Thursday, September 29, 2011

श्री राधायाः परीहारस्तोत्रम्

श्री राधायाः परीहारस्तोत्रम्


त्वं देवी जगतां माता विष्णुमाया सनातनी ।

कृष्णप्राणाधिदेवि च कृष्णप्राणाधिका शुभा ॥ १॥

कृष्णप्रेममयी शक्तिः कृष्णसौभाग्यरूपिणी ।

कृष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मङ्गलप्रदे ॥ २॥

अद्य मे सफलं जन्म जीवनं सार्थकं मम ।

पूजितासि मया सा च या श्रीकृष्णेन् पूजिता ॥ ३॥

कृष्णवक्षसि या राधा सर्वसौभाग्यसंयुता ।

रासे रासेश्वरीरूपा वृन्दा वृन्दावने वने ॥ ४॥

कृष्णप्रिया च गोलोके तुलसी कानने तुया ।

चम्पावती कृष्णसंगे क्रीडा चम्पककानने ॥ ५॥

चन्द्राक्ली चन्द्रवने शतश्रिङ्गे सतीति च ।

विरजादर्पहन्त्रि च विरजातटकानने ॥ ६॥

पद्मावती पद्मवने कृष्णा कृष्णसरोवरे ।

भद्रा कुञ्जकुटीरे च काम्या च काम्यके वने ॥ ७॥

वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्वाणी नारायणोरसि ।

क्षीरोदे सिन्धुकन्या च मर्त्ये लक्ष्मीर्हरिप्रिया ॥ ८॥

सर्वस्वर्गे स्वर्गलक्ष्मीर्देवदुःखविनाशिनी ।

सनातनी विष्णुमाया दुर्गा शंकरवक्षसि ॥ ९॥

सावित्री वे! दमाता च कलया ब्रह्मवक्षसि ।

कलया धर्मपत्नी त्वं नरनारायणप्रसूः ॥ १०॥

कलया तुलसी त्वं च गङ्गा भुवनपावनी ।

लोमकूपोद्भवा गोप्यः कलांशा हरिप्रिया ॥ ११ ॥

कलाकलांशरूपा च शतरूपा शचि दितिः।

अदितिर्देव्माता च त्वत्कलांशा हरिप्रिया ॥ १२॥

देव्यश्च मुनिपत्न्यश्च्ज त्वत्कलाकलया शुभे ।

कृष्णभक्तिं कृष्णदास्यं देहि मे कृष्णपूजिते॥ १३॥

एवं कृत्वा परीहारं स्तुत्वा च कवचं पठेत् ।

पुरा कृतं स्तोत्रमेतद् भक्तिदास्यप्रदं शुभम् ॥ १४॥

॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्ते श्रीराधायाः परीहारस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

Monday, September 26, 2011

राज राजेश्वरी पद्मावती स्तोत्र....

राज राजेश्वरी पद्मावती स्तोत्र

श्रीमद् गीर्वाण-चक्र-स्फुट-मुकुट-तटी-द
िव्य-माणिक्य-माला-

ज्योतिर्ज्वाला-कराला-स्फुरित-मकरिका-धृष्ट-पादारविन्द !

व्याघोरोल्का-सहस्त्र-ज्वलदलन-शिखा-लोल-पाशांकुशाढ्ये !

आँ क्रोँ ह्रीँ-मन्त्ररुपे ! क्षपित कलिमले ! रक्ष माँ देवि पद्मे ।।१।।

भित्त्वा पाताल मूलं चल-चल-चलिते ! व्याल-लीला-कराले !

विद्युद् दंड-प्रचण्ड-प्रहरण-सहिते ! सद् भूजैस्तर्जयन्ति !

दैत्येन्द्र-क्रूर-दंष्ट्रा-कट-कट-घटीत-स्पष्ट-भीमाट्टहासे !

माया-जीमूत-माला-कुहरित-गगने ! रक्ष माँ देवि ! पद्मे ।।२।।

कूजत्कोदण्ड-काण्डोड्डमर-विघुरित-क्रूर-घोरोपसर्गं,

दिव्यं वज्रातपत्रं-प्रगुण-मणि-रणत्-किंकिणी-क्वाण-रम्यं ।

भाष्यैद्वैडूर्य-दण्डंमदन-विजयिनो बिभ्रति पार्श्वभर्तुः,

सा देवी पद्महस्ता विघटयतु महाडामरं मामकीनम् ।।३।।

भृन्गी-काली-कराली-परिजन सहिते ! चण्डि ! चामुण्डि ! नित्ये !

क्षाँ क्षीँ क्षूँ क्षः क्षणार्द्धक्षत-रिपु-निवहे ! ह्रीँ महामन्त्र रुपे !

भ्राँ भ्रीँ भ्रूँ भ्रः प्रसंग-भ्रूकुटि-पुट-तट-त्रासितोद्दामदैत्ये !

क्ष्वाँ क्ष्वीँ क्ष्वूँ क्ष्वः प्रचण्डे ! स्तुतिशतमुखरे ! रक्ष माँ देवि ! पद्मे ! ।।४।।

चंचत् कांची-कलापे ! स्तन-तट-विलुठत्तार-हारावलीके !

प्रोत्फुल्लत्पारिजात-द्रुम-कुसुम-महामन्जरी-पूज्यपादे !

