Saturday, November 1, 2014

भगवान विष्णु के नाम

पद्म पुराण के अनुसार चार भुजाधारी भगवान विष्णु के दाहिनी ओर का ऊपर का हाथ, दाहिनी ओर का नीचे का हाथ, बायीं ओर का ऊपर का हाथ और बायीं ओर का नीचे का हाथ- इस क्रम से चारों हाथों में शंख, चक्र आदि आयुधों को  धारण करने पर भगवान की भिन्न-भिन्न संज्ञाएँ होती हैं।

    उपर्युक्त क्रम से चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करने वाले विष्णु का नाम 'केशव' है।
    पद्म, गदा, चक्र और शंख के क्रम से शस्त्र धारण करने पर उन्हें 'नारायण' कहते हैं।
    क्रमश: चक्र, शंख, पद्म और गदा ग्रहण करने से वे 'माधव' कहलाते हैं।
    गदा, पद्म, शंख और चक्र-इस क्रम से आयुध धारण करने वाले भगवान का नाम 'गोविन्द' है।
    पद्म, शंख, चक्र और गदाधारी विष्णु रूप भगवान को प्रणाम है।
    शंख, पद्म, गदा और चक्र धारण करने वाले मधुसूदन-विग्रह को नमस्कार है।
    गदा, चक्र, शंख और पद्म से युक्त त्रिविक्रम को तथा
    चक्र, गदा, पद्म और शंखधारी वामन मूर्ति को प्रणाम है।
    चक्र, पद्म और गदा धारण करने वाले श्रीधर रूप को नमस्कार है।
    चक्र, गदा, शंख तथा पद्मधारी हृषीकेश! आपको प्रणाम है।
    पद्म, शंख, गदा और चक्र ग्रहण करने वाले पद्मनाभ विग्रह को नमस्कार है।
    शंख, गदा, चक्र और पद्मधारी दामोदर! आपको मेरा प्रणाम है।
    शंख, कमल, चक्र तथा गदा धारण करने वाले संकर्षण को नमस्कार है।
    चक्र, शंख गदा तथा पद्म से युक्त भगवान वासुदेव! आपको प्रणाम है।
    शंख, चक्र, गदा और कमल आदि के द्वारा प्रद्युम्नमूर्ति धारण करनेवाले भगवान को नमस्कार है।
    गदा, शंख, कमल तथा चक्रधारी अनिरुद्ध को प्रणाम है।
    पद्म, शंख, गदा और चक्र से चिह्नित पुरुषोत्तम रूप को नमस्कार है।
    गदा, शंख, चक्र और पद्म ग्रहण करने वाले अधोक्षज को प्रणाम है।
    पद्म, गदा, शंख और चक्र धारण करने वाले नृसिंह भगवान को नमस्कार है।
    पद्म, चक्र, शंख और गदा लेने वाले अच्युतस्वरूप को प्रणाम है।
    गदा, पद्म, चक्र और शंखधारी श्रीकृष्ण विग्रह को नमस्कार है।

Wednesday, August 6, 2014

हिंदू धर्म के 10 पवित्र वृक्ष

हिंदू धर्म के 10 पवित्र वृक्ष,

1.पीपल देव : हिंदू धर्म में पीपल का बहुत महत्व है। पीपल के वृक्ष को संस्कृत में प्लक्ष भी कहा गया है। वैदिक काल में इसे अश्वार्थ इसलिए कहते थे, क्योंकि इसकी छाया में घोड़ों को बांधा जाता था। अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। औषधीय गुणों के कारण पीपल के वृक्ष को 'कल्पवृक्ष' की संज्ञा दी गई है। पीपल के वृक्ष में जड़ से लेकर पत्तियों तक तैंतीस कोटि देवताओं का वास होता है और इसलिए पीपल का वृक्ष प्रात: पूजनीय माना गया है। उक्त वृक्ष में जल अर्पण करने से रोग और शोक मिट जाते हैं।
पीपल के प्रत्येक तत्व जैसे छाल, पत्ते, फल, बीज, दूध, जटा एवं कोपल सभी प्रकार की आधि-व्याधियों के निदान में काम आते हैं। हिंदू धार्मिक ग्रंथों में पीपल को अमृततुल्य माना गया है। सर्वाधिक ऑक्सीजन निस्सृत करने के कारण इसे प्राणवायु का भंडार कहा जाता है। सबसे अधिक ऑक्सीजन का सृजन और विषैली गैसों को आत्मसात करने की इसमें अकूत क्षमता है।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, 'हे पार्थ वृक्षों में मैं पीपल हूं।'
पीपल परिक्रमा : स्कन्द पुराण में वर्णित पीपल के वृक्ष में सभी देवताओं का वास है। पीपल की छाया में ऑक्सीजन से भरपूर आरोग्यवर्धक वातावरण निर्मित होता है। इस वातावरण से वात, पित्त और कफ का शमन-नियमन होता है तथा तीनों स्थितियों का संतुलन भी बना रहता है। इससे मानसिक शांति भी प्राप्त होती है। पीपल की पूजा का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है। इसके कई पुरातात्विक प्रमाण भी है।
अश्वत्थोपनयन व्रत के संदर्भ में महर्षि शौनक कहते हैं कि मंगल मुहूर्त में पीपल वृक्ष की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढ़ाने पर दरिद्रता, दु:ख और दुर्भाग्य का विनाश होता है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है।
पीपल पूजा : शनिवार की अमावस्या को पीपल वृक्ष की पूजा और सात परिक्रमा करके काले तिल से युक्त सरसो के तेल के दीपक को जलाकर छायादान करने से शनि की पीड़ा से मुक्ति मिलती है। अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या के दिन पीपल वृक्ष के पूजन से शनि पीड़ा से व्यक्ति मुक्त हो जाता है।

