दधीचि का अस्थि दान
एक बार देवराज इंद्र के मन में अभिमान पैदा हो गया कि वही भगवान हैं
.उन्होंने देवगुरु बृहस्पति का भी अपमान कर दिया। उनके आचरण से क्षुब्ध
होकर देवगुरु इन्द्रपुरी छोड़कर अपने आश्रम में चले गए। कुछ समय बाद में जब
इन्द्र को अपनी भूल का आभास हुआ तो वह बहुत पछताए, क्योंकि अकेले देवगुरु
बृहस्पति ही ऐसे व्यक्ति थे, जिनके कारण देवता दैत्यों के कोप से बचे रहते
थे। पश्चाताप करता इन्द्र देवगुरु को मनाने के लिए उनके आश्रम में पहुंचा।
उन्होंने हाथ जोड़कर देवगुरु को प्रणाम किया और कहा,'आचार्य। मुझसे बहुत
बड़ा अपराध हो गया। उस समय क्रोध में भरकर मैंने आपके लिए जो अनुचित शब्द
कह दिए थे, मै उनके लिए आपसे क्षमा मांगता हूँ । आप देवों के कल्याण के लिए
पुनः इन्द्रपुरी लौट चलिए। हम सारे देव मिलकर आपकी भली-भांति सेवा…।'
इन्द्र का शेष वाक्य अधूरा ही रह गया क्योंकि देवगुरु अपने तपोबल से
अदृश्य हो चुके थे। इन्द्र ने उनकी बहुत खोज की किंतु जब देवगुरु का कुछ
पता न चला तो वह थक-हार कर इन्द्रपुरी लौट गये ।
दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने जब यह समाचार सुना तो उन्होंने दैत्यों से
कहा- 'दैत्यों! यही अवसर है जब तुम देवलोक पर अधिकार कर सकते हो। आचार्य
बृहस्पति के चले जाने के बाद देवों की शक्ति आधी रह गई है। तुम लोग चाहो तो
अब आसानी से देवलोक पर अधिकार कर सकते हो।' उचित अवसर देखकर दैत्यों ने
अमरावती को चारों ओर से घेर लिया और चारों ओर मार-काट मचा दी। इन्द्र किसी
तरह जान बचाकर वहां से भाग निकले और पितामह ब्रह्मा की शरण में पहुंचे ।
वह करबध्य होकर ब्रह्मा जी से बोले ,'पितामह, देवों की रक्षा कीजिए।
दैत्यों ने अचानक हमला करके अमरावती में मार-काट मचा दी है। वे चुन-चुनकर
देव योद्धाओं का वध कर रहे हैं। मैं किसी तरह जान बचाकर यहाँ तक पहुंचा
हुँ।'
पितामह ब्रह्मा आचार्य बृहस्पति के देवलोक छोड़ जाने की बात जानते थे।
बोले, 'यह सब तुम्हारे अहंकार के कारण हुआ है, देवराज। अब भी यदि तुम
आचार्य बृहस्पति को मना सको और उन्हें देवलोक में ले आओ तो वे दैत्यो पर
विजय प्राप्त करने का कोई उपाय तुम्हें बता देंगे।' 'मै अपनी भूल पर बहुत
पश्चाताप करता उन्हें खोजने के लिए गया था, पितामह। किंतु मेरे देखते ही वह
अपने तपोबल से अदृश्य हो गए। इन्द्र ने कहा।
आचार्य तुमसे कुपित हैं, इन्द्र। ब्रह्मा जी ने कहा, 'अब जब तक तुम
उनकी आराधना करके उन्हें स्वयं सम्मानपूर्वक देवलोक नहीं ले जाओगे, वे
अमरावती नहीं आएंगे।'
'फिर क्या किया जाए, पितामह? आचार्य का कुछ पता-ठिकाना भी तो हमारे
पास नहीं है। उन्हें खोजने में समय लगेगा। तब तक तो दैत्य संपूर्ण अमरावती
को जलाकर राख कर देंगे।'
इन्द्र की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने नेत्र बंद कर लिए। वे चिंतन
में डूब गए। कुछ देर बाद उन्होंने अपने नेत्र खोले और इन्द्र से कहा।
'इन्द्र! इस समय भूंमडल में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति है जो तुम्हें इस आपदा से
मक्ति दिला सकता है और वह है महर्षि त्वष्टा का महाज्ञानी पुत्र विश्वरूप।
अगर तुम उन्हे अपना पुरोहित नियुक्त कर लो तो वह तुम्हें इस संकट से
मुक्त करा देंगे ।' ब्रह्माजी ने उपाय बताया।
पितामह का परामर्श मानकर देवराज इन्द्र महर्षि विश्वरूप के पास पहुंचे।
विश्वरूप के तीन मुख थे। पहले मुख से वे सोमवल्ली लता का रस निकालकर यज्ञ
करते समय पीते थे। दूसरे मुख से मदिरा पान करते तथा तीसरे मुख से अन्न आदि
भोजन का आहार करते थे। इन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया तो महर्षि ने पूछा,
'आज यहाँ कैसे आगमन हुआ, देवराज? आप किसी विपत्ति में तो नहीं फंस गए?'
