूँ । जिनकी आज्ञा से निरन्तर वायु बहती है, सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं और अग्नि जलाती है; उन दुर्गा को मैं सिर झुकाता हूँ । जिनकी आज्ञा से काल सदा वेगपूर्वक चक्कर काटता रहता है और मृत्यु जीव-समुदाय में विचरती रहती है; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ । जिनके
आदेश से सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करते हैं, पालनकर्ता रक्षा करते हैं और संहर्ता समय आने पर संहार करते हैं; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ । जिनके बिना स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण, जो ज्योतिःस्वरूप एवं निर्गुण हैं, सृष्टि-रचना करने में समर्थ नहीं होते; उन देवी को मेरा नमस्कार है । जगज्जननी ! रक्षा करो, रक्षा करो; मेरे अपराध को क्षमा कर दो । भला, कहीं बच्चे के अपराध करने से माता कुपित होती है ।
इतना कहकर परशुराम उन्हें प्रणाम करके रोने लगे । तब दुर्गा प्रसन्न हो गयीं और शीघ्र ही उन्हें अभय का वरदान देती हुई बोलीं- हे वत्स ! तुम अमर हो जाओ । बेटा ! अब शान्ति धारण करो । शिवजी की कृपा से सदा सर्वत्र तुम्हारी विजय हो। सर्वान्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सदा तुमपर प्रसन्न रहें । श्रीकृष्ण में तथा
कल्याणदाता गुरुदेव शिव में तुम्हारी सुदृढ भक्ति बनी रहे; क्योंकि जिसकी इष्टदेव तथा गुरु में शाश्वती भक्ति होती है, उस पर यदि सभी देवता कुपित हो जायँ तो भी उसे मार नहीं सकते । तुम तो श्रीकृष्ण के भक्त और शंकर के शिष्य हो तथा मुझ गुरुपत्‍‌नी की स्तुति कर रहे हो; इसलिए किसकी शक्ति है जो तुम्हें मार सके । अहो ! जो अन्यान्य देवताओं के भक्त हैं अथवा उनकी भक्ति न करके निरंकुश ही हैं, परंतु श्रीकृष्ण के भक्त हैं तो उनका कहीं भी अमङ्गल नहीं होता । भार्गव ! भला, जिन भाग्यवानों पर बलवान् चन्द्रमा प्रसन्न हैं तो दुर्बल तारागण रुष्ट होकर उनका क्या बिगाड सकते हैं । सभा में महान आत्मबल से सम्पन्न सुखी नरेश जिसपर संतुष्ट है, उसका दुर्बल भृत्यवर्ग कुपित होकर क्या कर लेगा ? यों कहकर पार्वती हर्षित हो परशुराम को शुभाशीर्वाद देकर अन्तःपुर में चली गयीं । तब तुरंत हरि-नाम का घोष गूँज उठा ।

जो मनुष्य इस काण्वशाखोक्त स्तोत्र का पूजा के समय, यात्रा के अवसर पर अथवा प्रातःकाल पाठ करता है, वह अवश्य ही अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेता है । इसके पाठ से पुत्रार्थी को पुत्र, कन्यार्थी को कन्या, विद्यार्थी को विद्या, प्रजार्थी को प्रजा, राज्यभ्रष्ट को राज्य और धनहीन को धन की प्राप्ति होती है। जिसपर गुरु, देवता, राजा अथवा बन्धु-बान्धव क्रुद्ध हो गये हों, उसके लिये ये सभी इस स्तोत्रराज की कृपा से प्रसन्न होकर वरदाता हो जाते हैं। जिसे चोर-डाकुओं ने घेर लिया हो, साँप ने डस लिया हो, जो भयानक शत्रु के चंगुल में फँस गया हो अथवा व्याधिग्रस्त हो; वह इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से मुक्त हो जाता है। राजद्वार पर, श्मशान में, कारागार में और बन्धन में पडा हुआ तथा अगाध जलराशि में डूबता हुआ मनुष्य इस स्तोत्र के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। स्वामिभेद, पुत्रभेद तथा भयंकर मित्रभेद के अवसर पर इस
स्तोत्र के स्मरण मात्र से निश्चय ही अभीष्टार्थ की प्राप्ति होती है। जो स्त्री वर्षपर्यन्त भक्ति पूर्वक दुर्गा का भलीभाँति पूजन करके हविष्यान्न खाकर इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह महावन्ध्या हो तो भी प्रसववाली हो जाती है। उसे ज्ञानी एवं चिरजीवी दिव्य पुत्र प्राप्त होता है। छः महीने तक इसका श्रवण करने से दुर्भगा सौभाग्यवती हो जाती है। जो काकवन्ध्या और मृतवत्सा नारी भक्ति पूर्वक नौ मास तक इस
स्तोत्रराज को सुनती है, वह निश्चय ही पुत्र पाती है। जो कन्या की माता तो है परंतु पुत्र से हीन है, वह यदि पाँच महीने तक कलश पर दुर्गा की सम्यक् पूजा करके इस स्तोत्र को श्रवण करती है तो उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है।