2.बरगद या वटवृक्ष : बरगद को वटवृक्ष कहा जाता है। हिंदू धर्म में वट सावत्री नामक एक त्योहार पूरी तरह से वट को ही समर्पित है। पीपल के बाद बरगद का सबसे ज्यादा महत्व है। पीपल में जहां भगवान विष्णु का वास है वहीं बरगद में ब्रह्मा, विश्णु और शिव का वास माना गया है। बरगद को साक्षात शिव भी कहा गया है। बरगद को देखना शिव के दर्शन करना है।
हिंदू धर्मानुसार पांच वटवृक्षों का महत्व अधिक है। अक्षयवट, पंचवट, वंशीवट, गयावट और सिद्धवट के बारे में कहा जाता है कि इनकी प्राचीनता के बारे में कोई नहीं जानता। संसार में उक्त पांच वटों को पवित्र वट की श्रेणी में रखा गया है। प्रयाग में अक्षयवट, नासिक में पंचवट, वृंदावन में वंशीवट, गया में गयावट और उज्जैन में पवित्र सिद्धवट है।
3.आम : हिंदू धर्म में जब भी कोई मांगलिक कार्य होते हैं तो घर या पूजा स्थल के द्वार व दीवारों पर आम के पत्तों की लड़ लगाकर मांगलिक उत्सव के माहौल को धार्मिक और वातावरण को शुद्ध किया जाता है।
अक्सर धार्मिक पंडाल और मंडपों में सजावट के लिए आम के पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है। आम के वृक्ष की हजारों किस्में हैं और इसमें जो फल लगता है वह दुनियाभर में प्रसिद्ध है। आम के रस से कई प्रकार के रोग दूर होते हैं।
4. शमी :
वराहमिहिर के अनुसार जिस साल शमीवृक्ष ज्यादा फूलता-फलता है उस साल सूखे की स्थिति का निर्माण होता है। विजयादशमी के दिन इसकी पूजा करने का एक तात्पर्य यह भी है कि यह वृक्ष आने वाली कृषि विपत्ती का पहले से संकेत दे देता है जिससे किसान पहले से भी ज्यादा पुरुषार्थ करके आनेवाली विपत्ति से निजात पा सकता है।इसे भविष्यवक्ता वृक्ष भी कहते हैं |
5.बिल्व वृक्ष : बिल्व अथवा बेल (बिल्ला) विश्व के कई हिस्सों में पाया जाने वाला वृक्ष है। भारत में इस वृक्ष का पीपल, नीम, आम, पारिजात और पलाश आदि वृक्षों के समान ही बहुत अधिक सम्मान है। हिन्दू धर्म में बिल्व वृक्ष भगवान शिव की अराधना का मुख्य अंग है।
धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे मंदिरों के पास लगाया जाता है। बिल्व वृक्ष की तासीर बहुत शीतल होती है। गर्मी की तपिश से बचने के लिए इसके फल का शर्बत बड़ा ही लाभकारी होता है। यह शर्बत कुपचन, आंखों की रोशनी में कमी, पेट में कीड़े और लू लगने जैसी समस्याओं से निजात पाने के लिए उत्तम है। औषधीय गुणों से परिपूर्ण बिल्व की पत्तियों मे लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नेशियम जैसे रसायन पाए जाते हैं।
बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में 'स्कंदपुराण' में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ| कहा जाता है कि बेल वृक्ष के कांटों में भी कई शक्तियाँ समाहित हैं। यह माना जाता है कि देवी महालक्ष्मी का भी बेल वृक्ष में वास है। जो व्यक्ति शिव-पार्वती की पूजा बेलपत्र अर्पित कर करते हैं, उन्हें महादेव और देवी पार्वती दोनों का आशीर्वाद मिलता है। 'शिवपुराण' में इसकी महिमा विस्तृत रूप में बतायी गयी है।
6.अशोक वृक्ष : अशोक वृक्ष को हिन्दू धर्म में बहुत ही पवित्र और लाभकारी माना गया है। अशोक का शाब्दिक अर्थ होता है- किसी भी प्रकार का शोक न होना। मांगलिक एवं धार्मिक कार्यों में अशोक के पत्तों का प्रयोग किया जाता है।
माना जाता है कि अशोक वृक्ष घर में लगाने से या इसकी जड़ को शुभ मुहूर्त में धारण करने से मनुष्य को सभी शोकों से मुक्ति मिल जाती है। अशोक का वृक्ष वात-पित्त आदि दोष, अपच, तृषा, दाह, कृमि, शोथ, विष तथा रक्त विकार नष्ट करने वाला है। यह रसायन और उत्तेजक है। इसके उपयोग से चर्म रोग भी दूर होता है। अशोक का वृक्ष घर में उत्तर दिशा में लगाना चाहिए जिससे गृह में सकारात्मक ऊर्जा का संचारण बना रहता है। घर में अशोक के वृक्ष होने से सुख, शांति एवं समृद्धि बनी रहती है एवं अकाल मृत्यु नहीं होती।
