Tuesday, May 28, 2013

राम, हनुमान और केले का पत्ता

राम, हनुमान और केले का पत्ता
आजकल "ऐक्यवाद" और "द्वैतवाद" पर बड़ा वाद विवाद हो रहा है | दो तरह के लोग हैं - एक वे जो मानते हैं कि ईश्वर एक अलग एंटिटी " परमात्मा " हैं और हम "जीवात्माएं" अलग जो उन्हें पूजें ; और दूसरे वे जो मानते हैं कि "अहम् ब्रह्मास्मि" अर्थात - जब मैं अपने ज्ञान पर पड़े परदे से मुक्त हो जाऊंगा - तो मैं ही "ब्रह्म" हो जाऊंगा | दोनों ही दर्शन अपनी जगह सही हो सकते हैं |

जब रावण की सेना को हरा कर और सीता जी को लेकर श्री राम चन्द्र जी वापस अयोध्या पहुंचे - तो वहां उन सब के लौटने की ख़ुशी में एक बड़े भोज का आयोजन हुआ | वानर सेना के सभी लोग भी आमंत्रित थे - और बेचारे सब ठहरे वानर ही न ? तो सुग्रीव जी ने उन सब को खूब समझाया - देखो - यहाँ हम मेहमान हैं और प्रभु के गाँव के लोग हमारे मेजबान | तुम सब यहाँ खूब अच्छे से पेश आना - हम वानर जाती वालों को लोग शिष्टाचार विहीन न समझें, इस बात का ध्यान रखना |

वानर भी अपनी जाति का मान रखने के लिए तत्पर थे, किन्तु एक वानर आगे आया और हाथ जोड़ कर सुग्रीव से कहने लगा " प्रभो - हम प्रयास तो करेंगे कि अपना आचार अच्छा रखें, किन्तु हम ठहरे बन्दर | कहीं भूल चूक भी हो सकती है - तो अयोध्या वासियों के आगे हमारी अच्छी छवि बनी रहे - इसके लिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप किसी को हमारा अगुवा बना दें, जो न सिर्फ हमें मार्गदर्शन देता रहे, बल्कि हमारे बैठने आदि का प्रबंध भी सुचारू रूप से चलाये, कि कही किसी चीज़ के लिए वानर आपस में लड़ने भिड़ने लगें तो हमारी छवि धूमिल होगी |"

अब वानरों में सबसे ज्ञानी, व श्री राम के सर्वप्रिय तो हनुमान ही माने जाते थे - तो यह जिम्मेदारी भी उन पर आई |

भोज के दिन श्री हनुमान सबके बैठने वगैरह का इंतज़ाम करते रहे , और सब को ठीक से बैठने के बाद श्री राम के समीप पहुंचे, तो श्री राम के उन्हें बड़े प्रेम से कहा कि तुम भी मेरे साथ ही बैठ कर भोजन करो | अब हनुमान पशोपेश में आ गए | उनकी योजना में प्रभु के बराबर बैठना तो था ही नहीं - वे तो अपने प्रभु के जीमने के बाद ही प्रसाद के रूप में भोजन ग्रहण करने वाले थे | न तो उनके लिए बैठने की जगह ही थी ना ही भोजन परोस कर रखने के लिए केले का पत्ता.

तो हनुमान बेचारे पशोपेश में थे - ना प्रभु की आज्ञा टाली जाए, ना उनके साथ खाया जाए | प्रभु तो भक्त के मन की बात जानते हैं ना ? तो वे जान गए कि मेरे हनुमान के लिए केले का पत्ता नहीं है , ना स्थान है | उन्होंने अपनी कृपा से अपने से मिला हुआ हनुमान जी के बैठने जितना स्थान बढ़ा दिया | लेकिन प्रभु ने एक और केले का पत्ता नहीं बनाया |

उन्होंने कहा " हे मेरे प्रिय अति प्रिय छोटे भाई या पुत्र की तरह प्रिय हनुमान | यूं मेरे साथ मेरी ही थाली (केले का पत्ता) में भोजन करो | क्योंकि भक्त और भगवान एक हैं - तो कोई हनुमान को भी पूजे तो मुझे ही प्राप्त करेगा (यह ऐक्वाद का शब्द है) |"