Friday, August 12, 2011

रक्षाबंधन

रक्षाबंधन


रक्षाबंधन एक भारतीय त्यौहार है जो श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। सावन में मनाए जाने के कारण इसे सावनी या सलूनो भी कहते हैं। 2011 में रक्षाबंधन शनिवार, 13 अगस्त 2011 को मनाया जाएगा। रक्षाबंधन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चांदी जैसी मंहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को बांधती हैं परंतु ब्राहमणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित संबंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बांधी जाती है। कभी कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठत व्यक्ति को भी राखी बांधी जाती है।

प्रकृति संरक्षण के लिए वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा का भी प्रारंभ हो गया है| रक्षासूत्र बांधते समय सभी आचार्य एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। यह श्लोक रक्षाबंधन का अभीष्ट मंत्र है।

येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥

श्लोक में कहा गया है कि जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा।


अनुष्ठान

प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिए पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीक करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बांधी जाती है और पैसों से न्यौछावर कर के उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भारत के अनेक प्रांतों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है।


भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबंधन के अनुष्ठान के पूरा होने पर भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने का विशेष महत्व रक्षाबंधन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्वपूर्ण होता है और रक्षाबंधन के अनुष्ठान के पूरा होने तक व्रत रखने की भी परंपरा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह सुबह ही यजमानों के घर पहुंचकर उन्हें राखी बांधते हैं और बदले में धन वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।

सामाजिक प्रसंग

इस दिन बहनें अपने भाई के दायें हाथ पर राखी बांधकर उसके माथे पर तिलक करती हैं और उसकी दीर्घ आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। ऐसा माना जाता है कि राखी के रंगबिरंगे धागे भाई-बहन के प्यार के बंधन को मज़बूत करते है। भाई बहन एक दूसरे को मिठाई खिलाते है। और सुख दुख में साथ रहने का यकीन दिलाते हैं। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है।

सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बंधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से भी परे होते हैं। रक्षा बंधन आत्मीयता और स्नेह के बंधन से रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस अवसर पर न केवल बहन भाई को ही नहीं अन्य संबंधों में भी रक्षा (या राखी) बांधने के प्रचलन है। गुरू शिष्य को रक्षा सूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरू को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षा सूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परंपरा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षा सूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिए परस्पर एक दूसरे को अपने बंधन में बाँधते हैं।

रक्षाबंधन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है। विवाह के बाद बहन पराए घर में चली जाती है। इस बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं दूरदराज के भाइयों तक को रक्षा बांधती है और इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है। दो परिवारों का और कुलों का जु़डाव होता है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी एकसूत्रता के रूप में इस पर्व का उपयोग किया जाता है।

रक्षाबंधन के अवसर पर कुछ विशेष पकवान भी बनाए जाते हैं जैसे घेवर, शकरपारे, नमकपारे और घुघनी। घेवर सावन का विशेष मिष्ठान्न है यह केवल हलवाई ही बनाते हैं जबकि शकरपारे और नमकपारे आमतौर पर घर में ही बनाए जाते हैं। घुघनी बनाने के लिए काले चने को उबालकर चटपटा छौंका जाता है। इसको पूरी और दही के साथ खाते हैं। हलवा और खीर भी इस पर्व के लोकप्रिय पकवान हैं।







