Thursday, February 25, 2016

उज्जैन के 84 महादेव- भाग 23




 उज्जैन के 84 महादेव में 34 वें स्थान पर कथंडेश्वर महादेव आते हैं |
वतस्ता नदी के तट पर पांडव नामक एक ब्राम्हण निवास करता था। जातिवालों व उसकी पत्नी ने उसका त्याग कर दिया था। ब्राम्हण के पास प्रेमधारिणी कथा रहती थी। पांडव ने एक गुफा में पुत्र कामना से शिव की तपस्या की। शिव ने प्रसन्न होकर उसे पुत्र प्रदान किया । ब्राम्हण ने ऋषियों की उपस्थिति में पुत्र का यज्ञो पवित संस्कार कराया ओर ऋषियों को उसे दीर्घायु होने का आशीर्वाद देने के लिए कहा। ऋषि वहां से बिना आशीर्वाद दिए चले गए। इस पर ब्राम्हण विलाप करने लगा ओर कहने लगा कि शिव ने उसे पुत्र प्रदान किया है वह अल्पायु केसे हो सकता है। पिता को विलाप करते देख बालक हर्षवर्धन ने संकल्प किया कि वह महेश्वर भगवान रूद्र का पूजन करेगा ओर उनसे चिरायु होने का वरदान लेकर यमराज पर विजय प्राप्त करेगा। हर्षवर्धन ने महाकाल वन में भगवान रूद्र का पूजन कर उन्हे प्रसन्न किया ओर चिरायु होने ओर अंतकाल में शिवगण होने का वरदान प्राप्त किया। हर्षवर्धन के नाम से कथंडेश्वर के नाम से शिवलिंग विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो मनुष्य इस शिवलिंग का दर्शन कर पूजन करता है वह चिरायु होता है।

उज्जैन के 84 महादेव- भाग 22

84 महादेव : श्री आनंदेश्वर महादेव (33)


पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में अनमित्र नाम के राजा थे। वे धर्मात्मा, पराक्रमी एवं सूर्य के समान तेजस्वी थे। उनकी रानी का नाम गिरिभद्रा था जो कि अति सुन्दर एवं राजा की प्रिय थी। राजा को आनंद नाम का एक पुत्र हुआ। पैदा होते ही वह अपनी माता की गोद में हंसने लगा। माता ने आश्चर्यचकित हो उससे हंसने का कारण पूछा। उसने कहा उसे पूर्वजन्म का स्मरण है, आगे उसने कहा कि यह सारी सृष्टि स्वार्थ की है। आगे बालक कहता है कि एक बिल्ली रूपी राक्षसी अपने स्वार्थ के लिए मुझे उठा कर ले जाना चाहती है। और आप भी मेरा पालन-पोषण कर मुझसे कुछ अपेक्षाएं रखती हैं। आप स्वयं भी स्वार्थी हैं। बालक के ऐसे वचन सुन माता गिरिभद्रा नाराज हो सूतिका गृह से बाहर चली गई। तब वह राक्षसी ने उस बालक को उठाकर विक्रांत नामक राजा की रानी हैमिनी के शयन-गृह में रख दिया। राजा विक्रांत उस बालक को अपना बालक जान कर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसका नाम आनंद रख दिया। इसके साथ ही राक्षसी ने राजा विक्रांत के असली पुत्र को ले जाकर बोध नामक ब्राह्मण के घर पर रख दिया। ब्राह्मण ने उसका नाम चैत्र रथ रखा।
इधर विक्रांत ने पुत्र आनंद का यज्ञोपवीत संस्कार किया। तब गुरु ने उससे माता को नमस्कार करने को कहा। प्रत्यत्तर में आनंद ने कहा कि, मैं कौन सी माता को नमस्कार करूं? जन्म देने वाली या पालन करने वाली? गुरु ने कहा राजा विक्रांत की पत्नी हैमिनी तुम्हें जन्म देने वाली माता है, उसे नमस्कार करो। तब आनंद ने कहा, मुझे जन्म देने वाली मां गिरिभद्रा है। माता हैमिनी तो चैत्र की मां है जो कि बोध ब्राह्मण के घर पर है। आश्चर्यचकित हो सभी ने उससे वृत्तांत सुनाने को कहा। तब आनंद ने बताया कि दुष्ट राक्षसी ने पुत्रों को बदल दिया था। अतः मेरी दो माताएं हो गई है। इस दुनिया में मोह ही सारी समस्याओं की जड़ है अतः मैं अब सारी मोह माया त्याग कर तपस्या करूंगा। अतः आप अपने पुत्र चैत्र को ले आइए। आनंद की बात सुन राजा ब्राह्मण बोध से अपने पुत्र चैत्र को ले आया और उसे अपने उत्तराधिकार का स्वामी बना दिया। राजा ने आनंद को ससम्मान विदा किया और आनंद तपस्या करने महाकाल वन आया। उसने इंद्रेश्वर के पश्चिम में स्थित लिंग की आराधना की। उसकी तपस्या के फलस्वरूप भगवान शिवजी प्रसन्न हुए और उसे आशीर्वाद दिया कि तुम यशस्वी छटे मनु बनोगे। आनंद के द्वारा पूजित होने से वह लिंग आनंदेश्वर कहलाया।
 
