Saturday, May 28, 2011

प्रभु नाम का रस..

प्रभु नाम का रस पियो और सब को पिलाओ, जो सभी थकान को दूर करे --एक बार जो चड जाये फिर कभी न उतरे -----
रामचंद्र रघुनायक जय जय !
दिव्य चाप कर सायक जय जय!!
कृष्णचन्द्र यदुनायक जय जय !
भगवद्गीता-गायक जय जय!
कृष्णा हो रामा गोविन्द माधव ,
विष्णु मुकुंद नरहरि गोपाल लाल!
कृष्णा हो रामा रामा गोविन्द हरि हरि!!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे!
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे!!
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे!
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे!!
जय विराट जय जगत्पते !
गौरीपति जय रमापते!!
नारायण नारायण जय गोविन्द हरे!
नारायण नारायण जय गोपाल हरे!!
श्याम श्याम राधे राधे, राधे राधे राधे राधे!
राम राम सीते सीते, सीते सीते सीते सीते!!
केशव कलिमलहारी राधेश्याम राधेश्याम!
दशरथ-अजिरबिहारी सीताराम सीताराम!!
जयति शिवा-शिव शंकर हर जय!
महादेव हे शम्भो जय जय!!
जय गिरितनये, नीलकन्ठ जय!
जगदम्बे जय आशुतोष जय!!
महादेव हर हर शंकर जय!
मदनदर्पहर मंगलकर जय!!
अगड़बम अगड़बम बाजे डमरू !
नाचे सदाशिव जगद्गुरु!!

Friday, May 27, 2011

प्रेम और भक्ति में हिसाब! ..

प्रेम और भक्ति में हिसाब!

एक पहुंचे हुए सन्यासी का एक शिष्य था, जब भी किसी मंत्र का जाप करने बैठता तो संख्या को खडिया से दीवार पर लिखता जाता। किसी दिन वह लाख तक की संख्या छू लेता किसी दिन हजारों में सीमित हो जाता। उसके गुरु उसका यह कर्म नित्य देखते और मुस्कुरा देते।

एक दिन वे उसे पास के शहर में भिक्षा मांगने ले गये। जब वे थक गये तो लौटते में एक बरगद की छांह बैठे, उसके सामने एक युवा दूधवाली दूध बेच रही थी, जो आता उसे बर्तन में नाप कर देती और गिनकर पैसे रखवाती। वे दोनों ध्यान से उसे देख रहे थे। तभी एक आकर्षक युवक आया और दूधवाली के सामने अपना बर्तन फैला दिया, दूधवाली मुस्कुराई और बिना मापे बहुत सारा दूध उस युवक के बर्तन में डाल दिया, पैसे भी नहीं लिये। गुरु मुस्कुरा दिये, शिष्य हतप्रभ!

उन दोनों के जाने के बाद, वे दोनों भी उठे और अपनी राह चल पडे। चलते चलते शिष्य ने दूधवाली के व्यवहार पर अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो गुरु ने उत्तर दिया,

'' प्रेम वत्स, प्रेम! यह प्रेम है, और प्रेम में हिसाब कैसा? उसी प्रकार भक्ति भी प्रेम है, जिससे आप अनन्य प्रेम करते हो, उसके स्मरण में या उसकी पूजा में हिसाब किताब कैसा?'' और गुरु वैसे ही मुस्कुराये व्यंग्य से।

'' समझ गया गुरुवर। मैं समझ गया प्रेम और भक्ति के इस दर्शन को।

Monday, May 23, 2011

ईश्वर ..

ईश्वर,
सड़क बुहारते भीखू से बचते हुए
बिलकुल पवित्र पहुँचती हूं तुम्हारे मंदिर में

ईश्वर
जूठन साफ़ करती रामी के बेटे
की नज़र न लगे इसलिए
आँचल से ढक कर लाती हूँ तुम्हारे लिए मोहनभोग की थाली

ईश्वर
दो चोटियां गूँथे रानी आ कर मचले
उससे पहले
तुम्हारे श्रृंगार के लिए तोड़ लेती हूँ
बगिया में खिले सारे फूल

ईश्वर
अभी परसों मैंने रखा था व्रत
तुम्हें ख़ुश करने के लिए
बस दूध, फल, मेवे और मिष्ठान्न से मिटाई थी भूख
कितना मुश्किल है बिना अनाज के जीवन तुम नहीं जानते