पौराणिक प्रसंग

राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन है कि देव और दानवों में जब युध्द शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन,शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।

स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थ्रना की। तब भगवान ने वामन अबतार लेकर ब्राम्हण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकानाचूर कर देने के कारण यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है। कहते हैं कि जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भ गवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

ऐतिहासिक प्रसंग

राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बांधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आएगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुयी है। कहते हैं, मेवाड़ की महारानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्वसूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी। उसने मुगल राजा हुमायूं को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की। कहते है सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांध कर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवदान दिया।

महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव, युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को पार कैसे कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से बाहर आ सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के उल्लेख मिलते हैं।महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबंधन के पर्व में यहीं से आन मिली।

भुजरियाँ

भारत के अनेक प्रांतों में सावन महीने की सप्तमी को छोटी॑-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर उनमें अन्न के दाने बोए जाते हैं। ये दाने धान, गेहूँ, जौ के हो सकते हैं। ब्रज और उसके निकटवर्ती प्रान्तों में इसे 'भुजरियाँ` कहते हैं। इन्हें अलग-अलग प्रदेशों में इन्हें 'फुलरिया`, 'धुधिया`, 'धैंगा`, और 'जवारा`(मालवा) या भोजली भी कहते हैं। तीज या रक्षाबंधन के अवसर पर फसल की प्राण प्रतिष्ठा के रूप में इन्हें छोटी टोकरी या गमले में उगाया जाता हैं। जिस टोकरी या गमले में ये दाने बोए जाते हैं उसे घर के किसी पवित्र स्‍थान में छायादार जगह में स्‍थापित किया जाता है। उनमें रोज़ पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है। दाने धीरे-धीरे पौधे बनकर बढ़ते हैं, महिलायें उसकी पूजा करती हैं एवं जिस प्रकार देवी के सम्‍मान में देवी-गीतों को गाया जाता है वैसे ही भोजली दाई (देवी) के सम्‍मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं। सामूहिक स्‍वर में गाये जाने वाले भोजली गीत छत्‍तीसगढ की शान हैं। खेतों में इस समय धान की बुआई व प्रारंभिक निराई गुडाई का काम समापन की ओर होता है। किसानों की लड़कियाँ अच्‍छी वर्षा एवं भरपूर भंडार देने वाली फसल की कामना करते हुए फसल के प्रतीकात्‍मक रूप से भोजली का आयोजन करती हैं।

सावन की पूर्णिमा तक इनमें ४ से ६ इंच तक के पौधे निकल आते हैं। रक्षाबंधन की पूजा में इसको भी पूजा जाता है और धान के कुछ हरे पौधे भाई को दिए जाते हैं या उसके कान में लगाए जाते हैं। भोजली नई फ़सल की प्रतीक होती है। और इसे रक्षाबंधन के दूसरे दिन विसर्जित कर दिया जाता है। नदी, तालाब और सागर में भोजली को विसर्जित करते हुए अच्छी फ़सल की कामना की जाती है।

Thursday, August 11, 2011

हर हर महादेव ..