द्राँ द्रीं क्लीं ब्लूँ समेतैर्भूवन-वशकरी क्षोभिणी द्राविणी त्वं,

आं इं उं पद्महस्ते ! कुरु कुरु घटने ! रक्ष माँ देवि ! पद्मे ! ।।५।।

लीलाव्यालोल-निलोत्पल-दल-नयने ! प्रज्वलद्वाडवाग्नि-

प्रोद्यद्ज्वाला-स्फुलिंग-स्फुरदरुण-कणादग्र-वज्राग्र-हस्ते !

ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ ह्रः हरन्ति हर-हर-हर हुंकार-भीमैकनादे !

पद्मे ! पद्मासनस्थे ! व्यपनय दुरितं देवि ! देवेन्द्रवन्द्ये ! ।।६।।

कोपँ वँ झं स हंस कुवलय-कलिताद्दाम-लीला-प्रबन्धे !

ज्राँ ज्रीँ ज्रूँ ज्रःपवित्रे शशिकर-धवले ! प्रक्षरत्क्षीर गौरे !

व्याल-व्याबद्ध-जुटे प्रबल-बल-महाकालकूटं हरन्ति,

हा हा हुंकारनादे ! कृत-कर-कमले ! रक्ष माँ देवी पद्मे ।।७।।

प्रातर्बालार्क-रश्मिच्छुरित-धन-महासान्द्र-सिन्दूर-धूली-

सन्ध्या-रागारुणांगि ! त्रिदश-वरवधू-वन्द्य-पादारविन्दे !

चंचत्चण्डासि-धारा प्रहत-रिपुकुले ! कुण्डलोद् धृष्ट-गल्ले !

श्राँ श्रीँ श्रूँ श्रः स्मरन्ती मदगज-गमने ! रक्ष माँ देवि ! पद्मे ! ।।८।।

Sunday, September 25, 2011

श्री कृष्ण चालीसा

श्री कृष्ण चालीसा

दोहा

वंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम
अरूण अधर जनु बिम्ब फल, नयन कमल अभिराम
पूर्ण इन्दु अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज
जय मन मोहन मदन छवि, कृष्ण चन्द्र महाराज


चौपाई


जय यदुनन्दन जय जगवन्दन जय वसुदेव देवकी नन्दन
जय यसुदा सुत नन्द दुलारे जय प्रभु भक्तन के दृग तारे
जय नटनागर नाथ नथइया कृष्ण कन्हैया धेनु चरइया
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो आओ दीनन कष्ट निवारो
वंशी मधुर अधर धरि टेरी होवे पूर्ण विनय यह मेरी
आओ हरि पुनि माखन चाखो आज लाज भारत की राखो
गोल कपोल चिबुक अरूणारे मृदु मुस्कान मोहिनी डारे
रंजित राजिव नयन विशाला मोर मुकुट बैजन्ती माला
कुण्डल श्रवण पीतपट आछे कटि किंकणी काछन काछे
नील जलज सुन्दर तनु सोहै छवि लखि सुर नर मुनि मन मोहै
मस्तक तिलक अलक घुंघराले आओ कृष्ण बांसुरी वाले
करि पय पान, पूतनहिं तारयो अका बका कागा सुर मारयो
मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला भै सीतल,लखतहिं नन्दलाला
सुरपति जब ब्रज चढ़यो रिसाई मूसर धार वारि वर्षाई
लखत-लखत ब्रज चहन बहायो गोवर्धन नख धारि बचायो
लखि यसुदामन भ्रम अधिकाई मुख महं चौदह भुवन दिखाई
दुष्ट कंस अति उधम मचायो कोटि कमल जब फूल मंगायो
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें चरण चिन्ह दे निर्भय कीन्हें
करि गोपिन संग रास विलासा सबकी पूरण करि अभिलाषा
केतिक महा असुर संहार्यो कंसहि केस पकड़ि दै मार्यो
मात-पिता की बन्दि छुड़ाई उग्रसेन कहं राज दिलाई
महि से मृतक छहों सुत लायो मातु देवकी शोक मिटायो
भौमासुर मुर दैत्य संहारी लाए षट् दस सहस कुमारी
दे भीमहिं तृणचीर इशारा जरासंघ राक्षस कहं मारा
असुर बकासुर आदिक मार्यो भक्तन के तब कष्ट निवार्यो
दीन सुदामा के दुःख टार्यो तंदुल तीन मूठि मुख डार्यो
प्रेम के साग विदुर घर मांगे दुर्योधन के मेवा त्यागे
लखी प्रेम की महिमा भारी ऐसे श्याम दीन हितकारी
भारत में पारथ रथ हांके लिए चक्र कर नहिं बल थांके
निज गीता के ज्ञान सुनाए भक्तन हृदय सुधा वर्षाए
मीरा थी ऐसी मतवाली विष पी गई बजा कर ताली
राणा भेजा सांप पिटारी शालिग्राम बने बनवारी
निज माया तुम विधिहिं दिखायो उर ते संशय सकल मिटायो
तव शत निन्दा करि तत्काला जीवन मुक्त भयो शिशुपाला
जबहिं द्रोपदी टेर लगाई दीनानाथ लाज अब जाई
तुरतहिं बसन बने नन्दलाला बढ़े चीर भए अरि मुंह काला
अस अनाथ के नाथ कन्हैया डूबत भंवर बचावत नइया
सुन्दरदास आस उर धारी दयादृष्टि कीजै बनवारी
नाथ सकल मम कुमति निवारो क्षमहु बेगि अपराध हमारो
खोलो पट अब दर्शन दीजै बोलो कृष्ण कन्हैया की जै


दोहा
यह चालीसा कृष्ण का , पाठ करे उर धारी ,
अष्ट सिद्धि नवनिद्धि फल , लहेई पदारथ चारी .