ईश्वर
दरवाज़े पर दो रोटी की आस लिए आए व्यक्ति से पहले
तुम्हारे प्रतिनिधि समझे जाने वाले पंडितों को
खिलाया ख़ूब जी भर कर
चरण छू कर लिए तुम्हारी ओर से आशीर्वाद

ईश्वर
दो बरस के नन्हें नाती की
ज़िद सुने बिना मैंने
तुम्हें अर्पण किए थे ऋतुफल

ईश्वर
इतने बरसों से
तुम्हारी भक्ति, सेवा और श्रद्धा में लीन हूँ
और
तुम हो कि कभी आते नहीं दर्शन देने...



Sunday, May 22, 2011

.हे राम .....हे कृष्ण...

हे राम ....हे कृष्ण ...हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ...
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ....
हे राम हे कृष्ण .....कैसे जगतपालक हो ..अपने अन्यान्य नामों की मर्यादा का का पालन भी नहीं कर पाते ...न मालूम सृष्टि कैसे चलाते हो ... जब "तुम्हीं "......"तुम्हीं "....जब सबका अंतिम ध्येय हो ....फिर क्यों माया का स्वांग रचाते हो ...सीधे ..सीधे अपने पास आने दो .....यम ,नियम ;ज्ञान -वैराग्य ;योग-साधना ;भक्ति .....कभी न ख़त्म होने वाली ...यदि यही सब आवश्यक थी ....तो जन्म से हमें क्यों नहीं सर्व गुण संपन्न बनाया ..............कर्म बंधन के नियम .....जैसे चाहे बना डाले ....निरंकुश समझते हो अपने आपको ...मुझे अपनाना ही पड़ेगा ....हे राम .....हे कृष्ण ...हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ...
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ....

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.हे राम .....हे कृष्ण...

हे राम ....हे कृष्ण ...हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ...
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ....
हे राम हे कृष्ण .....कैसे जगतपालक हो ..अपने अन्यान्य नामों की मर्यादा का का पालन भी नहीं कर पाते ...न मालूम सृष्टि कैसे चलाते हो ... जब "तुम्हीं "......"तुम्हीं "....जब सबका अंतिम ध्येय हो ....फिर क्यों माया का स्वांग रचाते हो ...सीधे ..सीधे अपने पास आने दो .....यम ,नियम ;ज्ञान -वैराग्य ;योग-साधना ;भक्ति .....कभी न ख़त्म होने वाली ...यदि यही सब आवश्यक थी ....तो जन्म से हमें क्यों नहीं सर्व गुण संपन्न बनाया ..............कर्म बंधन के नियम .....जैसे चाहे बना डाले ....निरंकुश समझते हो अपने आपको ...मुझे अपनाना ही पड़ेगा ....हे राम .....हे कृष्ण ...हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ...
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ....

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Saturday, May 21, 2011

मैं राम नाम गुण गाऊं |

मैं राम नाम गुण गाऊं |
तेरा सहारा लेकर भगवन भव सागर तर जाऊं |
विपदा के मारों का तू है जन्म जन्म का साथी |
तेरे नाम से रोशन है दुनिया की अंधियारी बाती |
मन मंदिर में निशदिन भगवन प्रेम की ज्योति जलाऊँ |
मैं राम नाम गुण गाऊं |
कहते हैं कण कण में प्रभु ज़ी तेरा रूप समाया |
फिर भी भगवन देख न पाया क्या है तेरी माया |
मुझको दे दो वो दो अँखियाँ जिनसे दर्शन पाऊँ |
मैं राम नाम गुण गाऊं |
मैं राम नाम गुण गाऊं

मुझे पाती लिखना सिखला दो.....