'आपने ठीक अनुमान लगाया है मुनिश्रेष्ठ।' इन्द्र ने कहा, 'देवों पर इस
समय बहुत बड़ी विपत्ति आई हुई है, दैत्यों ने अमरावती को घेर रखा है। चारों
ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है।' विश्वरूप मुस्कराए। बोले, 'यह तो देवों और
दैत्यों का पुराना झगड़ा है, देवराज। दोनों ही महर्षि कश्यप की संतानें
हैं। इसलिए कोई एक-दूसरे से छोटा नहीं बनना चाहता। तुम्हारे इस झगड़े में
मैं क्या कर सकता हूं?'
'देवों को इस समय आपकी सहायता की आवश्यकता है मुनिश्रेष्ठ। सिर्फ़ आप ही उनका भय दूर कर सकते हैं।'
इस प्रकार इन्द्र ने जब विश्वरूप की बहुत अनुनय-विनय की तो विश्वरूप
पिघल गए। उन्होंने देवों के यज्ञ का पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया। वे
बोले, 'देवों की दुर्दशा देखकर ही मैंने आपके यज्ञ का पुरोहित बनना
स्वीकार किया है, देवराज।' तत्पश्चात उन्होंने देवराज को नारायण कवच प्रदान
करते हुए कहा, 'यह कवच ले जाओ देवराज। दैत्यों से युद्ध करते समय यह न
सिर्फ़ तुम्हारी रक्षा करेगा बल्कि तुम्हें विजयश्री भी प्रदान करेगा।'
विश्वरुप से नारायण कवच प्राप्त करके देवराज पुनः अमरावती पहुचें। उनके
वहां पहुंचने से देवों में नए उत्साह का संचरण हो गया और वे पूरी शक्ति के
साथ दैत्यों पर टूट पड़े। भयंकर युद्ध छिड़ गया। इस बार इन्द्र के पास
नारायण कवच होने के कारण दैत्य मैदान में नहीं ठहर सके। वे पराजित होकर भाग
खड़े हुए। विजयश्री देवताओं के हाथ लगी। युद्ध समाप्त होने पर देवराज
विश्वरूप का आभार व्यक्त करने के लिए उनके पास पहुंचे। बोले, 'आपकी कृपा
से हमने दैत्यों पर विजय प्राप्त कर ली है, मुनिवर। अब हम एक ऐसा यज्ञ करना
चाहते है जिसके फलस्वरूप देवलोक हमेशा के लिए दैत्यों के भय से मुक्त रह
सके। कृपा करके अब आप हमारे साथ चलिए।'
देवराज के अनुरोध पर विश्वरूप अमरावती पहुंचे। उन्होंने यज्ञ में
आहुतियां डालनी आरंभ कर दीं। उसी समय एक दैत्य ब्राह्मण का वेश धारण कर
महर्षि विश्वरूप के पास आ बैठा। उसने धीरे से महर्षि विश्वरूप से कहा,
'महर्षि! देवताओं का पक्ष लेकर आप जो यज्ञ दैत्यों के विनाश के लिए कर रहे,
यह उचित नहीं हैं।'
'क्यों उचित नहीं है?' विश्वरूप ने पूछा।
'इसलिए उचित नहीं कि देव और दैत्य एक ही पिता की संताने हैं। आप भूल रहे
है कि स्वंय आपकी माता एक दैत्य परिवार से हैं। क्या आप चाहेंगे कि आपका
मातृकुल हमेशा के लिए नष्ट हो जाए?' बात विश्वरूप की समझ में आ गई।
उन्होंने आहुतियां देते समय देवों के साथ-साथ दैत्यों का नाम भी लेना आरंभ
कर दिया। यज्ञ समाप्त हुआ, लेकिन उसका कोई लाभ देवों को न मिला। इस पर
देवराज इन्द्र ने विश्वरूप से कहा, 'मुनिवर! इतने बड़े यज्ञ का कोई अच्छा
सुफल नहीं मिला। देवताओं की शक्ति में तो किंचित भी बदलाव नहीं आया। वे तो
जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हैं।' तभी इन्द्र का एक गुप्तचर उनके पास
पहुंचा उसने इन्द्र को बताया, 'यज्ञ का सुफल कैसे मिलता देवराज। मुनिवर
देवों के साथ-साथ दैत्यों को भी तो आहुतियां देते रहे हैं। इस यज्ञ का
जितना लाभ देवों को मिला है उतना ही दैत्यों को भी मिला हैं।' गुप्तचर के
मुख से यह समाचार सुनकर इन्द्र गुस्से से भर उठे। उन्होंने तलवार निकाल ली
और ॠषि विश्वरूप पर झपटे, 'ढोंगी ॠषि। तूने देवों के साथ विश्वासघात किया
है। यज्ञ देवों ने कराया और तू आहुतियां अपने मातृकुल के लोगों को देता
रहा। अब मैं तुझे जीवित नहीं छोड़ूंगा।' कहते हुए उसने तलवार के एक ही वार
से विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए।
इन्द्र द्वारा एक ब्राह्मण की यज्ञस्थल पर ही हत्या किए जाने की
सर्वज्ञ निंदा होने लगी। देवों के साथ-साथ ॠषि-मुनि भी उसे धिक्कारने लगे,
'इन्द्र तू हत्यारा है।–तूने ब्रह्महत्या की है, तेरे जैसे व्यक्ति को
इन्द्र पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं। तेरे लिए यही उचित है कि किसी
कुएं या बावली में कूदकर अपने प्राणों का विसर्जन कर डाल।' आदि-आदि। नित्य
प्रति की धिक्कार और प्रताड़ना सुनकर इन्द्र दुखी रहने लगे । उधर, जब यह
समाचार महर्षि त्वष्टा तक पहुंचा तो वे बेहद क्रोधित हुए। गुस्से से
दहाड़ते हुए बोले, 'इन्द्र की ऐसी हिम्मत कैसे हुई कि वह मेरे पुत्र का वध
करके इन्द्रासन पर बैठा रहे। मैं उसे मिट्टी में मिला दूंगा। मेरे पुत्र
की हत्या करने का परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा।'
त्वष्टा उसी दिन यज्ञ करने के लिए बैठ गए। यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञ वेदी
से एक पर्वत के समान आकार वाला दैत्य प्रकट हुआ। उसके एक हाथ में गदा और
दूसरे में शंख था। उसने झुककर ॠषि को प्रणाम किया। ॠषि ने उसको नाम
दिया—वृत्तासुर।
'आज्ञा दीजिए ॠषिवर?' वृत्तासुर ने सिर झुकाकर कहा।
'वृत्तासुर। तुम तत्काल अमरावती जाओ और कपटी इन्द्र के साथ-साथ समस्त
देवताओं का विनाश कर दो।' महर्षि त्वष्टा ने क्रोध से कांपते हुए आदेश
दिया। त्वष्टा का आदेश पाते ही वृत्तासुर वायु वेग से देवलोक की ओर उड़
चला।
वृत्तासुर ने अमरावती में पहुंचकर देवों का विध्वंस करना शुरू कर दिया।
जो भी सामने आता, वह निःसंकोच होकर उसका वध कर डालता। उसने अमरावती में ऐसा
कोहराम मचाया कि देवता त्राहि-त्राहि कर उठे। इन्द्र अपने ऐरावत पर चढ़कर
उसके सामने पहुंचा और उस पर व्रज प्रहार किया, किंतु वृत्तासुर ने एक ही
झटके में उसके हाथ से व्रज छीनकर दूर फेंक दिया। इस पर इन्द्र ने उस पर
आग्नेय अस्त्रों से आक्रमण किया, किंतु उनका किंचित भी असर वृत्तासुर पर न
हुआ। किसी खिलौने की तरह उसने इन्द्र के हाथ से उसका धनुष छीन लिया और उसे
तोड़कर एक ओर फेंक दिया। फिर वह अपना भयंकर मुख खोलकर इन्द्र को खाने के
लिए उसकी ओर झपटा। यह देखकर इन्द्र भयभीत हो गया और ऐरावत से कूदकर अपनी
जान बचाने के लिए भाग निकला। इंद्र के पीछे पीछे वृत्तासुर भी अपने भयंकर
अट्टहासों से अमरावती को गुंजाता रहा। देवराज भागकर सीधे पहुंचे विष्णुलोक
में भगवान विष्णु के पास।
'रक्षा कीजिए देव। देवताओं को बचाइए।' उसने आर्त्त स्वर में भगवान से
विनती की, 'देवों को वृत्तासुर के कोप से बचाइए अन्यथा वह समस्त देवजाति का
विनाश कर डालेगा।' यह सुनकर भगवान विष्णु ने भी उसे धिक्कारा। कहा,
'इन्द्र। एक ब्राह्मण, और वह भी ऐसा जो तुम्हारे यज्ञ का संचालन कर रहा हो,
उसका यज्ञस्थल पर ही वध करके तुमने समस्त देवजाति को कलंकित कर दिया।
तुमने अक्षम्य अपराध किया है। महर्षि त्वष्टा ने तुम्हारे लिए उचित ही दंड
का निर्णय किया है।'
'मुझे अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हो रहा है, प्रभु। मैं उस समय क्रोध
में अंधा हो रहा था, इसलिए ब्रह्महत्या जैसा पाप कर बैठा। मुझे क्षमा कर
दीजिए और मुझे उस महाभयंकर दैत्य से मुक्ति दिलाइए।' इन्द्र ने शर्मिंदगी
भरे स्वर में कहा।
'देवेंद्र्।' श्रीहरि बोले, 'इस समय मैं तो क्या स्वंय भगवान शिव अथवा
ब्रह्मा जी भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। तुम्हारी रक्षा तो पृथ्वी पर
एक ही व्यक्ति कर सकता है।'
'वह कौन है, देव?'
