Thursday, November 26, 2015

कनक वृंदावन जयपुर

'कनक वृंदावन'राजस्थान की राजधानी जयपुर में स्थित अरावली पर्वत से घिरी घाटी में आमेर दुर्ग को जाने वाले मार्ग पर बसा यह रमणीय स्थान है।जलमहल के उत्तर में भगवान कृष्ण के मंदिर के पास आमेर घाटी से लगी वैली में कनक वृंदावन जयपुर स्थापन के समय विकसित किया गया। यहां आने वाले पर्यटकों को कृष्ण मंदिर, कनक गार्डन और कनक वृंदावन घाटी तीनों ही जगहों को एक-साथ निहारने का आनंद मिलता है। भव्य हवेलीनुमा मंदिर के किनारों पर छतरियां हैं। भीतर विशाल चौक, और गर्भगृह हैं। गर्भग्रह में किया गया काच का बारीक काम मन मोह लेता है। रात्रि में रोशनी में नहाया यह स्थल और भी खूबसूरत लगता है। कनक वृंदावन की खूबसूरत घाटी मन मोह लेती हैं। आर्टीफीशियल झरने, ताल, और ढलवां दालान के साथ कृश्ण और गोपियों की नृत्य करते हुए बहुत सारी मूर्तियां मन मोह लेती हैं।

 
 
 


सूर्य भगवान

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं। सूर्य भगवान के 11 भाई हैं, जिन्हें एकत्रित रूप में आदित्य भी कहा जाता है। यही कारण है कि सूर्य देव को आदित्य के नाम से भी जाना जाता है। सूर्य भगवान के अलावा 11 भाई ( अंश, आर्यमान, भाग, दक्ष, धात्री, मित्र, पुशण, सवित्र, सूर्या, वरुण, वमन, ) सभी कश्यप तथा अदिति की संतान हैं। विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से उनका परिणय हुआ। संज्ञा के दो पुत्र और एक कन्या हुई- श्राद्धदेव वैवस्वतमनु और यमराज तथा यमुना जी। संज्ञा भगवान सूर्य के तेज़ को सहन नहीं कर पाती थी। उसने अपनी छाया उनके पास छोड़ दी और स्वयं घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी। उस छाया से शनिदेव , यमराज व् सावर्णि मनु और तपती नामक कन्या हुई। भगवान सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखा तो उसे अपने यहाँ ले आये। संज्ञा के बड़वा (घोड़ी) रूप से अश्विनीकुमार हुए। भगवान शनि और यमराज को मनुष्य जाति का न्यायाधिकारी माना जाता है। जहां मानव जीवन का सुख तथा दुख भगवान शनि पर निर्भर करता है वहीं दूसरी ओर शनि के छोटे भाई यमराज द्वारा आत्मा की मुक्ति की जाती है। इसके अलावा यमुना भी भगवान सूर्य की संतान हैं। आगे चलकर मनु ही मानव जाति का पहला पूर्वज बने।
विशाल रथ और साथ में उसे चलाने वाले सात घोड़े तथा सारथी अरुण देव, यह किसी भी सूर्य मंदिर में विराजमान सूर्य देव की मूर्ति का वर्णन है। भारत में प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर भगवान सूर्य तथा उनके रथ को काफी अच्छे से दर्शाता है। सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं - गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति।सूर्य के प्रकाश व् इन्द्रधनुष में भी सात रंग होते हैं | ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते हैं। रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें 12 तिल्लियां लगी हुई हैं।यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी 12 तिल्लियां एक वर्ष के 12 महीनों का वर्णन करती हैं।