जय श्री राम ...जय जय श्री कृष्ण !!!!
मुझे पाती लिखना सिखला दो हे प्रभु नयनों के पानी से ।
बतला दो कैसे शुरू करुंगा किसकी राम कहानी से ।।

घोलूँगा कौन रंग की स्याही, किस टहनी की बने कलम
है कौन कला जिससे पिघला, करते हो लीलामय प्रियतम,
हे प्रभु तुम प्रकट हुआ करते हो, किस मनभावनि वाणी से,
मुझे पाती लिखना सिखला दो हे प्रभु नयनों के पानी से ।

कैसा होगा पावन पन्ना, कैसे होंगे अनुपम अक्षर
कोमल अंगुलि में थाम जिसे, तुम पढ़ा करोगे पहर-पहर,
कैसे खुश होंगे रूठ गये, क्या प्रभु मेरी नादानी से
मुझे पाती लिखना सिखला दो हे प्रभु नयनों के पानी से ।

अपनी प्रिय विषयवस्तु बतला दो, सच्चे प्रभु त्रिभुवन-साँईं
क्या कहाँ रखूँगा, कितनी होगी प्रेम-पत्र की लम्बाई,
कब प्रभु अंतरतम जुड़ जायेगा सच्चे अवढर दानी से,
मुझे पाती लिखना सिखला दो हे प्रभु नयनों के पानी से ।

दृग-गोचर होंगे क्या न देव, कब तक लुक-छिप कर खेलोगे
इस मंद भाग्य को क्या न कभीं करूणेश ! गोद में ले लोगे
पंकिल मानस को मथा करोगे, अपनी प्रेम-मथानी से,
मुझे पाती लिखना सिखला दो हे प्रभु नयनों के पानी से ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ..
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ...

Friday, May 20, 2011

गणपति बप्पा की जय बोलो..


जय बोलो जय बोलो
गणपति बप्पा की जय बोलो।

सिद्ध विनायक संकट हारी
विघ्नेश्वर शुभ मंगलकारी

सबके प्रिय सबके हितकारी
द्वार दया का खोलो

जय बोलो जय बोलो


पारवती के राज दुलारे
शिवजी की आंखों के तारे

गणपति बप्पा प्यारे प्यारे
द्वार दया का खोलो

जय बोलो जय बोलो।


शंकर पूत भवानी जाये
गणपति तुम सबके मन भाये

तुमने सबके कष्ट मिटाये
द्वार दया का खोलो

जय बोलो जयबोलो


जो भी द्वार तुम्हारे आता
खाली हाथ कभी ना जाता

तू है सबका भाग्य विधाता
द्वार दया का खोलो

जय बोलो जय बोलो
गणपति बप्पा की जय बोलो

Tuesday, May 17, 2011

जो पेड़ कभी मैंने लगाया था....

जो पेड़ कभी मैंने लगाया था , जिसे सींच सींच कर मैंने जियाया था |
वो पेड़ जब मुझसे बड़ा हो गया तो मेरा सर कितना गर्वाया था |
एक दिन आया एक निर्मोही पड़ोसी , जिसे पेड़ पर तरस नही आया |
हरे भरे पेड़ को काटा ,क्योंकि उनके घर पर थी उसकी छाया |
कितना दर्द सहा उस पेड़ ने, कितना उसने चीखा |
पर स्वारथ बस उस बन्दे ने किया पेड़ को सूखा |
पेड़ों में है जान, नहीं मूरख की समझ में आया |
हरे भरे प्यारे से पेड़ को, जिसने है कटवाया |

Saturday, May 14, 2011

किरपा करो बजरंगी ....


जय श्री राम !!जय जय हनुमान !!!!
महावीर तुम्हारे द्वार पर एक दास भिखारी आया है
प्रभु दर्शन भिक्षा पाने को, दो नयन कटोरा लाया है
महावीर तुम्हारे द्वार पर मंजु महेश आये है ...
कृपा करो महाराज ..बाबा ..कृपा करो ....

नहीं दुनिया मे कोई मेरा है.. आफत ने मुझको घेरा है...
जग ने मुझको ठुकराया है... बस एक सहारा तेरा है..
मेरी बीच भवर मे नैया है.. एक तू ही पार लगैया है..
लाखो को ज्ञान सिखाया है.. भव सिन्धु से पार उतारा है..
महावीर तुम्हारे द्वार पर मंजु महेश आये है ..
कृपा करो बजरंगी ...कृपा करो ...
तेरी किरपा की चाह लिए ...परिवार को साथ लिए .....
मेरी इच्छा है , तेरे दर्शन को... द्वार तेरे आस लिए ....
महावीर तुम्हारे द्वार पर मंजु महेश आये है ..
किरपा करो बजरंगी ..अब तो तुम किरपा करो ...