अशोक का वृक्ष आम के पेड़ जैसा छायादार वृक्ष होता है। इसके पत्ते 8-9 इंच लंबे और दो-ढाई इंच चौड़े होते हैं। इसके पत्ते शुरू में तांबे जैसे रंग के होते हैं इसीलिए इसे 'ताम्रपल्लव' भी कहते हैं। इसके नारंगी रंग के फूल वसंत ऋतु में आते हैं, जो बाद में लाल रंग के हो जाते हैं। सुनहरे लाल रंग के फूलों वाला होने से इसे 'हेमपुष्पा' भी कहा जाता है।
7.नारियल का वृक्ष : हिन्दू धर्म में नारियल के बगैर तो कोई मंगल कार्य संपन्न होता ही नहीं। नारियल का खासा धार्मिक महत्व है। 60 फुट से 100 फुट तक ऊंचा नारियल का पेड़ लगभग 80 वर्षों तक जीवित रहता है। 15 वर्षों के बाद पेड़ में फल लगते हैं।
पूजा के दौरान कलश में पानी भरकर उसके ऊपर नारियल रखा जाता है। यह मंगल प्रतीक है। नारियल का प्रसाद भगवान को चढ़ाया जाता है।
पेड़ का प्रत्येक भाग किसी न किसी काम में आता है। ये भाग किसानों के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इस् से घरों के पाट, फर्नीचर आदि बनाए जाते हैं। पत्तों से पंखे, टोकरियां, चटाइयां आदि बनती हैं। इसकी जटा से रस्सी, चटाइयां, ब्रश, जाल, थैले आदि अनेक वस्तुएं बनती हैं। यह गद्दों में भी भरा जाता है। नारियल का तेल सबसे ज्यादा बिकता है।
8.अनार : अनार के वृक्ष से जहां सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होता हैं वहीं इस वृक्ष के कई औषधीय गुण भी हैं। पूजा के दौरान पंच फलों में अनार की गिनती की जाती है।
अनार को दाडम या दाड़िम आदि अलग-अलग नाम से जानते हैं। अनार का वृक्ष भी बहुत ही सुंदर होता है जिसे बगिया की शोभा के लिए भी लगाया जा सकता है। इसकी कली, फूल और फल भी कुछ कम सुंदर नहीं होते।
अनार का प्रयोग करने से खून की मात्रा बढ़ती है। इससे त्वचा सुंदर व चिकनी होती है। रोज अनार का रस पीने से या अनार खाने से त्वचा का रंग निखरता है। अनार के छिलकों के एक चम्मच चूर्ण को कच्चे दूध और गुलाब जल में मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरा दमक उठता है। अपच, दस्त, पेचिश, दमा, खांसी, मुंह में दुर्गंध आदि रोगों में अनार लाभदायक है। इसके सेवन से शरीर में झुर्रियां या मांस का ढीलापन समाप्त हो जाता है।
9.नीम का वृक्ष : नीम एक चमत्कारी वृक्ष माना जाता है। नीम का सर्व सुलभ वृक्ष आसानी से मिल जाता है। नीम को संस्कृत में निम्ब कहा जाता है। यह वृक्ष अपने औषधीय गुणों के कारण पारंपरिक इलाज में बहुपयोगी सिद्ध होता आ रहा है। चरक संहिता और सुश्रुत संहिता जैसे प्राचीन चिकित्सा ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।
नीम के पेड़ का औषधीय के साथ-साथ धार्मिक महत्त्व भी है। मां दुर्गा का रूप माने जाने वाले इस पेड़ को कहीं-कहीं नीमारी देवी भी कहते हैं। इस पेड़ की पूजा की जाती है। कहते हैं कि नीम की पत्तियों के धुएं से बुरी और प्रेत आत्माओं से रक्षा होती है।
10. केले का पेड़ : केले का पेड़ काफी पवित्र माना जाता है और कई धार्मिक कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को केले का भोग लगाया जाता है। केले के पत्तों में प्रसाद बांटा जाता है। माना जाता है कि समृद्धि के लिए केले के पेड़ की पूजा अच्छी होती है।
केला हर मौसम में सरलता से उपलब्ध होने वाला अत्यंत पौष्टिक एवं स्वादिष्ट फल है। केला रोचक, मधुर, शक्तिशाली, वीर्य व मांस बढ़ाने वाला, नेत्रदोष में हितकारी है। पके केले के नियमित सेवन से शरीर पुष्ट होता है। यह कफ, रक्तपित, वात और प्रदर के उपद्रवों को नष्ट करता है।