शिव निरंजनम्‌



जय गंगाधर हर शिव, जय गिरिजाधीश
त्वं मां पालन नित्यं कृपया जगदीश... हर हर महादेव
कैलासे गिरिशिखरे, कल्पद्रुम विपिने शिव कल्पद्रु विपिने
गुंजति मधुकर पूंजे कुंजवने गहने...हर हर महादेव
कोकिल कूजति खेलति, हंसावन ललिता-शिव...
रचयति कला कलापं नृत्यति संहिता... हर हर महादेव
तस्मिन्ललित सुदेशे शाखा मणि रचिता-शिव...
तन्मध्ये हर निकटे गौरी मुद सहिता... हर हर महादेव
क्रीडां रचयति भूषा रंजित निजमीशम्‌-शिव...
ब्रह्मादिक सुरसेवित प्रणमतिते शीर्षम... हर हर महादेव
विबुधवधू बहुनृत्यति हृदये सुदसहिता-शिव...
किन्नरगानं कुरुते सप्तस्वर सहित... हर हर महादेव
धिनकत थैथै धिनकत मृदंग वाद्यते-शिव...
कण कण ललित सुवेणु मधुरं नादयते... हर हर महादेव
रूणु रूणु चरणे रचयति नुपूर मुज्वलिता-शिव...
चक्रावर्ते भ्रमयति कुरुते तां धिक्‌ताम्‌... हर हर महादेव
तां तां लुपचुप तालं मधुरं नादयते-शिव...
अंगुष्ठांगुली नादं लास्यकतां कुरुते... हर हर महादेव
कर्पूर धौति गौरं पंचानन सहितम्‌-शिव...
त्रिनयन शशिधर मौले विषधर कण्ठयुतम्‌... हर हर महादेव
सुंदर जटा कलापं पावकयुत भालम्‌-शिव...
त्रिशूल डमरू पिनाकं करघृत नृकपालम्‌... हर हर महादेव
शंख निनादं कृत्वाझल्लरी नादयते-शिव...
नीराजयते ब्रह्मा वेद ऋचां पठते... हर हर महादेव
इति मृदुचरण सरोजे ह्रदिकमले घृत्वा-शिव...
अवलोकयति महेशम्‌ ईशम्‌ अभिनत्वा... हर हर महादेव
रुंड-रचित उर माला पन्नगमुपवतीतम्‌-शिव...
वाम विभागे रूपम्‌ अति ललितम्‌... हर हर महादेव
सकल शरीरे मनसिज कृतभस्या भरणम्‌-शिव...
इति वृषभध्वजरूपं तापत्रय हरणम्‌... हर हर महादेव
ध्यानम्‌ आरति समये हृदये इति कृत्वा-शिव...
रामं त्रिजटार्नां ईशम्‌ अभिनत्वा... हर हर महादेव
प्रतिदिनमेवं पठनं संगीतं कुरुते-शिव...
शिव सायुज्यं गच्छति भक्त्याः श्रृणोति... हर हर महादेव

श्रीविश्वनाथाष्टकं

श्रीविश्वनाथाष्टकं

|| विश्वनाथाष्टकम् ||
गङ्गातरंगरमणीयजटाकलापं
गौरीनिरन्तरविभूषितवामभागम् |
नारायणप्रियमनंगमदापहारं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||

वाचामगोचरमनेकगुणस्वरूपं
वागीशविष्णुसुरसेवितपादपीठम् |
वामेनविग्रहवरेणकलत्रवन्तं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||

भूताधिपं भुजगभूषणभूषितांगं
व्याघ्राजिनांबरधरं जटिलं त्रिनेत्रम् |
पाशांकुशाभयवरप्रदशूलपाणिं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् |

शीतांशुशोभितकिरीटविराजमानं
भालेक्षणानलविशोषितपंचबाणम् |
नागाधिपारचितभासुरकर्णपूरं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||

पंचाननं दुरितमत्तमतङ्गजानां
नागान्तकं दनुजपुंगवपन्नगानाम् |
दावानलं मरणशोकजराटवीनां
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||

तेजोमयं सगुणनिर्गुणमद्वितीयं
आनन्दकन्दमपराजितमप्रमेयम् |
नागात्मकं सकलनिष्कलमात्मरूपं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||

रागादिदोषरहितं स्वजनानुरागं
वैराग्यशान्तिनिलयं गिरिजासहायम् |
माधुर्यधैर्यसुभगं गरलाभिरामं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||

आशां विहाय परिहृत्य परस्य निन्दां
पापे रतिं च सुनिवार्य मनः समाधौ |
आदाय हृत्कमलमध्यगतं परेशं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||

वाराणसीपुरपतेः स्तवनं शिवस्य
व्याख्यातमष्टकमिदं पठते मनुष्यः |
विद्यां श्रियं विपुलसौख्यमनन्तकीर्तिं
सम्प्राप्य देहविलये लभते च मोक्षम् ||

विश्वनाथाष्टकमिदं यः पठेच्छिवसन्निधौ |
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ||

|| इति श्रीमहर्षिव्यासप्रणीतं श्रीविश्वनाथाष्टकं संपूर्णम् ||


महाकाल स्तवन..