दिन रात तेरा ही नाम जपूँ ..बजरंगी .. तुम बिन हमको चैन नहीं..
अब जल्दी आकर सुध ले लो......तेरा ये दास आस लिए
महावीर तुम्हारे द्वार पर राम नाम की धुन मे रमे ...
किरपा करो बजरंगी ..अब तो बाबा किरपा करो ..
जय श्री राम ...जय जय हनुमान .

Tuesday, May 10, 2011

जगजननी जय जय माँ ..


जगजननी जय जय माँ .
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:। नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्म ताम्॥1॥

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धा˜यै नमो नम:। ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नम:॥2॥

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नम:। नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नम:॥3॥

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै। ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नम:॥4॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नम:। नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नम:॥5॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥6॥

या देवी सर्वभेतेषु चेतनेत्यभिधीयते। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥7॥

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥8॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥9॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥10॥

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥11॥

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥12॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥13॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥14॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥15॥

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥16॥

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥17॥

यादेवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥18॥

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥19॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥20॥

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥21॥

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥22॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥23॥

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥24॥

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥25॥

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥26॥

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या। भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नम:॥ 27॥

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्व्याप्य स्थिता जगत्। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥28॥

स्तुता सुरै: पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।

करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:॥29॥

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै-रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।

या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति न: सर्वापदो भक्ति विनम्रमूर्तिभि:॥30॥ अर्थ :- देवता बोले- देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हमलोग नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते हैं। रौद्रा को नमस्कार है। नित्या, गौरी एवं धात्री को बारम्बार नमस्कार है। ज्योत्स्नामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है। शरणागतों का कल्याण करने वाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। नैर्ऋती (राक्षसों की लक्ष्मी), राजाओं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्‍‌नी) स्वरूपा आप जगदम्बा को बार-बार नमस्कार है। दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट से पर उतारने वाली), सारा (सबकी सारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रादेवी को सर्वदा नमस्कार है। अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा देवी को हम नमस्कार करते हैं, उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है। जगत् की आधारभूता कृति देवी को बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में विष्णुमाया के नाम से कही जाती है, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में निद्रारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में क्षुधारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में छायारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में तृष्णारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में क्षान्ति (क्षमा) रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में जातिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में लज्जारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में शान्तिरूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में श्रद्धारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में कान्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मीरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में वृत्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में स्मृतिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में दयारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में तुष्टिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में मातारूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो देवी सब प्राणियों में भ्रान्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। जो जीवों के इन्द्रियवर्ग की अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियों में सदा व्याप्त रहने वाली हैं उन व्याप्ति देवी को बारम्बार नमस्कार है। जो देवी चैतन्यरूप से इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है। पूर्वकाल में अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूत ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले। उद्दण्ड दैत्यों से सताये हुए हम सभी देवता जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति से विनम्र पुरुषों द्वारा स्मरण की जाने पर तत्काल ही सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमार संकट दूर करें।..

जय जय हनुमान !!!!


राम नाम के पंख लगा के हनुमत भरे उड़ान ।
महाबली कपि महा तेजमय अद्भुत क्षमतावान ॥

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर ।
जे कपीश तिहुँ लोक उजागर ॥
राम दूत अतुलित बल धामा ।
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ॥

राम काज करिबे को आतुर । चल दिये चतुर सुजान ॥
राम नाम के पंख लगा के हनुमत भरे उड़ान ।
महाबली कपि महा तेजमय अद्भुत क्षमतावान ॥

नहीं विश्राम नींद नहीं भोजन ।
करना पार चार शत योजन ॥
तुमसे है कपि धर्मं प्रतिष्ठा ।
उपमा-हीन तुम्हारी निष्ठा ॥

तीन लोक में राम भक्त नहीं । कोई हनुमंत समान ॥
राम नाम के पंख लगा के हनुमत भरे उड़ान ।
महाबली कपि महा तेजमय अद्भुत क्षमतावान ॥

जिसपे श्री रघुवर की छाया ।
कोई उसको रोक न पाया ॥
बाधा विघ्न को लाँघ समंदर ।
निर्भय पवन वेग से उड़कर ॥

सांझ समय लंका नगरी में । पहुँच गए हनुमान ॥
राम नाम के पंख लगा के हनुमत भरे उड़ान ।
महाबली कपि महा तेजमय अद्भुत क्षमतावान

Monday, May 9, 2011

रोम रोम में राम..

