Saturday, June 29, 2013

शिव का तीसरा नेत्र

भगवान शिव अपने कर्मों से तो अद्भुत हैं ही अपने स्वरूप से भी रहस्यमय हैं.
      चाहे उनके भाल पर चंद्रमा हो या उनके गले में सर्पो की माला हो या मृग छाला
      हो,हर वस्तु जो भगवान शिव ने धारण कर रखी है.उसके पीछे बड़ा रहस्य है.  

      उनके भाल पर "चंद्रमा" मन का प्रतीक है. शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र,
      सशक्त है, उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है. शिव का चंद्रमा उज्जवल है. "सर्प"
      जैसा क्रूर व हिसंक जीव महाकाल के अधीन है. सर्प तमोगुणी व संहारक वृत्ति का
      जीव है, जिसे शिव ने अपने अधीन कर रखा है. इसलिए उनके गले में सर्पो का हार
      है. शिव के हाथ में एक मारक "त्रिशूल" शस्त्र है.त्रिशूल  सृष्टि में मानव के
      भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है.

      डम-डम करता "डमरू" जिसे वे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं. डमरू का नाद ही
      ब्रह्म रुप है. शिव के गले में "मुंडमाला" है जो इस बात का प्रतीक है कि शिव
      ने मृत्यु को वश में कर रखा है.शिव के शरीर पर व्याघ्र "चर्म" है, व्याघ्र
      हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है. इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व
      अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है.

      शिव का वाहन वृषभ है. वह हमेशा शिव के साथ रहता है.   महादेव इस चार पैर वाले बैल की सवारी करते है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष   उनके अधीन है. सार रूप में शिव का रूप विराट और अनंत है, शिव की महिमा   अपरम्पार है. 

    शिव की "तीसरी आंख"   भी ऐसी ही है. धर्म शास्त्रों के अनुसार सभी देवताओं की दो आंखें हैं पर शिव   की तीन आंखें हैं.                                      

      शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं. शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम तीन गुणों,
      भूत, वर्तमान, भविष्य, तीन कालों स्वर्ग, मृत्यु पाताल तीन लोकों का प्रतीक
      है.


      भगवान शिव का यह तीसरा नेत्र ज्ञान चक्षु है. यह विवेकशीलता का प्रतीक है. इस
      ज्ञान चक्षु की पलके  खुलते ही काम जल कर भस्म हो जाता है. यह विवेक अपना
      ऋषित्व स्थिर रखते हुए दुष्टता को उन्मुक्त रूप में विचरने नहीं देता है.
      अंतत उसका मद- मर्दन करके ही रहता है. वस्तुत यह तृतीय नेत्र परमात्मा ने
      प्रत्येक व्यक्ति को दिया है, यह विवेक अन्तः प्रेरणा के रूप में हमारे अंदर ही
      रहता है. बस जरुरत है उसे जगाने की. भगवान शिव का तीसरा नेत्र आज्ञाचक्र का
      स्थान है. यह आज्ञाचक्र ही विवेकबुद्धि का स्रोत है.यदि यह तृतीय नेत्र खुल
      जाये, तो सामान्य बीज रूपी मनुष्य की सम्भावनाये वट वृक्ष का आकार  ले सकती है.


      दरअसल शिव की तीसरी आंख प्रतीकात्मक नेत्र है. आंखों का काम होता है रास्ता
      दिखाना और रास्ते में पढऩे वाली मुसीबतों से सावधान करना. जीवन में कई बार
      ऐसे संकट भी आ जाते हैं; जिन्हें हम अपनी दोनों आंखों से भी नहीं देख पाते.
      ऐसे समय में विवेक और धैर्य ही एक सच्चे मार्गदर्शक के रूप में हमें सही-गलत
      की पहचान कराता है.