महाकाल स्तवन
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असंभवं संभव-कर्त्तुमुघतं, प्रचण्ड-झंझावृतिरोधसक्षमम् ।
युगस्य निर्माणकृते समुघतं, परं महाकालममुं नमाम्यहम् ।।

यदा धरायामशांतिः प्रवृद्घा, तदा च तस्यां शांतिं प्रवर्धितुम् ।
विनिर्मितं शांतिकुंजाख्य-तीर्थकं, परं महाकालममुं नमाम्यहम् ।।

अनाघनन्तं परमं महीयसं, विभोः स्वरुपं परिचाययन्मुहुः ।
यगगानुरुपं च पंथं व्यदर्शयत्, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।

उपेक्षिता यज्ञ महादिकाः क्रियाः, विलुप्तप्राय खलु सान्ध्यमाहिकम् ।

समुद्धृतं येन जगद्धिताय वै, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।

तिरस्कृतं विस्मडतमप्युपेक्षितं, आरोग्यवहं यजन प्रचारितुंम् ।
कलौ कृतं यो रचितुं समघतः, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।

तपः कृतं येन जगद्घिताय, विभीषिकायाश्च जगन्नु रक्षितुम ।
समुज्ज्वला यस्य भविष्य-घोषणा, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।

मृदुहृदारं हृदयं नु यस्य यत्, तथैव तीक्ष्णं गहनं च चिन्तनम् ।
ऋषेश्चरित्रं परमं पवित्रकं, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।

जनेष देवत्ववृतिं प्रवर्धितुं, वियद् धरायाच्च विधातुमक्षयम् ।
युगस्य निर्माणकृता च योजना, परं महाकालममुं नामाम्यहम् ।।

यः पठेच्चिन्त येच्चापि, महाकाल-स्वरुपकम् ।
लभेत परमां प्रीति, महाकाल कृपादृशा ।।

नमामि अम्बे ..

नमामि अम्बे दीन वत्सले,
तुम्हे बिठाऊँ हृदय सिंहासन .
तुम्हे पिन्हाऊँ भक्ति पादुका,
नमामि अम्बे भवानि अम्बे ..

श्रद्धा के तुम्हे फूल चढ़ाऊँ,
श्वासों की जयमाल पहनाऊँ .
दया करो अम्बिके भवानी,
नमामि अम्बे भवानि अम्बे ..

बसो हृदय में हे कल्याणी,
सर्व मंगल मांगल्य भवानी .
दया करो अम्बिके भवानी,
नमामि अम्बे भवानि अम्बे ..

सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम*****

सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम*******
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मन्त्र----
ऍ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे!! ॐ ग्लौं हूँ क्लीं जूँ स: ज्वालय जवालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऍ ह्रीं क्लीं चामिंडायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट स्वाहा!!
नमस्ते रुद्र्रुपिंयै नमस्ते मधुमर्दिनि!
नम: कैटभ हारिंयैनमस्ते महिषामर्दिनि!!1!!
नमस्ते शुम्भहन्त्र्ये च निशुम्भासुरघातिनी!!२!!
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे!
ऐंकारी सृष्टिपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका!!३!!
क्लींकारी काम रूपिन्ये बीजरूपे नमोSस्तू ते
चामुंडा चंडघाती च यैकारी वरदायिनी !!४!!
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्र्रूपीणि!!5!!
धां धीं धूर्जटे: पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी !
क्रां क्रीं करूं करूं [शब्द भेद] कालिकादेवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु!!६!!
हुं हुं हुंकार रूपिन्यै जं जं जं जम्भनादिनी !
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नम:!!७!!
अं कं चं टं तं पं शं वीं दुं ऍ हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय कुरु कुरु स्वाहा!!
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा!!८!!
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्र सिद्धिं कुरुष्व मे !!
इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मन्त्र जागर्ति हेतवे !
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति!!
यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत !
न तस्य जायते सिद्धिररन्ये रोदनं यथा!!