दर्शन लाभ
मान्यतानुसार के दर्शन करने से पुत्र लाभ होता है। श्री आनंदेश्वर महादेव का मंदिर चक्रतीर्थ में विद्युत शवदाहगृह के पास स्थित है।

उज्जैन के 84 महादेव -भाग 21

84 महादेव : श्री पत्त्नेश्वर महादेव (32)


की महिमा का गान स्वयं भगवान शिव एवं महर्षि नारद द्वारा किया गया है जो स्कन्द पुराण में वर्णित है। एक समय भगवान शिव और माता पार्वती कैलाश पर्वत की एक गुफा में विहार कर रहे थे। उस समय पार्वती जी ने कहा कि प्रभु,  कैलाश पर्वत जहां स्फटिक मणि लगी हुई है, जो अनेक प्रकार के पुष्पों और केवे के वृक्ष से सुशोभित है, जहां सिद्ध, गन्धर्व, चारण, किन्नर आदि उत्तम गायन करते हैं, जिसे पुण्य लोक की उपमा प्राप्त है, ऐसा मनोरम कैलाश पर्वत आपने क्यों छोड़ दिया? और ऐसा रमणीय कैलाश पर्वत छोड़ कर आपने हिंसक पशुओं से युक्त महाकाल वन में क्यों निवास किया?
प्रत्युत्तर में भगवन शंकर बोले- मुझे महाकाल वन और अवंतिकापुरी स्वर्ग से भी अधिक सुखदायी प्रतीत होती है। यहां पांचों गुण- श्मशान, शक्तिपीठ, तीर्थक्षेत्र, वन और उशर है। यहां गीत, वाद्य, चातुर्य की इतनी स्पर्धा है कि स्वर्ग लोक वाले भी उस ज्ञान को सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं। ऐसा स्थान तीनों लोकों में नहीं है।
 
तभी वहां नारद मुनि आए। उन्हें देख कर महादेव बोले कि देवर्षि, कौन-कौन से तीर्थों का भ्रमण करके आ रहे हैं? कौन सा स्थान आपको सबसे ज्यादा रमणीय लगा? उत्तर देते हुए नारद मुनि कहने लगे, मैंने कई तीर्थों एवं मंदिरों की यात्रा की, उनमें अत्यधिक मनोहर, अत्याधिक विचित्र महाकाल वन है। वहां कामना पूर्ण होने के साथ उत्तम सुख की प्राप्ति होती है। वहां सदैव पुष्पों की बहार रहती है एवं सुख प्रदान करने वाली पवन बहती है। वहां मधुर संगीत गुंजायमान है। उरध लोक, अधो लोक, सप्त लोक के लोग वहां पुण्य प्राप्ति के लिए निवास करते हैं। वहां स्वयं भगवान शिव पत्त्नेश्वर के रूप में विराजमान है।
 