      

और कछु माँगु नहीँ, हे देवन के देव।
भक्ति दान मोहि दीजिए,चरणकमल के सेव।।
जग मेँ आपन कोउ नहीँ,सुख दुख पूछन हार।
हे अनाथ के नाथ प्रभु,मेरी करहुँ सँभार।।
अर्थ न धर्म काम रुचि,गति न चहौ निर्वान।
जन्म जन्म रति राम पद,यह वरदान न आन।।
स्वामी मोहि न बिसारियो,लाख लोग
मिलि जाहिँ।
हमसे तुमको बहुत हैँ,तुमसे हमको नाहिँ।।
नहिँ विद्या नहिँ बाहु बल,नहिँ खर्चन को दाम।
मोसे पतित अपंग की, तुम पति राखहु राम।।
कामिहिँ नारि पियारि जिम,लोभिहिँ प्रिय
जिमिदास।
तिमि रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहु मोहिँ राम।।
बार बार वर माँगहूं,हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी, भक्ति सदा सत्संग।।

पूजा-आराधना में हमारे भाव और हमारे कर्म



पूजा-आराधना में हमारे भाव और हमारे कर्म कैसे होना चाहिए।
* एक कार्य की तरह न हो पूजा।
* एक भार की तरह न हो पूजा।
* एक अहसान की तरह न हो पूजा।
* अहं भाव का पोषण न हो पूजा।
* एक आडम्बर न हो पूजा।
* अपने कर्मों का लेखा-जोखा न हो पूजा।
* अपनी कामनाओं की पूर्ति का घर न हो पूजा।
* परमात्मा से अपने प्रेम का दिखावा न हो पूजा।


* समय सीमा में बँधी न हो पूजा।
* पौधे और फूल का विग्रह न हो पूजा।
* तन को तकलीफ देने वाली न हो पूजा।
* जन्म की पहली श्वास से अंतिम श्वास तक परमात्मा को धन्यवाद देती हो पूजा।
* जीवन की प्रत्येक श्वास पर परमात्मा के लिए प्यार हो पूजा।
* नयनों का प्रत्येक दृश्य परमात्मा का आभास हो पूजा।
* मन का प्रत्येक विचार परमात्मा का साथ हो पूजा।
* प्रातःकाल की सबसे पहली साँस परमात्मा की मुलाकात हो पूजा।
* हर साँस परमात्मा की आस हो पूजा।
* प्रत्येक प्राणी में उसका आभास हो पूजा।
* प्रत्येक कर्म में उसकी शक्ति का अहसास हो पूजा।

* प्रत्येक कष्ट में उसकी परम निकटता का अहसास हो पूजा।
* अपना प्रत्येक पाप उसको भुलाने का अहसास हो पूजा।
* जीवन में मिले सुखों और दुःखों में उसके परम प्यार का अहसास हो पूजा।
* नियमों और कायदों में बँधी न हो पूजा, बस उसके और मेरे प्यार का अहसास भर हो पूजा।
* मेरी और उनकी (परमात्मा) की एकांत और गहन मुलाकात हो पूजा।
* दोनों को एक-दूसरे की समान तीव्र तड़प हो यही सार्थक पूजा।
कुछ ऐसी ही बातों को रोजमर्रा के जीवन में शामिल करके हम आराधना को सार्थक बना सकते हैं।

Tuesday, June 25, 2013

स्तुति श्री बद्रीनाथ जी की

पवन मन्द सुगंधशीतल हेम मंदिर शोभितम
निकट गंगा बहत निर्मल श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम
शेष सुमिरन करत निशिदिन धरतध्यान महेश्वरम
श्री वेद ब्रह्मा करद स्तुति श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम
शक्ति गौरी गणेश शारद नारद मुनि उच्चारणम
योग ध्यान अपार लीला श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम
इन्द्र, चन्द्र कुबेर, धुनिकर, धूपदीप प्रकाशितम
सिद्ध मुनिजन करत जै-जै श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम
यक्ष किन्नर करत कौतुक ज्ञान गन्धर्व प्रकाशितम
कैलाश में एक देव निरंजन शैल शिखर महेश्वरम
राजा युधिष्ठर करत स्तुति श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम
श्री बद्रीजी के पंचरत्न पढ़त पाप विनाशनम
कौटि तीर्थ भवेत पुण्य प्राप्येत फलदायकम।