मंगल चण्डिका स्तोत्रम्..

मंगल चण्डिका स्तोत्रम्
शंकर उवाच
रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मंगलचण्डिके हारिके विपदां राशेर्हर्ष-मंगल-कारिके
हर्ष-मंगल-दक्षे हर्ष-मंगल-चण्डिके शुभे मंगल-दक्षे शुभ-मंगल-चण्डिके
मंगले मंगलार्हे सर्व-मंगल-मंगले सतां मंगलदे देवि सर्वेषां मंगलालये
पूज्या मंगलवारे मंगलाभीष्ट-दैवते पूज्ये मंगल-भूपस्य मनुवंशस्य संततम्
मंगलाधिष्ठातृदेवि मंगलानां मंगले संसार-मंगलाधारे मोक्ष-मंगल-दायिनी
सारे मंगलाधारे पारे सर्वकर्मणाम् प्रतिमंगलवारे पूज्ये मंगलप्रदे
स्तोत्रेणानेन शम्भुश्च स्तुत्वा मंगलचण्डिकाम्
प्रतिमंगलवारे पूजां कृत्वा गतः शिवः
देव्याश्च मंगल-स्तोत्रं यं श्रृणोति समाहितः तन्मंगलं भवेच्छश्वन्न भवेत् तदमंगलम्
प्रथमे पूजिता देवी शंभुना सर्वमंगला । द्वितीय पूजिता देवी मंगलेन ग्रहेण च ॥
तृतीये पूजिता भद्रा मंगलेन नृपेण च । चतुर्थे मंगले वारे सुन्दरीभिश्च पूजिता ॥
पञ्चमे मंगलाकाङ्क्षैर्नरैर्मंलचण्डिका ॥
पूजिता प्रतिविश्वेषु विश्वेशै: प्रतिमा सदा । तत: सर्वत्र संपूज्या सा बभूव सुरेश्वरी ॥
देवादिभिश्च मुनिभिर्मनुभिर्मानवैर्मुने । देव्याश्च मंगलस्तोत्रं य: शृणोति समाहित: ॥
तन्मंगलं भवेच्छश्वन्न भवेत्तदमंगलम् । वर्धन्ते तत्पुत्रपौत्रा मंगलं च दिने दिने ॥

(ब्रह-वैवर्त्त-पुराण प्रकृतिखण्ड ४४ २९-४१)

शिवरक्षास्तोत्रं..

शिवरक्षास्तोत्रं

श्री गणेशाय नमः ॥

विनियोग:

अस्य श्रीशिवरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः ॥

For the chant of Protection of Lord Shiva. The sage is Yagna Valkya

श्री सदाशिवो देवता ॥अनुष्टुप् छन्दः ॥

God is Sada Shiva. Meter is Anushtup

श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थं शिवरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ॥

For pleasing Lord Sada Shiva, the chanting of Shiva Raksha stotra is being done.

चरितं देवदेवस्य महादेवस्य पावनम् ।
अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् ॥१॥

The story of God of Gods,

The blessed story of Lord Shiva,

Which is great, which is elevating,

And blesses one with four types of wealth.

गौरीविनायकोपेतं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रकम् ।
शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नरः ॥२॥

After meditating on Lord Shiva,

Who has five necks and three eyes,

And who is accompanied by Parvathi and Ganesa,

Men should read the protection of Lord Shiva.

गंगाधरः शिरः पातु भालं अर्धेन्दुशेखरः ।
नयने मदनध्वंसी कर्णो सर्पविभूषण ॥३॥

Let he who carries Ganga protect my head,

Let he who keeps the crescent of moon protect my forehead,

Let the killer of Cupid protect my eyes,

Let he who wears Snakes as ornament protect my ears.

घ्राणं पातु पुरारातिः मुखं पातु जगत्पतिः ।
जिह्वां वागीश्वरः पातु कंधरां शितिकंधरः ॥४॥

Let my nose me protected by the destroyer of puras (cities),

Let my face be protected by Lord of Universe.