Thursday, September 15, 2011

जय सियाराम ...


प्रवसि नगर कीजै सब काजा ! ह्रदय राखि कोसलपुर राजा !!
गरल सुधा रिपु करिय मिताई ! गोपद सिन्धु अनल सितलाई !!
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही ! राम कृपा कर चितवा जाही !!

जय सियाराम मित्रो भगवान का नाम-चिंतन-स्मरण हमें जगत में सभी प्रकार की सफलताएँ देकर श्री सीताराम चरण-कमल रति प्रदान करता है ! उपरोक्त चौपाईयां जगत में परम आदरणीय -मनोकामना पूर्ति हेतु कल्प बृक्ष सदृश -श्री सीताराम भक्ति प्रदायी श्रीमद रामचरितमानस नामक "रामभक्ति जहाँ सुरसरि धारा " है ,से संकलित हैं ! यहाँ श्रीराम भक्त हनुमानजी द्वारा माता जानकी की सुध लेने के लिए लंका में प्रवेश का सन्दर्भ है कि श्री पवन पुत्र भगवान श्री राम का स्मरण कर लंका में प्रवेश करते हैं ! जिसके लिए भगवान के वाहन पक्षीराज गरुड़ को परम आदरणीय भगवद भक्त श्री काकभुशुण्डी जी निर्देशित कर रहे हैं कि - हे गरुड़ जी श्री हरि सुमिरन संसार कि सभी बाधाओं जैसे -बिष-शत्रु-दुर्गमता आदि का निवारण श्री राम कृपाशीष से सहज ही होजाता है ये राम चरनाश्रित को प्रतिकूलता छोड़ अनुकूल हो जाते हैं ! बिष अमृत ,शत्रु मित्र ,अग्नी-शीतलता का आचरण करने लग जाती है -परम दुर्गम समुद्र भी गोखुर की भांति पर करने में सुगम , महान सुमेरु पर्वत धूल कण की भांति होकर श्री राम कृपा चितवन से आश्रित जन को लाभ पहुंचाकर उसे कार्य में सफलता प्रदान करते हैं ! अतः क्यों आज से अभी से श्री हनुमान जी की भांति श्री राम नाम को अपना आश्रय बना -श्री रामचरितमानस का पान कर जगत की सभी शंका-दुर्घटनाओं से मुक्त हो अभय पद पाकर , मनोवांछित सद-सफलताओं को अपने नाम लिख लें

Tuesday, September 13, 2011

देवकृत लक्ष्मी स्तोत्रम् |...


देवकृत लक्ष्मी स्तोत्रम् ||
क्षमस्व भगवंत्यव क्षमाशीले परात्परे |
शुद्धसत्त्वस्वरूपे च कोपादिपरिवर्जिते ||
उपमे सर्वसाध्वीनां देवीनां देवपूजिते |
त्वया विना जगत्सर्वं मृततुल्यं च निष्फलम् ||
सर्वसंपत्स्वरूपा त्वं सर्वेषां सर्वरूपिणी |
रासेश्वर्यधि देवी त्वं त्वत्कलाः सर्वयोषितः ||
कैलासे पार्वती त्वं च क्षीरोदे सिन्धुकन्यका |
स्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं मर्त्यलक्ष्मीश्च भूतले ||
वैकुंठे च महालक्ष्मीर्देवदेवी सरस्वती |
गंगा च तुलसी त्वं च सावित्री ब्रह्मालोकतः ||
कृष्णप्राणाधिदेवी त्वं गोलोके राधिका स्वयम् |
रासे रासेश्वरी त्वं च वृंदावन वने- वने ||
कृष्णा प्रिया त्वं भांडीरे चंद्रा चंदनकानने |
विरजा चंपकवने शतशृंगे च सुंदरी ||
पद्मावती पद्मवने मालती मालतीवने |
कुंददंती कुंदवने सुशीला केतकीवने ||
कदंबमाला त्वं देवी कदंबकाननेऽपि च |
राजलक्ष्मी राजगेहे गृहलक्ष्मीगृहे गृहे ||
इत्युक्त्वा देवताः सर्वा मुनयो मनवस्तथा |
रूरूदुर्नम्रवदनाः शुष्ककंठोष्ठ तालुकाः ||
इति लक्ष्मीस्तवं पुण्यं सर्वदेवैः कृतं शुभम् |
यः पठेत्प्रातरूत्थाय स वै सर्वै लभेद् ध्रुवम् ||
अभार्यो लभते भार्यां विनीतां सुसुतां सतीम् |
सुशीलां सुंदरीं रम्यामतिसुप्रियवादिनीम् ||
पुत्रपौत्रवतीं शुद्धां कुलजां कोमलां वराम् |
अपुत्रो लभते पुत्रं वैष्णवं चिरजीविनम् |
परमैश्वर्ययुक्तं च विद्यावंतं यशस्विनम् |
भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यं भ्रष्टश्रीर्लभते श्रियम् ||
हतबंधुर्लभेद्बंधुं धनभ्रष्टो धनं लभेत् |
कीर्तिहीनो लभेत्कीर्तिं प्रतिष्ठां च लभेद् ध्रुवम् ||
सर्वमंगलदं स्तोत्रं शोकसंतापनाशनम् |
हर्षानंदकरं शश्वद्धर्म मोक्षसुहृत्प्रदम् ||
|| इति श्रीदेवकृत लक्ष्मीस्तोत्रं संपूर्णम् |

Monday, September 12, 2011

महालक्ष्मी कवचं..


