Monday, December 30, 2013
Friday, December 20, 2013
तेरहवाँ ज्योतिर्लिंग – मुक्ति गुप्तेश्वर मंदिर
तेरहवाँ ज्योतिर्लिंग – मुक्ति गुप्तेश्वर मंदिर
12 ज्योतिर्लिंगों से तो आप सभी परिचित हैं पर मुक्ति गुप्तेश्वर मंदिर
,आस्ट्रेलिया में पाया जाने शिव लिंग तेरहवाँ ज्योतिर्लिंग है , यह बात कम ही जानी
जाती है .
यह ज्योतिर्लिंग नेपाल से लाकर आस्ट्रेलिया के मुक्ति गुप्तेश्वर
मंदिर में स्थापित किया गया है . इस लिंग का वर्णन महाभारत मे दिया गया है . युद्ध
में पराजित होने के बाद जब पांडव वन वास में थे ,तब वे नेपाल के एक आश्रम में रह
रहे थे . एक दिन अर्जुन जब शिकार पर गए तो उनका सामना एक जंगली शूकर से हुआ
.अर्जुन ने तीर चलाया और वो उस शूकर के
लगा . तभी एक अन्य शिकारी भी वहाँ आ गया और उस शूकर को अपना शिकार बताने लगा .इस पर अर्जुन व उस
शिकारी में विवाद हो गया और दोनों लड़ने लगे . यह लड़ाई 21 दिनों तक चली. अर्जुन अपने को कमजोर होता
देख कर एक मिट्टी का शिव लिंग बना कर उसका पूजन करने लगे . उसी समय वो दूसरा
शिकारी अपने असली रूप मे भगवान शंकर बन कर अर्जुन के सामने आ गए और कहा कि वो तो
अर्जुन की शक्ति की परीक्षा ले रहे थे . अर्जुन से उन्होंने वर माँगने को कहा तो
अर्जुन ने उनसे लिंग रूप में उस आश्रम में रहने का वर माँगा .
बाद में 1999 में उस लिंग को नेपाल के महाराजाधिराज बीर
बिक्रम शाह देव ने आस्ट्रेलिया भेज दिया .इस लिंग को आस्ट्रेलिया में 14 फरवरी 1999 शिवरात्री को मुक्ति गुप्तेश्वर मंदिर में स्थापित किया
गया . धर्म शास्त्रों में आस्ट्रेलिया को शिव जी के गले में नाग का मुख माना जाता
है .सोमनाथ मंदिर जिसे पहला ज्योतिर्लिंग माना गया है , वहाँ एक तीर का निशान है जो दक्षिण की ओर इंगित करता
है .कहते है कि सोमनाथ मंदिर का यह तीर सीधे इस आस्ट्रेलिया के मंदिर की तरफ इंगित
करता है जहाँ अंतिम तेरहवाँ ज्योतिर्लिंग स्थापित है .
मुक्ति गुप्तेश्वर मंदिर में शिवलिंग एक गुफा के अंदर स्थापित किया
गया है . साथ में 12 ज्योतिर्लिंगों के रूप भी स्थापित हैं . इसके साथ 108 अन्य मानव निर्मित
शिवलिंग व 1008 अन्य शिव प्रतिमाएं भी इस मंदिर में स्थापित हैं . इस तरह से मुख्य
ज्योतिर्लिंग के साथ 1128 अन्य छोटे मंदिर भी
यहाँ पर हैं .मंदिर के मुख्य गर्भ गृह में 10 मीटर गहरे एक पात्र में 2 करोड़ ‘ओम नमः शिवाय’
लिखे हुए पत्र रखे गए हैं . साथ में विश्व की 81 प्रमुख नदियों का जल, 5 समुद्रों का जल व अष्ट
धातुओं को भी रखा गया है .
Tuesday, December 10, 2013
मनकामेश्वर मंदिर
मनकामेश्वर मंदिर:
भोले बाबा कभी भी अपने भक्तों को निराश नहीं करते. लखनऊ में गोमती नदी के
तट पर बने मनकामेश्वर मंदिर में तो महादेव अपने भक्तों की सभी इच्छाएं
पूरी कर देते हैं. डालीगंज में गोमती नदी के बाएं तट पर शिव-पार्वती का ये
मंदिर बहुत सिद्ध माना जाता है. कहा जाता है कि माता सीता को वनवास छोड़ने
के बाद लखनपुर के राजा लक्ष्मण ने यहीं रुककर भगवान शंकर की आराधना की थी,
जिससे उनके मन को बहुत शांति मिली थी. उसके बाद कालांतर में मनकामेश्वर
मंदिर की स्थापना कर दी गई.