दर्शन लाभ:
मान्यतानुसार श्री पत्त्नेश्वर महादेव के दर्शन करने से मृत्यु, बुढ़ापा, रोग आदि भय एवं व्याधियां समाप्त हो जाती है। श्रवण मास में यहां दर्शन का विशेष महत्व है। श्री पत्त्नेश्वर महादेव खिलचीपुर में पीलिया खाल के पूल पर स्थित है।

Monday, February 22, 2016

उज्जैन के 84 महादेव- भाग 20

84 महादेव : श्री खंडेश्वर महादेव (31)


श्री महादेव का मंदिर शिव माहात्म्य के मूल्यों को दर्शाता है। माना जाता है कि श्री खंडेश्वर महादेव के दर्शन से विष्णु, ब्रह्मा, इंद्र, कुबेर, अग्नि आदि देवताओं ने भी सिद्धि प्राप्त की थी।
पौराणिक कथाओं के अनुसार त्रेतायुग में भद्राश्व नाम के राजा थे। उनकी कई रानियां थी। उन रानियों में सबसे अद्भुत सौंदर्य रानी कान्तिमती का था। एक बार उनके यहां महामुनि अगस्त्य आए और बोले कि वे वहां सात दिन निवास करेंगे। राजा ने उनका आदर सत्कार किया और उनके वास को सौभाग्य माना। कान्तिमती को देख सिद्धियों से युक्त अगस्त्य ऋषि कुछ पुरानी रहस्यमयी बातों को जान कर बेहद प्रसन्न हुए और खुशी से नृत्य करने लगे। तब राजा ने आश्चर्यचकित हो महामुनि से पूछा कि ऋषिवर आपको कौन सी प्रसन्नता हो रही है जो आप नृत्य कर रहे हैं? इस पर मुनि बोले कि तुम सब मूर्ख हो जो मेरा अभिप्राय नहीं समझ रहे। तब राजा भद्राश्व ने हाथ जोड़ कर मुनि से निवेदन किया कि कृपया इस रहस्य को उजागर करें।
 
तब मुनि ने कहा कि राजन, पूर्वजन्म में विदिशा नाम की जगह में वैश्य हरिदत्त के घर पर आपकी यह सुन्दर पत्नी कान्तिमती दासी का कार्य करती थी और आप इसके पति थे एवं नौकर का कार्य करते थे। वह वैश्य जिनके यहां तुम दोनों काम करते थे वह महादेव का परम भक्त था। वह नित्य ही महाकाल सेवा करता था। एक बार वह वैश्य महाकाल वन आया और महादेव का पूजन अर्चन किया।
 
कुछ समय प्राप्त आप दोनों की मृत्यु हो गई लेकिन उस वैश्य की भक्ति के प्रभाव से आपको इस जन्म में राजस्व प्राप्त हुआ है। मुनि की बात सुन कर राजा महाकाल वन पहुंचा और वहां पहुँच कर उसने एक दिव्य लिंग खंडेश्वर का पूजन अर्चन किया। उसके पूजन अर्चन से प्रसन्न हो महादेव ने निष्कण्टक राज्य भोग का आशीर्वाद दिया।
 
मान्यतानुसार श्री खंडेश्वर महादेव के दर्शन करने से अद्भुत सिद्धि प्राप्त होती है एवं पूर्वजन्म के पापों का नाश होता है। ऐसा माना जाता है कि श्रावण मास में यहां दर्शन करने का महत्व कई गुना बढ़ जाता है। श्री खंडेश्वर महादेव का मंदिर आगर रोड पर खिलचीपुर गांव में स्थित है।

उज्जैन के 84 महादेव -भाग 19

84 महादेव : श्री च्यवनेश्वर महादेव(30)


पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन कल में महर्षि भृगु के पुत्र च्यवन थे जिन्होंने पृथ्वी पर कठोर तप किया। वितस्ता नाम की नदी के किनारे वर्षों वे तपस्या में बैठे रहे। तपस्या में लीन रहने के कारण उनके पूरे शरीर को धूल मिट्टी ने ढंक लिया और आस-पास बैल लग गई। एक समय राजा शर्याति अपने परिवार के साथ वन विहार करते हुए वहां पहुंचे। राजा की कन्या सुकन्या अपनी सखियों के साथ च्यवन ऋषि के तप स्थल पहुंची। वहां धूल मिटटी से बनी बांबी के बीच में दो चमकते हुए नेत्र दिखाई दिए। कौतुहलवश सुकन्या ने उन चमकते नेत्रों में कांटे चुभा दिए जिससे नेत्रों में से रुधिर निकलता हुआ दिखाई दिया। इस कृत्य से ऋषि च्यवन अत्यधिक दुखी हुए जिससे राजा शर्याति की सेना में बीमारियां फैलना शुरू हो गई। सारी बातें पता चलने पर शर्याति को ज्ञात हुआ कि उनकी बेटी सुकन्या ने महर्षि च्यवन की आंखों में शूल चुभा दिए हैं। तब राजा शर्याति महर्षि च्यवन के पास गए और अपनी कन्या के दुष्कृत्य के लिए क्षमा याचना की। उन्होंने सुकन्या को महर्षि च्यवन को पत्नी के रूप में सौंप दिया। महर्षि भी सुकन्या को पत्नी के रूप में पाकर प्रसन्न हुए जिसके फलस्वरूप शर्याति के राज्य में होने वाली बीमारियां रुक गईं।
कुछ समय बाद च्यवन के आश्रम में दो अश्विनीकुमार आए। वहां वे सुकन्या को देख मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने सुकन्या से पूछा कि तुम कौन हो? सुकन्या ने कहा कि वह राजा शर्याति की पुत्री एवं महर्षि च्यवन की पत्नी है। तब अश्विनीकुमार ने सुकन्या से कहा कि तुम वृद्ध पति की सेवा क्यों कर रही हो? हम दोनों में से किसी एक को अपना पति स्वीकार करो। सुकन्या मना करके वहां से जाने लगी। तभी अश्विनीकुमार ने कहा कि हम देवताओं के वैद्य है। हम तुम्हारे पति को यौवन संपन्न कर सकते हैं अगर तुम उन्हें यहां ले आओ। सुकन्या ने जाकर यह बात महर्षि च्यवन से कही। महर्षि इस बात को मान अश्विनीकुमार के पास पहुंचे। तब अश्विनीकुमार ने कहा कि आप हमारे साथ इस जल में स्नान के लिए उतरिये। फिर दोनों अश्विनीकुमार के साथ महर्षि ने भी जल में प्रवेश किया। कुछ समय बाद जल से बाहर आने पर वो तीनों युवावस्था से संपन्न एक रूप हो गए। उत्तम रूप एवं युवावस्था पाकर महर्षि भी अत्यंत प्रसन्न हुए एवं अश्विनीकुमार से बोले कि तुमने मुझ वृद्ध को युवा बना दिया, मैं तुम दोनों को इंद्र के दरबार में अमृत पान कराऊंगा। यह बात सुनकर वे दोनों अश्विनीकुमार स्वर्ग चले गए और महर्षि ने उनके अमृत पान के लिए यज्ञ आरम्भ किया। इंद्र भगवान को यह निंदनीय लगा। उन्होंने महर्षि से कहा कि में दारुण वज्र से तुम्हारा नाश कर दूंगा। इंद्र के ऐसे वचनों से भयभीत हो महर्षि महाकाल वन पहुंचे और वहां जाकर एक दिव्य लिंग का उन्होंने पूजन अर्चन किया। उनके पूजन से भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने महर्षि च्यवन को इंद्र के वज्र प्रहार से अभय देने का आशीर्वाद दिया। तभी से यह लिंग च्यवनेशर कहलाया।
 
दर्शन लाभ
मान्यतानुसार के दर्शन से पापों का नाश होता है एवं भय आदि दूर होते हैं। ऐसा माना जाता है कि इनके दर्शन करने से शिवलोक प्राप्त होता है। श्री च्यवनेश्वर महादेव का मंदिर इंदिरा नगर मार्ग में ईदगाह के पास स्थित है।

Sunday, February 21, 2016

उज्जैन के 84 महादेव -भाग 18

84 महादेव : श्री रामेश्वर महादेव (29)