अक्षय नवमी

इस वर्ष 20.11.2015 को कार्तिक शुक्ल नवमी है जिसे अक्षय नवमी कहते हैं। अक्षय नवमी के दिन ही द्वापर युग का प्रारम्भ माना जाता है। अक्षय नवमी को ही विष्णु भगवान ने कुष्माण्डक दैत्य को मारा था और उसके रोम से कुष्माण्ड की बेल हुई। इसी कारण कुष्माण्ड,जिसे कद्दू या कुम्हड़ा भी कहते हैं , का दान करने से उत्तम फल मिलता है। इसं दिन गन्ध, पुष्प और अक्षतों से कुष्माण्ड का पूजन करना चाहिये।कहते हैं कि इसी दिन देवी कुष्मांडा का प्राकट्य हुआ था | कहते है कि अक्षय नवमी मे जो भी पुण्य और उत्तम कर्म किये जाते हैं उससे प्राप्त पुण्य कभी नष्ट नहीं होते, यही कारण है कि इस नवमी तिथि को अक्षय नवमी कहा गया है. इस दिन प्रात: काल स्नान करके भगवान विष्णु और शिव जी के दर्शन करने से अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है. इस तिथि को पूजा, दान, यज्ञ, तर्पण करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है.इस नवमी को आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने व कराने का बहुत महत्व है यही कारण है कि इसे धातृ नवमी भी कहा जाता है. धातृ आंवले को कहा जाता है. इस तिथि को आंवले के वृक्ष की पूजा एवं इसके नीचे भोजन करने का विधान है |
अक्षय नवमी कथा :
एक बार देवी लक्ष्मी तीर्थाटन पर निकली तो रास्ते में उनकी इच्छा हुई कि भगवान विष्णु और शिवजी की पूजा की जाय. देवी लक्ष्मी उस समय सोचने लगीं कि एक मात्र चीज़ क्या हो सकती है जिसे भगवान विष्णु और शिव जी पसंद करते हों, उसे ही प्रतीक मानकर पूजा की जाय. इस प्रकार काफी विचार करने पर देवी लक्ष्मी को ध्यान आया कि धात्री ही ऐसी है जिसमें तुलसी और विल्व दोनों के गुण हैं फलत: इन्हीं की पूजा करनी चाहिए. देवी लक्ष्मी ने तब धात्री के वृक्ष की पूजा की और उसी वृक्ष के नीचे प्रसाद ग्रहण किया. इस दिन से ही धात्री के वृक्ष की पूजा का प्रचलन हुआ.

गोवर्धन परिक्रमा

गोवर्धन परिक्रमा का प्रारंभ मानसी गंगा में स्नान करके होता है .इस कुंड में स्नान का फल गंगा स्नान से भी अधिक माना जाता है क्योंकि गंगा स्नान मुक्ति दिलाता है पर मानसी गंगा में स्नान से श्री कृष्ण का अनंत प्रेम मिलता है .
कहते है पहले यह झील बहुत विशाल होती थी पर जैसे जैसे गोवर्धन पर्वत श्राप के कारण छोटा होता जा रहा है ,वैसे ही यह झील भी अब छोटा कुंड बन गयी है .

कहते हैं कि नन्द और यशोदा की इच्छा गंगा में स्नान की हुई और उन्होंने कृष्ण से गंगा स्नान को जाने को कहा .कृष्ण के साथ सारे वृजवासी भी गंगा स्नान पर जाने को तैयार हो गए. कृष्ण ने सोचा कि इतने लोगों को लेकर गंगा तक जाना बहुत कठिन होगा .उन्होंने तब नन्द यशोदा को यह बात बताई व् कहा कि काश ! गंगा जी वृज में ही आ जाती . कृष्ण ने मन ही मन गंगा जी से प्रार्थना की और उनके मन से गंगा जी प्रकट हुई व इस कुंड का निर्माण हुआ .इस कुंड में तब नन्द यशोदा ने व सारे वृजवासिओं ने स्नान किया .
कहते है कि एक बार राधाजी व गोपियाँ मानसी गंगा को नौका से पार करना चाहती थी .उनके साथ में माखन के घड़े भी थे .कृष्णजी तब एक नौका पर मल्लाह बन कर आ गए व सभी को नाव में बैठा लिया . यह तय हुआ कि नौका का भाड़ा कुछ माखन होगा . कुछ दूर नाव चलाकर कृष्ण,जो मल्लाह बने थे ,रूक गए और राधा से कहा कि मुझे भूख आई है और मुझे माखन खिलाओ .
फिर कुछ देर में तेज तूफ़ान आ गया व नाव डगमगाने लगी . राधाजी बहुत डर गयी व कृष्ण जी के पास उनकी बाहों में आ गयी . तब उन्हें छिपी हुई बाँसुरी पता चली व मालूम हो गया कि वह मल्लाह कोई और नही पर कृष्ण ही थे और तूफ़ान भी उनकी इच्छा से आया था .

कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा कही जाती है। इस दिन यदि कृत्तिका नक्षत्र हो तो यह 'महाकार्तिकी' होती है, भरणी नक्षत्र होने पर विशेष रूप से फलदायी होती है और रोहिणी नक्षण होने पर इसका महत्व बहुत ही अधिक बढ़ जाता है।
विष्णु भक्तों के लिए यह दिन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन संध्याकाल में भगवान विष्णु का प्रथम अवतार मत्स्यावतार हुआ था। भगवान को यह अवतार वेदों, प्रलय के अंत तक सप्त ऋषियों, अनाजों एवं राजा सत्यव्रत की रक्षा के लिए लेना पड़ा था। इस वर्ष कार्तिक पूर्णिमा 25 नवंबर यानी बुधवार के दिन है।इस दिन सुबह 7.38 तक भरणी व उसके बाद कृतिका नक्षत्र है .
इस तिथि को ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य आदि का दिन भी माना जाता है। इस दिन किए जाने वाले स्नान, दान, हवन, यज्ञ व उपासना का अनंत फल प्राप्त होता है। इस दिन सत्यनारायण की कथा सुनी जाती है।
सायंकाल देवालयों, मंदिरों, चौराहों और पीपल व तुलसी वृक्ष के सम्मुख दीये जलाए जाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्र होकर नदियों में स्नान करते हैं और श्री हरि का स्मरण करते हैं।
यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरुक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। ऐसा भी कहा जाता है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी पर भगवान विष्णु चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन होते हैं तो फिर वे कार्तिक शुक्ल एकादशी को उठते हैं और पूर्णिमा से वे कार्यरत हो जाते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा के दिन दान का विशेष महत्व है। इस दिन जो भी दान किया जाता है उसका कई गुना पुण्य प्राप्त होता है। इस दिन अनाज , धन व वस्त्र दान का विशेष महत्व है।
सभी सुखों व ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली कार्तिक पूर्णिमा को की गई पूजा और व्रत के प्रताप से हम ईश्वर के और करीब पहुंचते हैं। इस दिन भगवान सत्यनारायण की पूजा से प्रतिष्ठा प्राप्ति होती है, शिवजी के अभिषेक से स्वास्थ्य और आयु में बढ़ोतरी, दीपदान से भय से मुक्ति और सूर्य आराधना से लोकप्रियता और मान सम्मान की प्राप्ति होती है।
कृष्ण ने किया स्नान-दीपदान
कार्तिक पूर्णिमा पर उत्तरप्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ में स्नान का विशेष महत्व है। मान्यता है कि महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद अपने परिजनों के शव देखकर युधिष्ठिर बहुत शोकाकुल हो उठे। पाण्डवों को शोक से निकालने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गढ़मुक्तेश्वर में आकर मृत आत्माओं की शांति के लिए यज्ञ और दीपदान किया। तभी से इस जगह पर स्नान और दीपदान की परंपरा शुरू हुई।
पूर्णिमा पर शिव हुए त्रिपुरारी
कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नाम के असुर का अंत किया था और भगवान विष्णु ने उन्हें त्रिपुरारी कहा।
इस दिन कृतिका में शिव मंदिर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति को ज्ञान और धन की प्राप्ति होती है। इस दिन चंद्रमा उदय के समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिवजी प्रसन्न होते हैं। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान का फल मिलता है।
सिख संप्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है क्योंकि इस दिन सिख संप्रदाय के संस्थापक गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ था। नानकदेव सिखों के पहले गुरु हैं। इस दिन सिख संप्रदाय के अनुयायी सुबह गुरुद्वारे जाकर गुरुवाणी सुनते हैं। इसे गुरु पर्व भी कहा जाता है।

पूजा में नारियल

भारत में देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने नारियल फोड़ने का रिवाज काफी पुराना है। हिंदू धर्म के ज्यादातर धार्मिक संस्कारों में नारियल का विशेष महत्व है।चाहे शादी हो, त्यौहार हो या फिर कोई अन्य महत्वपूर्ण पूजा, पूजा की सामग्री में नारियल आवश्यक रूप से रहता है। नारियल फोड़ने का मतलब है कि आप अपने अहंकार और स्वयं को भगवान के सामने समर्पित कर रहे हैं। माना जाता है कि ऐसा करने पर अज्ञानता और अहंकार का कठोर कवच टूट जाता है और ये आत्मा की शुद्धता और ज्ञान का द्वार खोलता है। जिसे नारियल के सफेद हिस्से के रूप में देखा जाता है।
एक समय हिंदू धर्म में मनुष्य और जानवरों की बलि सामान्य बात थी। तभी आदि शंकराचार्य ने इस अमानवीय परंपरा को तोड़ा और मनुष्य के स्थान पर नारियल चढ़ाने की शुरुआत की।
नारियल कई तरह से मनुष्य की खोपड़ी से मेल खाता है। नारियल की जटा की तुलना मनुष्य के बालों से, कठोर कवच की तुलना मनुष्य की खोपड़ी से और नारियल पानी की तुलना खून से की जा सकती है। साथ ही नारियल के गूदे की तुलना मनुष्य के दिमाग से की जा सकती है। नारियल में दो छेद होते हैं, जिन्हें हम आंख मानते हैं तथा उससे जो रोयें निकलते हैं उसे केश माना जाता है।