गोमती नदी के किनारे बसा यह मंदिर
रामायणकाल का है और इनके नाम मनकामेश्वर से ही इस बात की एहसास हो जाता है
कि यहां मन मांगी मुराद कभी अधूरी नहीं रहती. जैसे ही भक्त इस मंदिर में
प्रवेश करते हैं उन्हें शांति की अनुभूति होती है. लोग यहां आकर मनचाहे
विवाह और संतानप्राप्ति की मनोकामना करते हैं और उसे पूरा होने पर बाबा का
बेलपत्र, गंगाजल और दूध आदि से श्रृंगार करते हैं .
सावन,
महाशिवरात्रि और कजरी तीज के मौके पर मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ देखने
को मिलती है. यहां पर आरती का भी विशेष महत्व है. कहते हैं कि यहां की आरती
में शामिल होकर मन में जो भी कामना की जाती है वो अवश्य पूरी होती है.
फूल, बेलपत्र और गंगा जल से भोले भंडारी का अभिषेक होता है.
मंदिर
में सुबह और शाम को भव्य आरती होती हैं, जिसमें काफी संख्या में भक्त
हिस्सा लेते हैं. मनकामेश्वर मंदिर में काले रंग का शिवलिंग है और उस पर
चांदी का छत्र विराजमान होने के साथ मंदिर के पूरे फर्श में चांदी के
सिक्के लगे हैं, जिससे मंदिर मनोहारी लगता है.
भोले बाबा कभी भी अपने भक्तों को निराश नहीं करते. लखनऊ में गोमती नदी के तट पर बने मनकामेश्वर मंदिर में तो महादेव अपने भक्तों की सभी इच्छाएं पूरी कर देते हैं. डालीगंज में गोमती नदी के बाएं तट पर शिव-पार्वती का ये मंदिर बहुत सिद्ध माना जाता है. कहा जाता है कि माता सीता को वनवास छोड़ने के बाद लखनपुर के राजा लक्ष्मण ने यहीं रुककर भगवान शंकर की आराधना की थी, जिससे उनके मन को बहुत शांति मिली थी. उसके बाद कालांतर में मनकामेश्वर मंदिर की स्थापना कर दी गई.
गोमती नदी के किनारे बसा यह मंदिर रामायणकाल का है और इनके नाम मनकामेश्वर से ही इस बात की एहसास हो जाता है कि यहां मन मांगी मुराद कभी अधूरी नहीं रहती. जैसे ही भक्त इस मंदिर में प्रवेश करते हैं उन्हें शांति की अनुभूति होती है. लोग यहां आकर मनचाहे विवाह और संतानप्राप्ति की मनोकामना करते हैं और उसे पूरा होने पर बाबा का बेलपत्र, गंगाजल और दूध आदि से श्रृंगार करते हैं .
सावन, महाशिवरात्रि और कजरी तीज के मौके पर मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ देखने को मिलती है. यहां पर आरती का भी विशेष महत्व है. कहते हैं कि यहां की आरती में शामिल होकर मन में जो भी कामना की जाती है वो अवश्य पूरी होती है. फूल, बेलपत्र और गंगा जल से भोले भंडारी का अभिषेक होता है.
मंदिर में सुबह और शाम को भव्य आरती होती हैं, जिसमें काफी संख्या में भक्त हिस्सा लेते हैं. मनकामेश्वर मंदिर में काले रंग का शिवलिंग है और उस पर चांदी का छत्र विराजमान होने के साथ मंदिर के पूरे फर्श में चांदी के सिक्के लगे हैं, जिससे मंदिर मनोहारी लगता है.
Friday, December 6, 2013
ठाकुर बांके बिहारी जी
मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पक्ष पंचमी को बांके बिहारी जी का आविर्भाव दिवस भी मनाया जाता है | श्रीधाम वृन्दावन, यह एक ऐसी पावन भूमि है, जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नही चाहेगा। यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत १९२१ के लगभग किया गया।स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजापुर नामक गाँव में हूआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे।जब ये 25 वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्तावेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गये। निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था। तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को धरा की गोद से बाहर निकाला गया। यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई | यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को निकाली गयी था। अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मानते है।
श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं। केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं । जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं । और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है । इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है। मंदिर की एक और विशेषता है कि यहाँ घंटी या शंख नहीं बजता है |
श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं। केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं । जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं । और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है । इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है। मंदिर की एक और विशेषता है कि यहाँ घंटी या शंख नहीं बजता है |
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