महालक्ष्मी कवच ::---

नारायण उवाच
सर्व सम्पत्प्रदस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः। ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवी पद्मालया स्वयम्।।१
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः। पुण्यबीजं च महतां कवचं परमाद्भुतम्।।२
ॐ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम्। श्रीं मे पातु कपालं च लोचने श्रीं श्रियै नमः।।३
ॐ श्रीं श्रियै स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदावतु। ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मे पातु नासिकाम्।।४
ॐ श्रीं पद्मालयायै च स्वाहा दन्तं सदावतु। ॐ श्रीं कृष्णप्रियायै च दन्तरन्ध्रं सदावतु।।५
ॐ श्रीं नारायणेशायै मम कण्ठं सदावतु। ॐ श्रीं केशवकान्तायै मम स्कन्धं सदावतु।।६
ॐ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा नाभिं सदावतु। ॐ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे मम वक्षः सदावतु।।७
ॐ श्रीं श्रीं कृष्णकान्तायै स्वाहा पृष्ठं सदावतु। ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा मम हस्तौ सदावतु।।८
ॐ श्रीं निवासकान्तायै मम पादौ सदावतु। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रियै स्वाहा सर्वांगं मे सदावतु।।९
प्राच्यां पातु महालक्ष्मीराग्नेय्यां कमलालया। पद्मा मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां श्रीहरिप्रिया।।१०
पद्मालया पश्चिमे मां वायव्यां पातु श्रीः स्वयम्। उत्तरे कमला पातु ऐशान्यां सिन्धुकन्यका।।११
नारायणेशी पातूर्ध्वमधो विष्णुप्रियावतु। संततं सर्वतः पातु विष्णुप्राणाधिका मम।।१२

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्। सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम्।।१३
सुवर्णपर्वतं दत्त्वा मेरुतुल्यं द्विजातये। यत् फलं लभते धर्मी कवचेन ततोऽधिकम्।।१४
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत् तु यः। कण्ठे वा दक्षिणे वाहौ स श्रीमान् प्रतिजन्मनि।।१५
अस्ति लक्ष्मीर्गृहे तस्य निश्चला शतपूरुषम्। देवेन्द्रैश्चासुरेन्द्रैश्च सोऽत्रध्यो निश्चितं भवेत्।।१६
स सर्वपुण्यवान् धीमान् सर्वयज्ञेषु दीक्षितः। स स्नातः सर्वतीर्थेषु यस्येदं कवचं गले।।१७
यस्मै कस्मै न दातव्यं लोभमोहभयैरपि। गुरुभक्ताय शिष्याय शरणाय प्रकाशयेत्।।१८
इदं कवचमज्ञात्वा जपेल्लक्ष्मीं जगत्प्सूम्। कोटिसंख्यं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सोद्धिदायकः।।१९
।।श्री ब्रह्मवैवर्ते महालक्ष्मी कवचं।।
(गणपतिखण्ड ३८।६४-८२)

Sunday, September 11, 2011

श्रीमहालक्ष्मीस्तव

नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते ।
शङ्खचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥ १॥

नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयङ्करि ।
सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥ २॥

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयङ्करि ।
सर्वदुःखहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥ ३॥

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि ।
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥ ४॥

आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्तिमहेश्वरि ।
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥ ५॥

स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे ।
महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥ ६॥

पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणि ।
परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥ ७॥

श्वेताम्बरधरे देवि नानालङ्कारभूषिते ।
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥ ८॥

महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिमान्नरः ।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ॥ ९॥

एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम् ।
द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्यसमन्वितः ॥ १०॥

त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम् ।
महालक्ष्मिर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा ॥ ११॥

॥ इति श्रीमहालक्ष्मीस्तव ॥

इन्द्र बोले- श्रीपीठपर स्थित और देवताओं से पूजित होने वाली हे महामाये। तुम्हें नमस्कार है। हाथ में शङ्ख, चक्र और गदा धारण करने वाली हे महालक्ष्मी! तुम्हें प्रणाम है॥1॥
गरुडपर आरूढ हो कोलासुर को भय देने वाली और समस्त पापों को हरने वाली हे भगवति महालक्ष्मी! तुम्हें प्रणाम है॥2॥
सब कुछ जानने वाली, सबको वर देने वाली, समस्त दुष्टों को भय देने वाली और सबके दु:खों को दूर करने वाली, हे देवि महालक्ष्मी! तुम्हें नमस्कार है॥3॥
सिद्धि, बुद्धि, भोग और मोक्ष देने वाली हे मन्त्रपूत भगवति महालक्ष्मी! तुम्हें सदा प्रणाम है॥4॥
हे देवि! हे आदि-अन्त-रहित आदिशक्ते ! हे महेश्वरि! हे योग से प्रकट हुई भगवति महालक्ष्मी! तुम्हें नमस्कार है॥5॥
हे देवि! तुम स्थूल, सूक्ष्म एवं महारौद्ररूपिणी हो, महाशक्ति हो, महोदरा हो और बडे-बडे पापों का नाश करने वाली हो। हे देवि महालक्ष्मी! तुम्हें नमस्कार है॥6॥
हे कमल के आसन पर विराजमान परब्रह्मस्वरूपिणी देवि! हे परमेश्वरि! हे जगदम्ब! हे महालक्ष्मी! तुम्हें मेरा प्रणाम है॥7॥
हे देवि तुम श्वेत वस्त्र धारण करने वाली और नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषिता हो। सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त एवं अखिल लोक को जन्म देने वाली हो। हे महालक्ष्मी! तुम्हें मेरा प्रणाम है॥8॥
जो मनुष्य भक्ति युक्त होकर इस महालक्ष्म्यष्टक स्तोत्र का सदा पाठ करता है, वह सारी सिद्धियों और राज्यवैभव को प्राप्त कर सकता है॥9॥
जो प्रतिदिन एक समय पाठ करता है, उसके बडे-बडे पापों का नाश हो जाता है। जो दो समय पाठ करता है, वह धन-धान्य से सम्पन्न होता है॥10॥
जो प्रतिदिन तीन काल पाठ करता है उसके महान् शत्रुओं का नाश हो जाता है और उसके ऊपर कल्याणकारिणी वरदायिनी महालक्ष्मी सदा ही प्रसन्न होती हैं॥11॥