Monday, August 4, 2014

दिव्य शिवलिंग हमारा अपना अंगूठा



हमारा  सबसे

दिव्य शिवलिंग हमारा अपना अंगूठा है –
जब हम अपनी चार उंगलिओं को मोड़ कर अंगूठा ऊपर करते हैं तब हमारा अंगूठा एक शिव लिंग का आकार ले लेता है . यही है हमारे शरीर में हमारा साथ सदा रहने वाला शिव लिंग. यदि आपको कहीं मंदिर में कोई शिव लिंग उपलब्ध नही हो पाता है तो आप अपने अंगूठे पर ही जलाभिषेक करके भगवान शिव की पूजा कर सकते हैं .
      अंगूठे का नाखून शिव लिंग के साथ में चन्द्र का प्रतीक है .अंगूठे पर बनी तीन मोटी रेखाएं प्राकृतिक रूप से इस शिवलिंग को तिलक करती हैं . नाखून के पीछे की रेखाएं (जिनका प्रयोग फिंगर प्रिंट के लिए होता है ) वो भगवान शिव की जटाएं हैं . हर व्यक्ति के अंगूठे रूपी शिव लिंग में ये जटाएं  एक अलग तरह की होती हैं .बिना अंगूठे के प्रयोग के आप केवल अपनी बाक़ी चार उँगलियों से कोई बड़ा कार्य जैसे भार उठाना ,लिखना आदि नही कर सकते क्योंकि आप बिना शिवजी की सहायता के कुछ नही कर सकते.
अंगूठे से तिलक करने से आपको भगवान शिव का आशीर्वाद स्वतः मिल जाता है .
 शिवलिंग मुद्रा
बाएं हाथ को पेट के पास लाकर सीधा रखें। दाएं हाथ की मुठ्ठी बना कर बाईं हथेली पर
रखें और दाएं हाथ का अंगूठा सीधा ऊपर की ओर रखें। नीचे वाले बाएं हाथ की अंगुलियाँ
और अंगूठा मिला कर रखें। दोनों बाजुओं की कोहनियाँ सीधी रखें। इस मुद्रा को शिवलिंग
मुद्रा कहते हैं।
शिवलिंग मुद्रा दिन में दो बार पाँच मिनट के लिए लगाएं।
 लाभ :
@ शिवलिंग मुद्रा लगाने से सुस्ती, थकावट दूर हो नयी शक्ति का विकास होता है।
@ शिवलिंग मुद्रा लगाते हुए लम्बे व गहरे सांस लेने चाहिये।
@ शिवलिंग मुद्रा लगाने से मानसिक थकान व चिंता दूर होती है।  