इस पर श्री हनुमान जी बोले - "हे प्रभु - आप मुझे कितने ही अपने बराबर बताएं, मैं कभी आप नहीं होऊँगा, ना तो कभी हो सकता हूँ - ना ही होने की अभिलाषा है | (यह है द्वैतवाद) - मैं सदा सर्वदा से आपका सेवक हूँ, और रहूँगा - आपके चरणों में ही मेरा स्थान था - और रहेगा | तो मैं आपकी थाल में से खा ही नहीं सकता | "

तब श्री राम ने अपने सीधे हाथ की मध्यमा अंगुली से केले के पत्ते के मध्य में एक रेखा खींच दी - जिससे वह पत्ता एक भी रहा और दो भी हो गया | एक भाग में प्रभु ने भोजन किया -और दूसरे अर्ध में हनुमान को कराया | तो जीवात्मा और परमात्मा के ऐक्य और द्वैत दोनों के चिन्ह के रूप में केले के पत्ते आज भी एक होते हुए भी दो हैं - और दो होते हुए भी एक है |
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Tuesday, May 21, 2013

महाकाली चालीसा

महाकाली चालीसा
दोहा
 मात श्री महाकालिका ध्याऊँ शीश नवाय ।
जान मोहि निज दास सब दीजै काज बनाय ॥
नमो महा कालिका भवानी। महिमा अमित न जाय बखानी॥
तुम्हारो यश तिहुँ लोकन छायो। सुर नर मुनिन सबन गुण गायो॥
परी गाढ़ देवन पर जब जब। कियो सहाय मात तुम तब तब॥
महाकालिका घोर स्वरूपा। सोहत श्यामल बदन अनूपा॥
जिभ्या लाल दन्त विकराला। तीन नेत्र गल मुण्डन माला॥
चार भुज शिव शोभित आसन। खड्ग खप्पर कीन्हें सब धारण॥
रहें योगिनी चौसठ संगा। दैत्यन के मद कीन्हा भंगा॥
चण्ड मुण्ड को पटक पछारा। पल में रक्तबीज को मारा॥
दियो सहजन दैत्यन को मारी। मच्यो मध्य रण हाहाकारी॥
कीन्हो है फिर क्रोध अपारा। बढ़ी अगारी करत संहारा॥
देख दशा सब सुर घबड़ाये। पास शम्भू के हैं फिर धाये॥
विनय करी शंकर की जा के। हाल युद्ध का दियो बता के॥
तब शिव दियो देह विस्तारी। गयो लेट आगे त्रिपुरारी॥
ज्यों ही काली बढ़ी अंगारी। खड़ा पैर उर दियो निहारी॥
देखा महादेव को जबही। जीभ काढ़ि लज्जित भई तबही॥
भई शान्ति चहुँ आनन्द छायो। नभ से सुरन सुमन बरसायो॥
जय जय जय ध्वनि भई आकाशा। सुर नर मुनि सब हुए हुलाशा॥
दुष्टन के तुम मारन कारन। कीन्हा चार रूप निज धारण॥
चण्डी दुर्गा काली माई। और महा काली कहलाई॥
पूजत तुमहि सकल संसारा। करत सदा डर ध्यान तुम्हारा॥
मैं शरणागत मात तिहारी। करौं आय अब मोहि सुखारी॥
सुमिरौ महा कालिका माई। होउ सहाय मात तुम आई॥
धरूँ ध्यान निश दिन तब माता। सकल दुःख मातु करहु निपाता॥
आओ मात न देर लगाओ। मम शत्रुघ्न को पकड़ नशाओ॥
सुनहु मात यह विनय हमारी। पूरण हो अभिलाषा सारी॥
मात करहु तुम रक्षा आके। मम शत्रुघ्न को देव मिटा को॥
निश वासर मैं तुम्हें मनाऊं। सदा तुम्हारे ही गुण गाउं॥
दया दृष्टि अब मोपर कीजै। रहूँ सुखी ये ही वर दीजै॥
नमो नमो निज काज सैवारनि। नमो नमो हे खलन विदारनि॥
नमो नमो जन बाधा हरनी। नमो नमो दुष्टन मद छरनी॥
नमो नमो जय काली महारानी। त्रिभुवन में नहिं तुम्हरी सानी॥
भक्तन पे हो मात दयाला। काटहु आय सकल भव जाला॥
मैं हूँ शरण तुम्हारी अम्बा। आवहू बेगि न करहु विलम्बा॥
मुझ पर होके मात दयाला। सब विधि कीजै मोहि निहाला॥
करे नित्य जो तुम्हरो पूजन। ताके काज होय सब पूरन॥
निर्धन हो जो बहु धन पावै। दुश्मन हो सो मित्र हो जावै॥
जिन घर हो भूत बैताला। भागि जाय घर से तत्काला॥
रहे नही फिर दुःख लवलेशा। मिट जाय जो होय कलेशा॥
जो कुछ इच्छा होवें मन में। संशय नहिं पूरन हो छण में॥
औरहु फल संसारिक जेते। तेरी कृपा मिलैं सब तेते॥
दोहा
 महाकालिका की पढ़ै नित चालीसा जोय।
मनवांछित फल पावहि गोविन्द जानौ सोय॥