Let my tongue be protected by the Lord of words,

And let my neck be protected by Shiva who lives in caves.

श्रीकण्ठः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ विश्वधुरन्धरः ।
भुजौ भूभारसंहर्ता करौ पातु पिनाकधृक् ॥५॥

Let my throat be protected by the God with a blessed throat,

Let my shoulders be protected by, he who removes ills of the world,

Let my arms be protected by he who lessens the burden of earth,

And let he who holds Pinaka bow protect my hands.

हृदयं शंकरः पातु जठरं गिरिजापतिः ।
नाभिं मृत्युञ्जयः पातु कटी व्याघ्राजिनाम्बरः ॥६॥

Let Shankara protect my heart,

Let my belly be protected by consort of Girija,

Let my navel be protected by he who won over death,

And let my waist be protected by he who dresses in Tiger skin.

सक्थिनी पातु दीनार्तशरणागतवत्सलः ।
उरू महेश्वरः पातु जानुनी जगदीश्वरः ॥७॥

Let the God who takes mercy on the oppressed,

Who is dear to those who surrender to him protect my joints,

Let my thighs be protected by the great God,

And knees by the God of the universe.

जङ्घे पातु जगत्कर्ता गुल्फौ पातु गणाधिपः ।
चरणौ करुणासिंधुः सर्वाङ्गानि सदाशिवः ॥८॥

Let my calves be protected by the creator of the world,

Lat my ankles be protected by leader of Ganas,

Let my feet be protected by ocean of mercy,

And let all my body parts be protected by Sada Shiva.

एतां शिवबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स भुक्त्वा सकलान्कामान् शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥९॥

That blessed one who reads this protection,

Which is blessed with power of Lord Shiva,

Would get all his desires fulfilled,

Attain nearness to Lord Shiva after death,

And planets, ghosts and ghouls,

Which travel in any of the three worlds,

Would run immediately, far, far away,

Due to the protection given by names of Shiva.

ग्रहभूतपिशाचाद्यास्त्रैलोक्ये विचरन्ति ये ।
दूरादाशु पलायन्ते शिवनामाभिरक्षणात् ॥१०॥

This armour of the names of the consort of Parvathi,

Would remove fears and provide protection,

To the devotees who sing these often,

And the lord of the three worlds would be within his hold,

For this protection of Lord Shiva was revealed,

By Lord Vishnu in the dream to Yagna Valkya,

Who wrote it, as he was told, as soon as he woke up in the morning.

अभयङ्करनामेदं कवचं पार्वतीपतेः ।
भक्त्या बिभर्ति यः कण्ठे तस्य वश्यं जगत्त्रयम् ॥११॥

Devotee who recites this AbhaYankar named strotra of Lord Shiva the husband Parvati with love and devotion. Three world will be in his control.

इमां नारायणः स्वप्ने शिवरक्षां यथाऽऽदिशत् ।
प्रातरुत्थाय योगीन्द्रो याज्ञवल्क्यः तथाऽलिखत् ॥१२॥

This Shiva Raksha strotra is written by Yagna Valkya Rishi in the morning when he woke up as told by Lord Narayan to in his dream.

॥ इति श्रीयाज्ञवल्क्यप्रोक्तं शिवरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

Here ends the Shiva Raksha Strotra as told by Yagna Valkya Rishi


शिवनामावल्यष्टकम् - Garland of Names of Lord Shiva

Lord Shiva Nama Malyashtakam

हे चन्द्रचूड मदनान्तक शूलपाणे स्थाणो गिरीश गिरिजेश महेश शंभो ।
भूतेश भीतभयसूदन मामनाथं संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ १॥
Please save me from the deep sorrow of life, Oh Lord of the universe, Who wears the moon, who killed god of love, who holds the trident, Who is stable, who is the lord of mountain, who is the consort of Girija, Who is the greatest god, who is Shambhu, Who is lord of bhoothas, Who is exterminator of fear and phobia and is my lord.