Sunday, August 3, 2014

नाग पंचमी कथा

नाग पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है । हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन माह की शुक्ल पक्ष के पंचमी को नाग पंचमी के रुप में मनाया जाता है । इस दिन नाग देवता या सर्प की पूजा की जाती है और उन्हें दूध पिलाया जाता है।
हमारी संस्कृति में पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति सबके साथ आत्मीय संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया गया है। हमारे यहां गाय की पूजा होती है। कोकिला-व्रत में कोयल के दर्शन हो अथवा उसका स्वर कान पर पड़े तब ही भोजन लेते हैं । हमारे यहाँ वृषभोत्सव के दिन बैल का पूजन किया जाता है। वट-सावित्री जैसे व्रत में बरगद की पूजा होती है, नाग पंचमी में नाग का पूजन करते हैं |
नाग पंचमी की कथा -
प्राचीन काल में एक सेठजी के सात पुत्र थे। सातों के विवाह हो चुके थे। सबसे छोटे पुत्र की पत्नी श्रेष्ठ चरित्र की विदूषी और सुशील थी, परंतु उसके भाई नहीं था।
एक दिन बड़ी बहू ने घर लीपने को पीली मिट्टी लाने के लिए सभी बहुओं को साथ चलने को कहा तो सभी खुरपी लेकर मिट्टी खोदने लगी। तभी वहां एक सर्प निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने उसे रोकते हुए कहा- 'मत मारो इसे? यह बेचारा निरपराध है।'
यह सुनकर बड़ी बहू ने उसे नहीं मारा तब सर्प एक ओर जा बैठा। तब छोटी बहू ने उससे कहा-'हम अभी लौट कर आती हैं तुम यहां से जाना मत। यह कहकर वह सबके साथ मिट्टी लेकर घर चली गई और वहाँ कामकाज में फँसकर सर्प से जो वादा किया था उसे भूल गई।
उसे दूसरे दिन वह बात याद आई तो सब को साथ लेकर वहाँ पहुँची और सर्प को उस स्थान पर बैठा देखकर बोली- सर्प भैया नमस्कार! सर्प ने कहा- 'तू भैया कह चुकी है, इसलिए तुझे छोड़ देता हूं, नहीं तो झूठी बात कहने के कारण तुझे अभी डस लेता। वह बोली- भैया मुझसे भूल हो गई, उसकी क्षमा माँगती हूं, तब सर्प बोला- अच्छा, तू आज से मेरी बहिन हुई और मैं तेरा भाई हुआ। तुझे जो मांगना हो, माँग ले। वह बोली- भैया! मेरा कोई नहीं है, अच्छा हुआ जो तू मेरा भाई बन गया।
कुछ दिन व्यतीत होने पर वह सर्प मनुष्य का रूप रखकर उसके घर आया और बोला कि 'मेरी बहिन को भेज दो।' सबने कहा कि 'इसके तो कोई भाई नहीं था, तो वह बोला- मैं दूर के रिश्ते में इसका भाई हूँ, बचपन में ही बाहर चला गया था। उसके विश्वास दिलाने पर घर के लोगों ने छोटी को उसके साथ भेज दिया। उसने मार्ग में बताया कि 'मैं वहीं सर्प हूँ, इसलिए तू डरना नहीं और जहां चलने में कठिनाई हो वहां मेरी पूछ पकड़ लेना। उसने कहे अनुसार ही किया और इस प्रकार वह उसके घर पहुंच गई। वहाँ के धन-ऐश्वर्य को देखकर वह चकित हो गई।
एक दिन सर्प की माता ने उससे कहा- 'मैं एक काम से बाहर जा रही हूँ, तू अपने भाई को ठंडा दूध पिला देना। उसे यह बात ध्यान न रही और उससे गर्म दूध पिला दिया, जिसमें उसका मुख बेतरह जल गया। यह देखकर सर्प की माता बहुत क्रोधित हुई। परंतु सर्प के समझाने पर चुप हो गई। तब सर्प ने कहा कि बहिन को अब उसके घर भेज देना चाहिए। तब सर्प और उसके पिता ने उसे बहुत सा सोना, चाँदी, जवाहरात, वस्त्र-भूषण आदि देकर उसके घर पहुँचा दिया।
इतना ढेर सारा धन देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या से कहा- भाई तो बड़ा धनवान है, तुझे तो उससे और भी धन लाना चाहिए। सर्प ने यह वचन सुना तो सब वस्तुएँ सोने की लाकर दे दीं। यह देखकर बड़ी बहू ने कहा- 'इन्हें झाड़ने की झाड़ू भी सोने की होनी चाहिए'। तब सर्प ने झाडू भी सोने की लाकर रख दी।
सर्प ने छोटी बहू को हीरा-मणियों का एक अद्भुत हार दिया था। उसकी प्रशंसा उस देश की रानी ने भी सुनी और वह राजा से बोली कि- सेठ की छोटी बहू का हार यहाँ आना चाहिए।' राजा ने मंत्री को हुक्म दिया कि उससे वह हार लेकर शीघ्र उपस्थित हो मंत्री ने सेठजी से जाकर कहा कि 'महारानीजी छोटी बहू का हार पहनेंगी, वह उससे लेकर मुझे दे दो'। सेठजी ने डर के कारण छोटी बहू से हार मंगाकर दे दिया।
छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने सर्प भाई को याद किया और आने पर प्रार्थना की- भैया ! रानी ने हार छीन लिया है, तुम कुछ ऐसा करो कि जब वह हार उसके गले में रहे, तब तक के लिए सर्प बन जाए और जब वह मुझे लौटा दे तब हीरों और मणियों का हो जाए। सर्प ने ठीक वैसा ही किया। जैसे ही रानी ने हार पहना, वैसे ही वह सर्प बन गया। यह देखकर रानी चीख पड़ी और रोने लगी।
यह देख कर राजा ने सेठ के पास खबर भेजी कि छोटी बहू को तुरंत भेजो। सेठजी डर गए कि राजा न जाने क्या करेगा? वे स्वयं छोटी बहू को साथ लेकर उपस्थित हुए। राजा ने छोटी बहू से पूछा- तुने क्या जादू किया है, मैं तुझे दण्ड दूंगा। छोटी बहू बोली- राजन ! धृष्टता क्षमा कीजिए, यह हार ही ऐसा है कि मेरे गले में हीरों और मणियों का रहता है और दूसरे के गले में सर्प बन जाता है। यह सुनकर राजा ने वह सर्प बना हार उसे देकर कहा- अभी पहिनकर दिखाओ। छोटी बहू ने जैसे ही उसे पहना वैसे ही हीरों-मणियों का हो गया।
यह देखकर राजा को उसकी बात का विश्वास हो गया और उसने प्रसन्न होकर उसे बहुत सी मुद्राएं भी पुरस्कार में दीं। छोटी बहू अपने हार और धन सहित घर लौट आई। उसके धन को देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या के कारण उसके पति को सिखाया कि छोटी बहू के पास कहीं से धन आया है। यह सुनकर उसके पति ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा- ठीक-ठीक बता कि यह धन तुझे कौन देता है? तब वह सर्प को याद करने लगी।
तब उसी समय सर्प ने प्रकट होकर कहा- यदि मेरी धर्म बहिन के आचरण पर संदेह प्रकट करेगा तो मैं उसे खा लूँगा। यह सुनकर छोटी बहू का पति बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सर्प देवता का बड़ा सत्कार किया। उसी दिन से नागपंचमी का त्योहार मनाया जाता है और स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं।