हनुमान आराधना

जय जय श्री हनुमान, शरण हम तेरी आये |
हे अंजनि के लाल, कुसुम श्रद्धा के लाये ||
जग में सारे दीन, एक तुम ही हो दाता |
तेरा सच्चा भक्त, सदा सुख को ही पाता || (१)
हे रघुवर के दूत, जगत है तेरी माया |
कण-कण में हे नाथ, रूप है तेरा पाया ||
शंकर के अवतार, देव तुम हो बजरंगी |
दुष्टों के हो काल, दीन-हीनों के संगी || (२)
किसका ऐसा तेज, फूँक दे क्षण में लंका |
कर दानव संहार, बजाये जग में डंका ||
हे हनुमत, श्रीराम, सदा हैं उर में तेरे |
तेरा मुख बस राम, नाम की माला फेरे || (३)
हे मेरे बजरंग, जपा जब नाम तिहारा |
कलि का भारी ताप, लगा है शीतल धारा ||
मैं बालक मतिमूढ़, न जानूँ पूजा तेरी |
इतनी विनती नाथ, क्षमा हों भूलें मेरी || (४)

Sunday, May 19, 2013

शिवाष्टकं

शिवाष्टकं

॥ शिवाष्टकं ॥
॥ अथ श्री शिवाष्टकं ॥
प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथनाथं सदानन्दभाजाम् ।
भवद्भव्यभूतेश्वरं भूतनाथं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ १॥
गले रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकालकालं गणेशाधिपालम् ।
जटाजूटभङ्गोत्तरङ्गैर्विशालं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ २॥
मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महामण्डल भस्मभूषधरंतम् ।
अनादिह्यपारं महामोहहारं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ३॥
तटाधो निवासं महाट्टाट्टहासं महापापनाशं सदासुप्रकाशम् ।
गिरीशं गणेशं महेशं सुरेशं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ४॥
गिरिन्द्रात्मजासंग्रहीतार्धदेहं गिरौ संस्थितं सर्वदा सन्नगेहम् ।
परब्रह्मब्रह्मादिभिर्वन्ध्यमानं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ५॥
कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भोजनम्राय कामं ददानम् ।
बलीवर्दयानं सुराणां प्रधानं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ६॥
शरच्चन्द्रगात्रं गुणानन्द पात्रं त्रिनेत्रं पवित्रं धनेशस्य मित्रम् ।
अपर्णाकलत्रं चरित्रं विचित्रं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ७॥
हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वेदसारं सदा निर्विकारम् ।
श्मशाने वदन्तं मनोजं दहन्तं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ८॥
स्तवं यः प्रभाते नरः शूलपाणे पठेत् सर्वदा भर्गभावानुरक्तः ।
स पुत्रं धनं धान्यमित्रं कलत्रं विचित्रं समासाद्य मोक्षं प्रयाति ॥ ९॥
॥ इति शिवाष्टकम् ॥