की कथा महाकाल वन की महत्ता दर्शाती है। परशुरामजी ने कई तीर्थों के दर्शन एवं तप किए लेकिन उनका ब्रह्म  हत्या दोष निवारण महाकाल वन में स्थित श्री रामेश्वर महादेव के पूजन से ही हुआ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार त्रेता युग में शास्त्रों को धारण करने वाले सर्वगुण संपन्न परशुराम हुए। वे विष्णु के अवतार थे जिनका जन्म भृगु ऋषि के शाप के कारण हुआ था। उनकी माता रेणुका थी और पिता जमदग्नि थे। परशुराम के चार बड़े भाई थे लेकिन सभी में परशुराम सबसे अधिक योग्य एवं तेजस्वी थे। एक बार जमदग्नि ने रेणुका को हवन हेतु गंगा तट पर जल लाने के लिए भेजा। गंगा तट पर गंधर्वराज चित्ररथ अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे जिन्हें देख रेणुका आसक्त हो गई और कुछ देर तक वहीँ रुक गई। इस कारण हुए विलंब के फलस्वरूप हवन काल व्यतीत हो गया। इससे जमदग्नि बेहद क्रोधित हुए और उन्होंने रेणुका के इस कृत्य को आर्य विरोधी आचरण माना। क्रुद्ध हो उन्होंने अपने सभी पुत्रों को रेणुका का वध करने का आदेश दे डाला। लेकिन मातृत्व मोहवश कोई पुत्र ऐसा ना कर सका। पुत्रों को आज्ञा पालन न करते देख जमदग्नि ने उन्हें विचार शक्ति नष्ट होने का श्राप दे दिया।
 
 
तभी पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता रेणुका का शिरोच्छेद कर दिया। परशुराम की कर्तव्यपरायणता देख जमदग्नि बेहद प्रसन्न हुए और परशुराम से वरदान मांगने को कहा। वरदान स्वरुप पशुराम ने अपनी माता रेणुका को पुनर्जीवित करने एवं भाइयों को पुनः विचारशील करने की प्रार्थना की। वरदान में भी स्वयं के लिए कुछ ना मांग माता एवं भाइयों के लिए की गई प्रार्थना से जमदग्नि और अत्यधिक प्रसन्न हुए एवं उन्होंने परशुराम द्वारा मांगे गए वरदानों को प्रदान करने के साथ कहा- कि इस संसार में तुम्हें कोई परास्त नहीं कर पाएगा, तुम अजेय रहोगे। तुम अग्नि से उत्पन्न होने वाले इस दृढ़ परशु को ग्रहण करो। इसी तीक्ष्ण धार वाले परशु से तुम विख्यात होंगे। वरदान के फलस्वरूप माता रेणुका पुनर्जीवित हो गई पर परशुराम पर ब्रह्म ह्त्या का दोष चढ़ गया।
 