Wednesday, June 4, 2014

गंगा दशहरा



8 जून 2014 को  गंगा दशहरा का पावन पर्व है । शिव शंकर की जटा से निकलने वाली माँ गंगा, जिनका जल जहां से होकर गया वहीं पवित्र तीर्थ हो गए।  हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों में गौ, गंगा एवं
गायत्री इन तीनों को पापनाशक त्रिवेणी बतलाया गया है। आज ही के दिन कलिमल का दहन
करने में सक्षम गंगाजी अवतरण हुआ था अतः आज गंगास्नान का विशेष महत्व  बताया गया
है। आइये पहले माँ गंगा के स्वरूप का चिंतन करते हैं। माँ गंगा जी का ध्यान इस
प्रकार है-

सितमकरनिषण्णां शुक्लवर्णां त्रिनेत्राम्

करधृतकमलोद्यत्सूत्पलाऽभीत्यभीष्टाम् ।

विधिहरिहररूपां सेन्दुकोटीरचूडाम्

कलितसितदुकूलां जाह्नवीं तां नमामि ॥
अर्थात्
श्वेत मकर पर विराजित, शुभ्र वर्ण वाली, तीन नेत्रों वाली, दो हाथों में भरे हुए
कलश तथा दो हाथों में सुंदर कमल धारण किए हुए, भक्तों के लिए परम इष्ट, ब्रह्मा, विष्णु
तथा महेश तीनों का रूप अर्थात् तीनों के कार्य करने वाली, मस्तक पर सुशोभित चंद्रजटित मुकुट वाली
तथा सुंदर श्वेत वस्त्रों से विभूषित माँ गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ। 
  जब गंगाजी का धरती पर अवतरण हुआ उस समय ये दस प्रकार के योग बने थे-
ज्येष्ठ मासे सिते पक्षे दशम्यां बुध हस्तयो:
व्यतीपाते गरा नन्दे कन्या चन्द्रे वृषे रवौ।
हरते दश पापानि तस्माद्दशहरा स्मृता।।
अर्थात् ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, बुधवार, हस्त नक्षत्र, व्यतीपात योग,
गर और आनन्द योग, कन्या राशि में चंद्रमा तथा वृष राशि में सूर्य - इन दस योगों से
युक्त समय में अवतीर्ण हुई गंगा का स्नान दस पापों का हरण करता है।

    दस पाप निम्न माने जाते हैं –
 बिना दी हुई वस्तु को ले लेना, निषिद्ध हिंसा, परस्त्री गमन- ये तीन दैहिक पाप हैं।
कठोर वचन मुँह से निकालना, झूठ बोलना, चुगली करना और अनाप शनाप बातें बकना- ये वाणी
से होने वाले चार पाप हैं।
 दूसरे के धन को लेने का विचार करना, मन से दूसरों का बुरा सोचना और असत्य
वस्तुओं  में आग्रह रखना (व्यर्थ की बातों में दुराग्रह)- ये तीन मानसिक पाप हैं।
 इन दस पापों का हरण करने में यही गंगा दशहरा नामक पावन त्यौहार सक्षम है। स्कन्द
पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को गंगा तट पर रात्रि
जागरण करके दस प्रकार के दस-दस सुगंधित पुष्पों, फल, दस दीप, नैवेद्य और दशांग धूप
द्वारा गंगाजी की दस बार श्रद्धा के साथ पूजा करने का विधान है । इसके अंतर्गत
गंगाजी के जल में तिलों की दस अंजलि डालें। फिर गुड व सत्तू  के दस पिंड बनाकर
इन्हें भी गंगाजी में डाल दें। गंगाजी के लिए उक्त पूजा, दान, जप, होम ये सभी
कार्य-
'ॐ नमः शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै स्वाहा'
इस मंत्र को जपते हुए  किए जाने चाहिए। इसके साथ ही ब्रह्माजी, विष्णुजी,  शिवजी,
सूर्य देव का, हिमवान् पर्वत और राजा भगीरथ का भी भलीभांति अर्चन-स्मरण करना चाहिए।
फिर दस ब्राह्मणों को दस के ही वजन में [दस ग्राम/किलो/सेर आदि] तिल दान करें व 
गंगा दशहरा स्तोत्र पढ़ें। गंगा जी का वह पवित्र स्तोत्र अनुवाद सहित प्रस्तुत है -