Friday, September 9, 2011

श्री सन्तोषी माता जी की आरती..


श्री सन्तोषी माता जी की आरती

जय सन्तोषी माता, मैया जय सन्तोषी माता
अपने सेवक जन की सुख सम्पति दाता
मैया जय सन्तोषी माता

सुन्दर चीर सुनहरी माँ धारण कीन्हो
मैया माँ धारण कींहो
हीरा पन्ना दमके तन शृंगार कीन्हो
मैया जय सन्तोषी माता .

गेरू लाल छटा छबि बदन कमल सोहे
मैया बदन कमल सोहे
मंद हँसत करुणामयि त्रिभुवन मन मोहे
मैया जय सन्तोषी माता .

स्वर्ण सिंहासन बैठी चँवर डुले प्यारे
मैया चँवर डुले प्यारे
धूप दीप मधु मेवा, भोज धरे न्यारे
मैया जय सन्तोषी माता .

गुड़ और चना परम प्रिय ता में संतोष कियो
मैया ता में सन्तोष कियो
संतोषी कहलाई भक्तन विभव दियो
मैया जय सन्तोषी माता .

शुक्रवार प्रिय मानत आज दिवस सो ही,
मैया आज दिवस सो ही
भक्त मंडली छाई कथा सुनत मो ही
मैया जय सन्तोषी माता .

मंदिर जग मग ज्योति मंगल ध्वनि छाई
मैया मंगल ध्वनि छाई
बिनय करें हम सेवक चरनन सिर नाई
मैया जय सन्तोषी माता .

भक्ति भावमय पूजा अंगीकृत कीजै
मैया अंगीकृत कीजै
जो मन बसे हमारे इच्छित फल दीजै
मैया जय सन्तोषी माता .

दुखी दरिद्री रोगी संकट मुक्त किये
मैया संकट मुक्त किये
बहु धन धान्य भरे घर सुख सौभाग्य दिये
मैया जय सन्तोषी माता .

ध्यान धरे जो तेरा वाँछित फल पायो
मनवाँछित फल पायो
पूजा कथा श्रवण कर घर आनन्द आयो
मैया जय सन्तोषी माता .

चरण गहे की लज्जा रखियो जगदम्बे
मैया रखियो जगदम्बे
संकट तू ही निवारे दयामयी अम्बे
मैया जय सन्तोषी माता .

सन्तोषी माता की आरती जो कोई जन गावे
मैया जो कोई जन गावे
ऋद्धि सिद्धि सुख सम्पति जी भर के पावे
मैया जय सन्तोषी माता ...

Thursday, September 8, 2011

मीनाक्षी पञ्चरत्नं...


मीनाक्षी पञ्चरत्नम्
Minaksi Pancharatnam
by
Adi Shankaracharya
उद्यद्भानु सहस्रकोटिसदृशां केयूरहारोज्ज्वलां
बिम्बोष्ठीं स्मितदन्तपंक्तिरुचिरां पीताम्बरालंकृताम् ।
विष्णुब्रह्मसुरेन्द्रसेवितपदां तत्वस्वरूपां शिवां
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि संततमहं कारुण्यवारांनिधिम् ॥१॥
I continuously adore Minaksi, Who is the ocean of mercy and benevolence, Who is resplendent like a thousand morning-sun, Who is resplendent with a garland of Keyur, Who has red-lips like the Bimba flower, Who looks charming due to beautiful teeth-array and smile, Who is adorned with yellow apparel, Whose lotus-feet is served by Brahma, Vishnu and Siva, Who is the ultimate particle, and Who is auspicion personified.||1||