रोम रोम में राम

गोस्वामी जी ने भगवान मारूति के विभिन्न गुणों में ‘राम चरित सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया’ ऐसा लिखा है। प्रभु चरित्र सुनने के वे रसिक हैं और इसी के परिणाम स्वरूप श्री सीता राम लक्षण के सहित इनके हृदय में ही सदैव विराजमान रहते हैं। लंका विजय के पश्चात् भगवान राम जब लौटकर अयोध्या में आते हैं, सभी को अनेक प्रकार के पुरस्कार देते हैं। श्री आंजनेय उनके चरणों में नतमस्तक हो बैठे हुए हैं। उनकी तरफ देखकर जगदम्बा श्रीसीता के हृदय में यह भाव आता है कि इस अपने प्यारे लाडले पुत्र को तो पुरस्कार रूप में कुछ दिया ही नहीं लंका में अमूल्य रत्न का हार विभीषण ने लाकर जगत्जननी को समर्पित किया था। जब हार को लेकर जगदम्बा हनुमान जी के गले में डाल देती हैं। वह अमूल्य रत्न का हार हनुमान जी के गले में पड़ता है। तो वह निकाल लेते हैं, देखते ही कि यह क्या है ? उसमें कहीं उन्हें राम–नाम दिखाई नहीं देता। मनके को तोड़ते हैं, ऊपर नीचे देखते हैं, जब कुछ दिखाई नहीं देता तो उसे दांत में लगाते हैं – दबाकर दो टुकड़े करते हैं – खोलकर देखते हैं कि वहां कुछ नहीं है तो उसे थूक देते हैं, फैंक देते हैं। एक–2 करके मनके को तोड़ते जाते हैं और फेंकते जाते हैं। अमूल्य रत्न की इस दुर्गति को देखकर विभीषण को क्षोभ होता है।

विभीषण हाथ जोड़कर खड़े होते हैं कि मेरी दी हुई भेंट का यह अपमान अनुचित है, पूछते हैं हनुमान। यह अमूल्य रत्न तुम क्यों तोड़ कर फेंक रहे हो ? भगवान मारूति कहते हैं, विभीषण। मैं देखता हूं कि इसमें कहीं राम नाम नहीं है क्योंकि जो राम से रहित है वह मेरे किसी काम का नहीं है इसलिए इसे फेंकने के सिवा और इसका उपयोग ही क्या हो सकता है ? विभीषण को इस उत्तर से बड़ी व्यथा होती है। एकाएक आदेश में आकर पूछते हैं, क्या जिस शरीर को तूने धारण किया है इसमें भी राम हैं ? हनुमान जी कहते हैं – अवश्य। यदि इसमें राम नही तो यह शरीर मेरे किसी काम का नहीं। यह कहते हुए अपने सीने को फाड़ते हैं – जब फाड़ते हुए दिखाते हैं तो उसमें श्रीसीताराम विराजित हैं। हनुमान जी के इस परम, आस्थामयी पावन भक्ति का दर्शन कर सारा अवध समाज कृतकृत्य हो जाता है। विभीषण अपनी भूल पर पश्चाताप करते हुए क्षमा प्रार्थना करते हैं।

जिसके रोम–रोम में राम बसे हुए हों, जिसके अंग–2 में राम विराजित हों, जिसके श्वांस–2 में राम के सिवा और कुछ न हो, जिसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही राममय हो, भला, वह शक्ति, भक्ति और सेवा का साकार विग्रह क्यों न हो ? उसी प्रकार यदि हम आप सभी उनका प्रतिपल अनुकरण करते हुए अपने आप को प्रभु चारणों में ही समर्पित रखें, श्वांस–2 में प्रभु का दिव्य नाम समा जाए, अंग–2 रामनाम से परिपूण्र हो जाए तो हमारा भी जीवन धन्य हो सकता है।