 ॥ गंगा दशहरा स्तोत्रम् ॥

ॐ नमः शिवायै गङ्गायै शिवदायै नमो नमः।

नमस्ते विष्णुरुपिण्यै, ब्रह्ममूर्त्यै नमोऽस्तु ते॥
नमस्ते रुद्ररुपिण्यै शाङ्कर्यै ते नमो नमः।
सर्वदेवस्वरुपिण्यै नमो भेषजमूर्त्तये॥
ॐ शिवस्वरूपा श्रीगंगा जी को नमस्कार है। कल्याणदायिनी गंगा जी को नमस्कार है। हे
देवि गंगे! आप विष्णुरूपिणी हैं, आपको नमस्कार है। हे ब्रह्मस्वरूपा! आपको नमस्कार
है, नमस्कार है। हे रुद्रस्वरूपिणी! शांकरी! आपको नमस्कार है। हे सर्वदेवस्वरूपा!
औषधिरूपा! देवी आपको नमस्कार है।
सर्वस्य सर्वव्याधीनां, भिषक्श्रेष्ठ्यै नमोऽस्तु ते।
स्थास्नु जङ्गम सम्भूत विषहन्त्र्यै नमोऽस्तु ते॥
संसारविषनाशिन्यै,जीवनायै नमोऽस्तु ते।
तापत्रितयसंहन्त्र्यै,प्राणेश्यै ते नमो नमः॥
आप सबके संपूर्ण रोगों की श्रेष्ठ वैद्य हैं, आपको नमस्कार है। स्थावर और जंगम
प्राणियों से प्रकट होने वाले विष का आप नाश करने वाली हैं, आपको नमस्कार है। संसार
के विषय रूपी विष का नाश करने वाली जीवनरूपा आपको नमस्कार है। आध्यात्मिक, आधिदैविक
और आधिभौतिक तीनों प्रकार के क्लेशों का संहार करने वाली आपको नमस्कार है। प्राणों
की स्वामिनी आपको नमस्कार है, नमस्कार है।
शांतिसन्तानकारिण्यै नमस्ते शुद्धमूर्त्तये।
सर्वसंशुद्धिकारिण्यै नमः पापारिमूर्त्तये॥
भुक्तिमुक्तिप्रदायिन्यै भद्रदायै नमो नमः।
भोगोपभोगदायिन्यै भोगवत्यै नमोऽस्तु ते॥
 शांति का विस्तार करने वाली शुद्ध स्वरूपा आपको नमस्कार है। सबको शुद्ध करने वाली
तथा पापों की शत्रुस्वरूपा आपको नमस्कार है। भोग, मोक्ष तथा कल्याण प्रदान करने
वाली आपको बार-बार नमस्कार है। भोग और उपभोग देने वाली भोगवती नाम से प्रसिद्ध आप
पाताल गंगा को नमस्कार है।
मन्दाकिन्यै नमस्तेऽस्तु स्वर्गदायै नमो नमः।
नमस्त्रैलोक्यभूषायै त्रिपथायै नमो नमः॥
नमस्त्रिशुक्लसंस्थायै क्षमावत्यै नमो नमः।
त्रिहुताशनसंस्थायै तेजोवत्यै नमो नमः॥

मंदाकिनी नाम से प्रसिद्ध तथा स्वर्ग प्रदान करने वाली आप आकाश गंगा को बार-बार
नमस्कार है। आप भूतल, आकाश और पाताल तीन मार्गों से जाने वाली और तीनों लोकों की
आभूषण स्वरूपा है, आपको बार-बार नमस्कार है। गंगाद्वार, प्रयाग और गंगा सागर संगम
इन तीन विशुद्ध तीर्थ स्थानों में विराजमान आपको नमस्कार है। क्षमावती आपको नमस्कार
है। गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्निरूप त्रिविध अग्नियों में स्थित रहने वाली
तेजोमयी आपको बार-बार नमस्कार है।
नन्दायै लिंगधारिण्यै सुधाधारात्मने नमः।
नमस्ते विश्वमुख्यायै  रेवत्यै ते नमो नमः॥
बृहत्यै ते नमस्तेऽस्तु लोकधात्र्यै नमोऽस्तु ते।
नमस्ते विश्वमित्रायै नन्दिन्यै ते नमो नमः॥
शिवलिंग धारण करने वाली आपको नमस्कार है। सुधाधारामयी आपको नमस्कार है। जगत में
मुख्य सरितारूप आपको नमस्कार है। रेवतीनक्षत्ररूपा आपको नमस्कार है। बृहती नाम से
प्रसिद्ध आपको नमस्कार है। लोकों को धारण करने वाली आपको नमस्कार है। संपूर्ण विश्व
के लिए मित्ररूपा आपको नमस्कार है। समृद्धि देकर आनंदित करने वाली आपको नमस्कार है।