हे पार्वतीहृदयवल्लभ चन्द्रमौले भूताधिप प्रमथनाथ गिरीशचाप ।
हे वामदेव भव रुद्र पिनाकपाणे संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ २॥
Please save me from the deep sorrow of life, Oh Lord of the universe, Who is lord of the heart of Parvathi, Who wears the crescent, Who is the chief of bhoothas, who is lord of Pramadhas, Who holds the mountain as his bow, who is the giver of suitable rewards, Who is the lord who is angry and who holds the bow called Pinaka.
हे नीलकण्ठ वृषभध्वज पञ्चवक्त्र लोकेश शेषवलय प्रमथेश शर्व ।
हे धूर्जटे पशुपते गिरिजापते मां संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ३॥
Please save me from the deep sorrow of life, Oh Lord of the universe, Who has a blue neck, who has bull in his flag, who has five throats, Who is the lord of the word, who is encircled by a snake, Who is the chief of Pramadhas, who is Shiva, Who has unkempt hair, who is the lord of all beings and Lord of Girija.

हे विश्वनाथ शिव शंकर देवदेव गङ्गाधर प्रमथनायक नन्दिकेश ।
बाणेश्वरान्धकरिपो हर लोकनाथ संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ४ ॥
Please save me from the deep sorrow of life, Oh Lord of the universe, Who is lord of universe, who is peaceful, who is Shankara, Who is god of gods, who carries Ganga, who is the chief of pramadhas, Who is lord of Nandi, who is the enemy of Baneswara and Andhakasura, Who is the destroyer and who is lord of the world.
वाराणसीपुरपते मणिकर्णिकेश वीरेश दक्षमखकाल विभो गणेश ।
सर्वज्ञ सर्वहृदयैकनिवास नाथ संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ५॥
Please save me from the deep sorrow of life, Oh Lord of the universe, Who is the lord of the city of Varanasi, who is the lord of Manikarnika, Who is the lord of warriors, who destroyed the yaga of Daksha, Who is the mighty, who is the chief of Bhootha ganas, Who is all knowing and the Lord who lives in everybody’s mind.
श्रीमन्महेश्वर कृपामय हे दयालो हे व्योमकेश शितिकण्ठ गणाधिनाथ ।
भस्माङ्गराग नृकपालकलापमाल संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ६॥
Please save me from the deep sorrow of life, Oh Lord of the universe, Who is the greatest lord, who is full of mercy, who is kind, Who has sky as hair, who has blue neck, who is chief of ganas, Who is coated all over by ash and who wears a garland of skulls.
कैलासशैलविनिवास वृषाकपे हे मृत्युंजय त्रीनयन त्रिजगन्निवास ।
नारायणप्रिय मदापह शक्तिनाथ संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ७॥
Please save me from the deep sorrow of life, Oh Lord of the universe, Who lives on mount Kailasa, who rides on the bull, Who has won over death, who has three eyes, Who lives in all the three worlds, who is the friend of Narayana, Who destroys pride and who is the consort of Shakthi.

विश्वेश विश्वभवनाशक विश्वरूप विश्वात्मक त्रिभुवनैकगुणाधिकेश ।
हे विश्वनाथ करुणामय दीनबन्धो संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ८॥
Please save me from the deep sorrow of life, Oh Lord of the universe, Who is king of universe, who lives in the entire world, Who cannot be defeated, who is the form of universe, Who is the soul of universe, who spreads in all three worlds, Who is the friend of the universe, who is full of mercy and friend of the oppressed.

गौरीविलासभवनाय महेश्वराय पञ्चाननाय शरणागतकल्पकाय ।
शर्वाय सर्वजगतामधिपाय तस्मै दारिद्र्यदुःखदहनाय नमः शिवाय ॥ ९॥
Salutes for Shiv, Who is the happiness and exuberance of Gauri (Parvati), Who is Maheshvar, Who has five-heads (in one special form among many), Who is like a Kalp-tree for refugee, Who is Sharva, Who is the Lord of this Universe, and Who is destroyer of unhappiness and poverty.

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ शिवनामावल्यष्टकं संपूर्णम्