Friday, May 6, 2011

विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्

विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्

श्रीसुदर्शनसंहिता में भक्त प्रवर विभीषण महात्मा गरुड़ को श्रीमारुति की महिमा सुनाते हुए कहते हैं कि सर्व प्रकार के भय, बाधा, संताप तथा दुष्ट ग्रह जन्य समस्त संकटों का उन्मूलन करने वाला श्री हनुमान जी का यह स्तोत्र है। कल्याणकांक्षी मनुष्य यदि नित्य प्रति इसका पाठ करता है तो वह सर्वबाधाजन्य संकटों से मुक्त हो मारुति की कृपा से सुख, शान्ति एवं समृद्धि को प्राप्त करता है। स्तोत्र इस प्रकार है –

नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे।
नम: श्रीरामभक्ताय श्यामास्याय च ते नम:
।। 1।।

नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे।
लंकाविदाहनार्थय हेलासागरतारिणे
।। 2।।

सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च।
रावणान्तकुलच्छेदकारिणे ते नमो नम:
।। 3।।

मेघनादमखध्वंसकारिणे ते नमो नम:।
अशोकवनविध्वंसकारिणे भयहारिणे
।। 4।।

वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने।
वनपालशिरश्छेदलंकाप्रासादभज्जिने
।। 5।।

ज्वल्तकनकवर्णाय दीर्घलाङ्गूलधारिणे।
सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते नम:
।। 6।।

अक्षस्य वध कर्ते च ब्रह्मपाशनिवारिणे।
लक्ष्मणांगमहाशक्तिघातक्षतविनाशिने
।। 7।।

रक्षोघ्नाय निपुघ्नाय भूतघ्नाय च ते नम:।
ऋक्षवानरवीरौघप्राणदाय नमो नम:
।। 8।।

परसैन्यबलध्नाय शस्त्रास्त्रघ्नाय ते नमः ।
विषध्नाय द्विषघ्नाय ज्वरघ्नाय च ते नम:
।। 9।।

महाभयरिपुघ्नाय भक्तत्राणैककारिणे।
परप्रेरितमन्त्राणां यन्त्राणां स्तम्भकारिणी
।। 10।।

पय:पाषाणतरणकारणाय नमो नम:।
बालार्कमण्डलग्रासकारिणे भवतारिणे
।। 11।।

नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च।
रिपुमायाविनाशाय रामाज्ञालोकरक्षिणे
।। 12।।

प्रतिग्रामस्थितायाथ रक्षोभूतवधार्थिने।
करालशैलशस्त्राय दु्रमशस्त्राय ते नम:
।। 13।।

बालैकब्रह्मचर्याय रुद्रमूर्तिधराय च।
विहंगमाय सर्वाय वज्रदेहाय ते नम:
।। 14।।

कौपीनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च।
दक्षिणाशाभास्कराय शतचन्द्रोदयात्मने
।। 15।।

कृत्याक्षतव्याथाघ्नाय सर्वक्लेशहराय च।
स्वाम्याज्ञापार्थसंग्रामसंख्ये संजयधारिणे
।।16।।

भक्तान्तदिव्यवादेषु संग्रामे जयदायिने।
किल्किलाबुबुकोच्चारघोरशब्दकराय च
।।17।।

सर्पाग्निव्याधिसंत्तम्भकारिणी वनचारिणे।
सदा वनफलाहारसंतृप्ताय विशेषत:
।।18।।

महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नम:।
वादे विवादे संग्रामे भये घोरे महावने
।।19।।

सिंहव्याघ्रादिचौरेभ्य: स्तोत्रपाठाद् भयं न हिं
दिव्ये भूतभये व्याधौ विषे स्थावरजंगमे
।।20।।

राजशस्त्रभये चोग्रे तथा ग्रहभयेषु च।
जले सर्वे महावृष्टौ दुर्भिक्षे प्राणसम्प्लवे
।।21।।

पठेत् स्तोत्रं प्रमुच्यते भयेभ्य: सर्वतो नर:।
तस्य क्वापि भयं नास्ति हनुमत्स्तवपाठत:
।।22।।

सर्वदा वै त्रिकालं च पठनीय मिमं स्तवम्।
सर्वान् कामानवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा
।। 23।।

विभीषणकृतं स्तोत्रं ताक्ष्र्येण समुदीरितम्।
ये पठिष्यन्ति भक्त्या वै सिद्धयस्तत्करे स्थिता:
।। 24।।

इति श्रीसुदर्शनसंहितायां विभीषणगरुडसंवादे विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रं सम्पूर्णम्।





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