मुक्ताहारलसत्किरीटरुचिरां पूर्णेन्दुवक्त्र प्रभां
शिञ्जन्नूपुरकिंकिणिमणिधरां पद्मप्रभाभासुराम् ।
सर्वाभीष्टफलप्रदां गिरिसुतां वाणीरमासेवितां
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि संततमहं कारुण्यवारांनिधिम् ॥२॥
I continuously adore Minaksi, Who is the ocean of mercy and benevolence, Who is shining forth due to a pearl necklace and a beautiful diamond, Whose face is resplendent like the full-moon, Who has tinkling anklets and bells studded with jewels, Who is shiny with a lotus-like light (pink), Who bestows all the fruits of wishes, Who is the daughter of Himalaya, and Who is honored by Ramaa (Lakshmi) and Vani (Sarasvati).||2||
श्रीविद्यां शिववामभागनिलयां ह्रींकारमन्त्रोज्ज्वलां
श्रीचक्राङ्कित बिन्दुमध्यवसतिं श्रीमत्सभानायकीम् ।
श्रीमत्षण्मुखविघ्नराजजननीं श्रीमज्जगन्मोहिनीं
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि संततमहं कारुण्यवारांनिधिम् ॥३॥
I continuously adore Minaksi, Who is the ocean of mercy and benevolence, Who is Srividya, Who stays at the left-side of Siva, Who is adorned by the ‘hrii.m’ root-sound, Who resides in the middle of the dot of Sricakra, Who is the ruler of the assembly of demi-gods, Who is the mother of Six-headed Kartikeya and hurdle-destroyer Ganesh, and Who entices the whole world.||3||
श्रीमत्सुन्दरनायकीं भयहरां ज्ञानप्रदां निर्मलां
श्यामाभां कमलासनार्चितपदां नारायणस्यानुजाम् ।
वीणावेणुमृदङ्गवाद्यरसिकां नानाविधाडाम्बिकां
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि संततमहं कारुण्यवारांनिधिम् ॥४॥
I continuously adore Minaksi, Who is the ocean of mercy and benevolence, Who is beautiful ruler adorned with wealth, Who absolves fear, Who bestows knowledge, Who is stainless, Whose Kali form shines in light, Whose lotus-feet is revered by Brahma (Kamalasana), Who is the Younger Sister of Narayana, Who enjoys the sounds of lute, flute and drums, Who is present in many forms, and Who is the Mother.||4||
नानायोगिमुनीन्द्रहृन्निवसतीं नानार्थसिद्धिप्रदां
नानापुष्पविराजितांघ्रियुगलां नारायणेनार्चिताम् ।
नादब्रह्ममयीं परात्परतरां नानार्थतत्वात्मिकां
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि संततमहं कारुण्यवारांनिधिम् ॥५॥
I continuously adore Minaksi, Who is the ocean of mercy and benevolence, Who resides in the heart of many Yogi and sages, Who showers many wealth and siddhis to us, Who has many flowers present at Her dual-feet, Who is honored by Narayana, Who is present as Nadabrahman, Who is beyond everything, and Who is the fundamental particle of all the particles.||5||



॥ इति श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ मीनाक्षी पञ्चरत्नं संपूर्णम् ॥


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गणेश भगवान और उनके श्री अवतार~~~

गणेश भगवान और उनके श्री अवतार~~~


गणेश शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। गणों के स्वामी होने के कारण उनका एक नाम गणपति भी है! किसी भी शुभ कार्य से पहले भगवान गणेश की पूजा की जाती है।





दाईं सूंड : जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति या दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं। यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा या दाईं बाजू। दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली व दाईं बाजू सूर्य नाड़ी की है। जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है व जिसकी सूर्य नाड़ी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है।

इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड वाले गणपति को 'जागृत' माना जाता है। ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांड के अंतर्गत पूजा विधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन करना आवश्यक है। उससे सात्विकता बढ़ती है व दक्षिण दिशा से प्रसारित होने वाली रज लहरियों से कष्ट नहीं होता।

दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती, क्योंकि तिर्य्*क (रज) लहरियां दक्षिण दिशा से आती हैं। दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप-पुण्य का हिसाब रखा जाता है। इसलिए यह बाजू अप्रिय है। यदि दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें या सोते समय दक्षिण की ओर पैर रखें तो जैसी अनुभूति मृत्यु के पश्चात अथवा मृत्यु पूर्व जीवित अवस्था में होती है, वैसी ही स्थिति दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा करने से होने लगती है। इसलिए ऐसी मूर्ति की पूजा करने का मन नहीं करता।

बाईं सूंड : जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ बाईं ओर हो, उसे वाममुखी कहते हैं। वाम यानी बाईं ओर या उत्तर दिशा। बाई ओर चंद्र नाड़ी होती है। यह शीतलता प्रदान करती है एवं उत्तर दिशा अध्यात्म के लिए पूरक है, आनंददायक है।

इसलिए पूजा में अधिकतर वाममुखी गणपति की मूर्ति रखी जाती है। इसकी पूजा प्रायिक पद्धति से की जाती है।




आनंद का प्रतीक 'मोदक'
'मोद' यानी आनंद व 'क' का अर्थ है छोटा-सा भाग। अतः मोदक यानी आनंद का छोटा-सा भाग। मोदक का आकार नारियल समान, यानी 'ख' नामक ब्रह्मरंध्र के खोल जैसा होता है। कुंडलिनी के 'ख' तक पहुंचने पर आनंद की अनुभूति होती है।

हाथ में रखे मोदक का अर्थ है कि उस हाथ में आनंद प्रदान करने की शक्ति है। 'मोदक मान का प्रतीक है, इसलिए उसे ज्ञानमोदक भी कहते हैं।

आरंभ में लगता है कि ज्ञान थोड़ा सा ही है (मोदक का ऊपरी भाग इसका प्रतीक है।), परंतु अभ्यास आरंभ करने पर समझ आता है कि ज्ञान अथाह है। (मोदक का निचला भाग इसका प्रतीक है।) जैसे मोदक मीठा होता। वैसे ही ज्ञान से प्राप्त आनंद भी।'




गणपति के श्री अवतार
महोत्कट विनायक : इन्हें कृत युग में कश्यप व अदिति ने जन्म दिया। इस अवतार में गणपति ने देवतान्तक व नरान्तक नामक राक्षसों का संहार कर धर्म की स्थापना की व अपने अवतार की समाप्ति की।