'महर्षि दधीचि।' विष्णु बोले, 'सिर्फ़ वे ही तुम्हारी रक्षा कर सकते
हैं। तुम महर्षि दधीचि के आश्रम में जाओ और उन्हें प्रसन्न करके किसी तरह
उनके शरीर की हड्डियां प्राप्त कर लो। फिर उन हड्डियों से व्रज बनाकर यदि
तुम वृत्तासुर से युद्ध करोगे तो विजयश्री तुम्हें ही मिलेगी।'
भगवान विष्णु का परामर्श मानकर इन्द्र दधीचि के आश्रम में पहुंचा।
महर्षि दधीचि उस समय समाधि लगाए बैठे थे। उनकी कामधेनु गाय उनके निकट खड़ी
थी। इन्द्र महर्षि की समाधि भंग होने की प्रतीक्षा करने लगे । जब महर्षि ने
अपनी समाधि भंग की तो उनकी दृष्टि करबद्ध खड़े इन्द्र पर पड़ी। महर्षि ने
हंसते हुए पूछा, 'देवेंद्र! आज इस मृत्युलोक में तुम्हारा आगमन क्यों कर
हुआ? देवलोक में सब कुशल से तो हैं?'
'कुशलता कैसी महर्षि।' इन्द्र ने शर्मसार होते हुए कहा, 'देवों के
दुर्दिन आ गए हैं। वृतासुर के भय से देव अमरावती छोड़कर जंगलों और गिरि
कंदराओं में छिपते फिर रहे हैं।'
फिर महर्षि के पूछने पर इन्द्र ने सारी बातें उन्हें बता दीं। सुनकर
दधीचि बोले, 'यह तो बड़ी अशुभ बातें बताईं तुमने, देवेंद्र। अब इनका
निराकरण कैसे हो?'
'महर्षि! मैं भगवान विष्णु के पास गया था।' इन्द्र बोला, 'उन्होंने
परामर्श दिया है कि यदि आप प्रसन्न होकर मुझे अपनी हड्डियों का दान दे दें
और उनसे व्रज बनाकर यदि वृत्तासुर से युद्ध किया जाए तो वह दैत्य उस व्रज
के प्रहार से मर सकता है। हे ॠषिश्रेष्ठ। देवों पर कृपा करके मुझे अपनी
अस्थियों का दान दे दीजिए।'
'देवेंद्र!' महर्षि दधीचि बोले, 'यदि मेरी अस्थियों से मानव और देव जाति
का कुछ हित होता है मैं सहर्ष अपनी अस्थियों का दान देने के लिए तैयार
हूं।'
तत्पश्चात अपने शरीर पर मिष्ठान का लेपन करके महर्षि समाधिस्थ होकर गए।
कामधेनु ने उनके शरीर को चाटना आरंभ कर दिया। कुछ देर में महर्षि के शरीर
की त्वचा, मांस और मज्जा उनके शरीर से विलग हो गए। मानव देह के स्थान पर
सिर्फ़ उनकी अस्थियां ही शेष रह गईं। इन्द्र ने उन अस्थियों को
श्रद्धापूर्वक नमन किया और उन्हें ले जाकर उन हड्डियों से ‘तेजवान’ नामक
व्रज बनाया। तत्पश्चात उस व्रज के बल पर उसने वृतासुर को ललकारा। दोनों के
मध्य भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन वृतासुर ‘तेजवान’ व्रज के आगे देर तक टिका न
रह सका। इन्द्र ने व्रज प्रहार करके उसका वध कर डाला।