कुछ समय के बाद हैहयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन राजा हुआ। वह सहस्त्रबाहु था। उसने कामधेनु के लिए जमदग्नि ऋषि को मार डाला। पिता के वध से क्रुद्ध हो परशुराम ने परशु से अर्जुन की हजार भुजाएं काट डाली। फिर परशु ने उसकी सेना का भी नाश कर डाला। इसी अपराध को लेकर उन्होंने क्षत्रियों का 21 बार पृथ्वी से नामोंनिशान मिटा दिया। फिर ब्रह्म हत्या पाप के निवारण हेतु परशुराम ने अश्वमेध यज्ञ किया और कश्यप मुनि को पृथ्वी का दान कर दिया। इसके साथ ही अश्व, रथ, सुवर्ण आदि नाना प्रकार के दान किए। लेकिन फिर भी ब्रह्म हत्या का पाप दूर नहीं हुआ। फिर वे रैवत पर्वत पर तपस्या करने चले गए जहां उन्होंने घोर तपस्या की। फिर भी दोष दूर नहीं हुआ तो वे हिमालय पर्वत तथा बद्रिकाश्रम गए। उसके बाद नर्मदा, चन्द्रभागा, गया, कुरुक्षेत्र, नैमीवर, पुष्कर, प्रयाग, केदारेश्वर आदि तीर्थों के दर्शन कर स्नान किया। फिर भी उनकी ब्रह्म हत्या के दोष का निवारण नहीं हुआ। तब वे अत्यंत दुखी हुए एवं उनका दृष्टिकोण नकारात्मक होने लगा। वे सोचने लगे कि शास्त्रों में जो तीर्थ, दान इत्यादि का महात्मय बताया गया है वह सब मिथ्या है। तभी वहां नारद मुनि पहुंचे। परशुराम नारद मुनि से बोले कि मैंने पिता की आज्ञा पर माता का वध किया, क्षत्रियों का विनाश किया जिसके फलस्वरूप मुझे ब्रह्म हत्या का दोष लगा। इस दोष के निवारण के लिए मैंने अश्वमेध यज्ञ किया, पर्वतों पर तप किया, कई तीर्थों में स्नान किया लेकिन फिर भी मेरी ब्रह्म हत्या दूर नहीं हो रही है। तब नारदजी बोले कि आप कृपया महाकाल वन में जाइए। वहां जटेश्वर के पास स्थित दिव्य लिंग का पूजन अर्चन करें। उससे आपकी ब्रह्महत्या दूर हो जाएगी। नारदमुनि के कथनानुसार परशुराम महाकाल वन आए और नारदमुनि द्वारा बताए गए दिव्य लिंग का पूजन अर्चन किया। उनके श्रद्धापूर्वक किए गए पूजन अर्चन से भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त कर दिया।
 
दर्शन लाभ:
मान्यतानुसार श्री रामेश्वर महादेव के दर्शन करने से दोषों का नाश होता है। ऐसा माना जाता है कि यहां दर्शन करने पर विजयश्री प्राप्त होती है। श्री रामेश्वर महादेव का मंदिर सती दरवाजे के पास रामेश्वर गली में स्थित है।

उज्जैन के 84 महादेव-भाग 17

84 महादेव : श्री जटेश्वर महादेव(28)

की कथा राजा वीरधन्वा और उनके द्वारा वन में किए गए दोषों के निवारण से जुडी हुई है। प्रस्तुत कथा ऋषि-मुनियों की महत्ता दर्शाती है। मुनि द्वारा बताए गए मार्ग पर ही राजा को शांति प्राप्त हो सकी।
 
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार वीरधन्वा नाम के एक राजा थे। वे धर्मस्वी, यशस्वी तथा पृथ्वी पर विख्यात थे। एक बार वे शिकार करने के लिए वन में गए। वहां उन्होंने मृग रूपी आकृति देख बाण चला दिए। जहां उन्होंने बाण चलाए वे वास्तविकता में संवर्त ब्राम्हण के पांच पुत्र थे जो मृगरूप में विचर रहे थे। उनका मृग रूप उन्हें मिले एक शाप की कथा में निहित है। उस कथा के अनुसार एक बार उन ब्राम्हण पुत्रों द्वारा हिरन के पांच छोटे बच्चों का वध हो गया था। घर जाकर बालकों ने अपने पिता को सारा वृत्तांत सुनाया और प्रायश्चित का मार्ग पूछा। तभी वहां भृगु ऋषि, अत्रि ऋषि और अभी ऋषि आ गए। सारी बातें जानने पर वे बोले कि प्रायश्चित हेतु तुम पांचों पांच वर्ष तक मृग चर्म ओढ़ कर वन में रहो। इस प्रकार वे पांचों वन में भटक रहे थे और एक वर्ष के पश्चात राजा वीरधन्वा ने उन्हें मृग समझ मार डाला।
जब राजा को यह ज्ञात हुआ कि वे ब्राह्मण पुत्र थे तो वे अत्यंत दुखी हुए। भय से कांपते हुए वे देवरात मुनि के पास पहुंचे एवं उन्हें सारी बातें कहीं। देवरात मुनि ने उन्हें शांत रहने को कहा और कहा कि भगवान जनार्दन की कृपा से तुम्हारा पाप दूर हो जाएगा। मुनि की सामान्य सी प्रतिक्रिया सुन कर राजा को क्रोध आ गया और उसने तलवार से मुनि की हत्या कर दी। इस हत्या के बाद वे और ज्यादा क्रोधित हुए, संतुलन खोते हुए वन में भटकने लगे और वहीँ उन्होंने गालव ऋषि की कपिल गाय का भी वध कर दिया। जड़ीभूत बुद्धि से वे दिशाहीन होकर वन में भटकते रहे।
 