गुणेश : त्रेता युग में गणपति ने उमा के गर्भ से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन जन्म लिया व उन्हें 'गुणेश' नाम दिया गया। इस अवतार में गणपति ने सिंधु नामक दैत्य का विनाश किया व ब्रह्मदेव की कन्याएं, सिद्धि व रिद्धि से विवाह किया।

गणेश : द्वापर युग में गणपति ने पुनः पार्वती के गर्भ से जन्म लिया व गणेश कहलाए, परंतु गणेश जन्म से ही कुरूप थे, इसलिए पार्वती ने उन्हें जंगल में छोड़ दिया, जहाँ पर पराशर मुनि ने उनका पालन-पोषण किया।

गणेश ने सिंदुरासुर का वध कर उसके द्वारा कैद किए अनेक राजाओं व वीरों को मुक्त किया। इसी अवतार में गणेश ने वरेण्य नामक अपने भक्त को गणेश गीता के रूप में शाश्वत तत्व ज्ञान का उपदेश दिया।

श्री ज्वाला कालीजी..


श्री ज्वाला कालीजी

‘मंगल’ की सेवा, सुन मेरी देवा ! हाथ जोड तेरे द्वार खडे ।
पान-सुपारी, ध्वाजा-नारियल ले ज्वाला तेरी भेंट धरे ॥
सुन जगदम्बे न कर बिलंबे संतनके भंडार भरे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली जै काली कल्याण करे ॥
‘बुद्ध’ विधाता तू जगमाता मेरा कारज सिद्ध करे ।
चरण-कमलका लिया आसरा शरण तुम्हारी आन परे ॥
जब-जब भीड पडे भक्तनपर तब-तब आय सहाय करे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली जै काली कल्याण करे ॥
‘गुरु’ के बार सकल जग मोह्यो तरुणीरूप अनूप धरे ।
माता होकर पुत्र खिलावै, कहीं भार्या भोग करे ॥
‘शुक्र’ सुखदाई सदा सहाई संत खडें जयकार करे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली जै काली कल्याण करे ॥
ब्रह्मा विष्णु महेस फल लिये भेंट देन तव द्वार खडे ।
अटल सिंहासन बैठी माता सिर सोनेका छत्र फिरे ॥
वार ‘शनिश्चर’ कुंकुम बरणी, जब लुंकडपर हुकुम करे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली जै काली कल्याण करे ॥
खड्ग खपर त्रैशूल हाथ लिये रक्तबीजकूँ भस्म करे ।
शुंभ निशुंभ क्षणहिमें मारे महिषासुरको पकड दले ॥
‘आदित’ वारी आदि भवानी जन अपनेका कष्ट हरे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली जै काली कल्याण करे ॥
कुपित होय कर दानव मारे चण्ड मुण्ड सब चूर करे ।
जब तुम देखौ दयारूप हो, पलमें संकट दूर टरे ॥
‘सोम’ स्वभाव धर्यो मेरी माता जनकी अर्ज कबूल करे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली जै काली कल्याण करे ॥
सात बारकी महिमा बरनी सब गुण कौन बखान करे ।
सिंहपीठपर चढी भवानी अटल भवनमें राज्य करे ॥
दर्शन पावें मंगल गावें सिध साधक तेरी भेट धरे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली जै काली कल्याण करे ॥
ब्रह्मा वेद पढें तेरे द्वारे शिवशंकर हरि ध्यान करे ।
इन्द्र कृष्ण तेरी करैं आरती चमर कुबेर डुलाय करे ॥
जय जननी जय मातु भवानी अचल भवनमें राज्य करे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली जै काली कल्याण करे ॥

Wednesday, September 7, 2011

श्री दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्रम...


श्री दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्रम

सिद्धेश्वरी तन्त्रे - श्री दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्रम (दुर्गापदुधारस्तोत्रम्)
Shree Durga aapaduddhaara Stotram

नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे
नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे ।
नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥१॥

namaste sharaNye shive saanukampe
namaste jagadvyaapike vishvaruupe
namaste jagadvandyapaadaaravinde
namaste jagattaariNi traahi durge [1]

Salutations to her who is the refuge,
Who is peaceful and merciful,
Salutations to her who pervades everywhere,
And who is the form of the universe,
Salutations to her whose lotus feet,
Is worshipped by the universe,
And Salutations to her who saves the universe,
With a request,”Please protect me oh, Durga”.


नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे
नमस्ते महायोगिनि ज्ञानरूपे ।
नमस्ते नमस्ते सदानन्दरूपे
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥२॥

namaste jagachchintyamaanasvaruupe
namaste mahaayogini GYaanaruupe
namaste namaste sadaanandaruupe
namaste jagattaariNi traahi durge [2]

Salutations to her whom the world meditates,
Salutations to the great Yogini, who is knowledge,
Salutations and salutations to the eternal bliss.
And Salutations to her who saves the universe,
With a request,”Please protect me oh, Durga”.


अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य
क्षुधार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥३॥

anaathasya diinasya tRiShNaaturasya
kShudhArtasya bhiitasya baddhasya jantoH .
tvamekaa gatirdevi nistaarakartrii
namaste jagattaariNi traahi durge [3]

You are the only refuge and the one who saves,
The orphan, the oppressed and the deprived,
The fear struck, the coward and the one who is attached,
And so salutations to you who saves the universe,
With a request,”Please protect me oh, Durga”.