पृथ्व्यै शिवामृतायै च सुवृषायै नमो नमः।
परापरशताढ्यायै तारायै ते नमो नमः॥
पाशजालनिकृन्तिन्यै अभिन्नायै नमोऽस्तु ते।
शान्तायै च वरिष्ठायै वरदायै नमो नमः॥

हे मां गंगा,आप पृथ्वीरूपा हैं, आपको नमस्कार है। आपका जल कल्याणमय है और आप उत्तम
धर्मस्वरूपा हैं, आपको नमस्कार है, नमस्कार है। बड़े-छोटे सैकड़ों प्राणियों से
सेवित आपको नमस्कार है। सबको तारने वाली आपको नमस्कार है, नमस्कार है। संसार बंधन
का उच्छेद करने वाली अद्वैतरूपा आपको नमस्कार है। आप परम शांत, सर्वश्रेष्ठ तथा
मनोवांछित वर देने वाली हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है।
उग्रायै सुखजग्ध्यै च सञ्जीवन्यै नमोऽस्तु ते।
ब्रह्मिष्ठायै ब्रह्मदायै, दुरितघ्न्यै नमो नमः॥
प्रणतार्तिप्रभञ्जिन्यै जग्मात्रे नमोऽस्तु ते।
सर्वापत्प्रतिपक्षायै मङ्गलायै नमो नमः॥
आप प्रलयकाल में उग्ररूपा हैं, अन्य समय में सदा सुख का भोग करवाने वाली हैं तथा
उत्तम जीवन प्रदान करने वाली हैं, आपको नमस्कार है। आप ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्मज्ञान
देने वाली तथा पापों का नाश करने वाली हैं। आपको बार-बार नमस्कार है। प्रणतजनों की
पीड़ा का नाश करने वाली जगन्माता आपको नमस्कार है। आप समस्त विपत्तियों की
शत्रुभूता तथा सबके लिए मंगलस्वरूपा हैं, आपके लिए बार-बार नमस्कार है।

 शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्ति हरे देवि! नारायणि ! नमोऽस्तु ते॥
निर्लेपायै दुर्गहन्त्र्यै दक्षायै ते नमो नमः।
परापरपरायै च गङ्गे निर्वाणदायिनि॥
  शरणागतों, दीनों तथा पीडि़तों की रक्षा में संलग्न रहने वाली और सबकी पीड़ा दूर
करने वाली देवि नारायणि! आपको नमस्कार है। आप पाप-ताप अथवा अविद्यारूपी मल से
निर्लिप्त, दुर्गम दुख का नाश करने वाली तथा दक्ष हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है।
आप, पर और अपर सबसे परे हैं। मोक्षदायिनी गंगे! आपको नमस्कार है।
गङ्गे ममाऽग्रतो भूया गङ्गे मे तिष्ठ पृष्ठतः।
गङ्गे मे पार्श्वयोरेधि गंङ्गे त्वय्यस्तु मे स्थितिः॥
आदौ त्वमन्ते मध्ये च सर्वं त्वं गाङ्गते शिवे!
त्वमेव मूलप्रकृतिस्त्वं पुमान् पर एव हि।
गङ्गे त्वं परमात्मा च शिवस्तुभ्यं नमः शिवे॥
गंगे! आप मेरे आगे हों, गंगे! आप मेरे पीछे रहें, गंगे! आप मेरे उभयपार्श्व में
स्थित हों तथा गंगे! मेरी आप में ही स्थिति हो। आकाशगामिनी कल्याणमयी गंगे! आदि,
मध्य और अंत में सर्वत्र आप हैं गंगे! आप ही मूलप्रकृति हैं, आप ही परम पुरुष हैं
तथा आप ही परमात्मा शिव हैं। शिवे! आपको नमस्कार है।

     इस स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक पढ़ना, सुनना मन, वाणी और शरीर द्वारा होने वाले
पूर्वोक्त दस प्रकार के पापों से मुक्त कर देता है। यह स्तोत्र जिसके घर लिखकर रखा
हुआ होता है उसे कभी अग्नि, चोर, सर्प आदि का भय नहीं रहता है।


  'ॐ नमो भगवति हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा'

      इस मंत्र का भी गंगा दशहरा के दिन यथाशक्ति पाठ करना चाहिए। इस प्रकार विधिवत
पूजाकर दिनभर उपवास करने वाले के ऊपर बताये गये दस पापों को गंगा जी हर लेती हैं।