अरण्ये रणे दारुणे शुत्रुमध्ये-
ऽनले सागरे प्रान्तरे राजगेहे

त्वमेका गतिर्देवि निस्तार हेतुर
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥४॥

araNye raNe daaruNe shutrumadhye-
.anale saagare praantare raajagehe
tvamekaa gatirdevi nistaara hetur
namaste jagattaariNi traahi durge [4]

You are the only refuge and the boat that saves,
Me from the forest, war, danger and from midst of enemies,
Me from fire, ocean, from enemy territory and from forts of kings,
And so salutations to you who saves the universe,
With a request,”Please protect me oh, Durga”.


अपारे महदुस्तरेऽत्यन्तघोरे
विपत् सागरे मज्जतां देहभाजाम्

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥५॥

apaare mahadustare.atyantaghore
vipat.h saagare majjataaM dehabhaajaam.h
tvamekaa gatirdevi nistaaranaukaa
namaste jagattaariNi traahi durge [5]

You are endless and limitless,
You rescue all from becoming part of the infinite,
You are most fearsome,
You rescue my body in sinking in the sea of misery,
And you are the only way to cross this limitless ocean,
And so salutations to you who saves the universe,
With a request,” Please protect me oh, Durga”.



नमश्चण्डिके चण्डोर्दण्डलीला
समुत्खण्डिता खण्डिताशेषशत्रो ।
त्वमेका गतिर्विघ्नसन्दोहहर्त्री
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥६॥

namashchaNDike chaNDordaNDaliilaa
samutkhaNDitaa khaNDitaasheShashatro
tvamekaa gatirvighnasandohahartrii
namaste jagattaariNi traahi durge [6]

Salutations that Chandika who playfully,
Killed the bad natured Chanda,
And killed those remaining enemies who were left out,
And those who were not left out,
You are my only way who sows the seed of rescue,
And so salutations to you who saves the universe,
With a request,” Please protect me oh, Durga”.



त्वमेवाघ भावाधृता सत्यवादि-
न्यमेयाजिता क्रोधना क्रोधनिष्ठा

इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्ना च नाडी
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे


tvamevaagha bhaavaadhR^itaa satyavaadi-
nyameyaajitaa krodhanaa krodhaniShThaa .
iDaa piN^galaa tvaM suShumnaa cha naaDii
namaste jagattaariNi traahi durge [7]

You get angry with those sinners and liars,
And those who do not control their anger,
And those who cannot control themselves,
You are Ida, Pingala and Sushumna,
And so salutations to you who saves the universe,
With a request,” Please protect me oh, Durga”.



नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे
सरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपे

विभूतिः शुची कालरात्रिः सती त्वम्
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे

namo devi durge shive bhiimanaade
sarasvatyarundhatyamoghasvaruupe .
vibhuutiH shuchii kaalaraatriH satii tvam.h
namaste jagattaariNi traahi durge [8]

Salutations to that Goddess Durga,
Who is the consort of Shiva,
Who has the fearsome sound,
Who is Saraswathi and Arundathi.,
Who has a measureless form,
Who is the innate power,
Who is Sachi devi,
Who is the deep dark night,
And who is sathi devi,
And so salutations to you who saves the universe,
With a request,” Please protect me oh, Durga”.



शरणमसि सुराणां सिद्ध विद्याधराणां
मुनिमनुजपशूनां दस्युभिस्त्रासितानां

नृपतिगृहगतानां व्याधिभिः पीडितानाम्
त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद


sharaNamasi suraaNaaM siddha vidyaadharaaNaaM
munimanujapashuunaaM dasyubhistraasitaanaaM .
nR^ipatigR^ihagataanaaM vyaadhibhiH piiDitaanaam.h
tvamasi sharaNamekaa devi durge prasiida [9]

You are the only refuge to devas, Vidhyadharas and Sidhas,
You are the only refuge to sages, men and animals,
You are the only refuge to those punished by demons,
You are the only refuge to those sent to prison by kings,
And you are the only refuge to those attacked by diseases,
And so be pleased with me, Oh Goddess.



इदम् स्तोत्रम् मया प्रोक्तमापदुद्धारहेतुकम्
त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यम् वा पठनाद्घोर सङ्कटात
१०

idam.h stotram.h mayaa proktamaapaduddhaarahetukam.h .
trisandhyamekasandhyam.h vaa paThanaadghora sa~NkaTaat [10]

Those devotees who forever,
Read fully or even one stanza of this great prayer,
Would leave all their bad fate,
And attain salvation,



मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले
सर्वम वा श्लोकमेकम वा यः पठेत भक्तिमान सदा
११

muchyate naatra sandeho bhuvi svarge rasaatale .
sarvam vaa shlokamekam vaa yaH paThet bhaktimaan sadaa [11]


स सर्वं दुष्कृतम् त्यक्त्वा प्राप्नोति परमं पदम्

पठनादस्य देवेशि किं न सिद्ध्यति भूतले
१२

sa sarvaM duShkR^itam.h tyaktvaa praapnoti paramaM padam.h .
paThanaadasya deveshi kiM na siddhyati bhuutale [12]


स्तवराजमिदम देवि सन्क्षेपात कथितम मया


stavaraajamidam devi sankshepaat kathitam mayaa


॥इति सिद्धेश्वरी तन्त्रे हरगौरीसंवादे श्री दुर्गा आपदुद्धारस्तोत्रं समाप्तम् ॥

iti siddheshvarI tantre haragauriisa.nvaade shrI durgaa aapaduddhaarastotraM
samaaptam.h