राजा को वन में भटकते हुए एक बार मुनि वामदेव ने देखा। राजा को देखते ही वे सारा अतीत जान गए। राजा उनसे कहने लगा कि उसने ब्राह्मण हत्या की है, गौ हत्या की है, वह इस दोष से अत्यधिक दुखी है। तब मुनि राजा से बोले कि आपकी बुद्धि पूर्व काल के कुछ कर्मों के कारण जड़ हुई है और इसी वजह से आपको ब्रह्म हत्या का दोष लगा है। आप तुरंत महाकाल वन जाइए। वहां अनरकेश्वर के उत्तर में स्थित दिव्य लिंग का दर्शन कीजिए। उनके दर्शन करने से ही आपका उद्धार हो सकता है। मुनि के कहे अनुसार राजा महाकाल वन पहुंचे और वहां पहुंच कर उन्होंने मुनि वामदेव द्वारा बताए गए शिवलिंग का पूजन अर्चन किया। उनकी पूजा के फलस्वरूप उस लिंग में से जटाधारी शिव प्रकट हुए और राजा को ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त कर उनकी जड़ीभूत बुद्धि निर्मल करने का वरदान दिया। तभी से वह लिंग जटेश्वर कहलाया।
 
दर्शन लाभ:
मान्यतानुसार श्री जटेश्वर महादेव के दर्शन करने से पाप-दोष नष्ट होते हैं। भ्रष्ट बुद्धि वाले मनुष्य की स्थिति सुधर जाती है। ऐसा कहा जाता है कि श्राद्ध के समय जो जटेश्वर की इस कथा को पढ़ता है उसका श्राद्ध पितरों को प्रसन्न करता है। उज्जयिनी स्थित चौरासी महादेव में से एक श्री जटेश्वर महादेव गया कोठा में रावण दहन के स्थान पर स्थित है।
 

उज्जैन के 84 महादेव-भाग 16

84 महादेव : श्री अनरकेश्वर महादेव (27)

प्राचीन समय में एक राजा थे निमि। अपने पुण्य कर्मो के कारण यमराज के दूत उन्हे विमान में लेकर स्वर्ग जा रहे थे। यमदूत उन्हें  दक्षिण मार्ग से नरक के सामने से लेकर जा रहा था। राजा निमि ने वहां करोड़ों लोगों को अपने पापों का फल भुगतते देखा, जिससे उन्हें पीड़ा हो रही थी। उन्होंने यमदूत से पूछा कि मुझे किस कर्म के कारण नरक के सामने से गुजरना पड़ा है, दूत ने कहा कि आपने श्राद्ध के दिन दक्षिणा नहीं दी उसी कर्म के कारण आपको यह फल मिल रहा है। इसके बाद राजा ने पूछा मुझे किस कर्म के कारण स्वर्ग की प्राप्ति हो रही है। इस पर यमदूत ने कहा कि आपने महाकाल वन में अश्विन में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भगवान मनकेश्वर का दर्शन-पूजन किया था, जिसके फलस्वरूप आपको स्वर्ग की प्राप्ति हुई है। 

जैसे ही वे लोग आगे चलने लगे नरक के पापियों ने कहा कि हे राजन आप थोड़ी देर ओर रूकें, आपके शरीर को स्पर्श कर आने वाली वायु पीड़ा में राहत दे रही है। राजा निमि ने दूत से कहा कि वे अब स्वर्ग नहीं जाएंगे ओर यही खड़े रहकर पापियों को सुख देगे। इस पर इंद्र वहां उपस्थित हुए और राजा से स्वर्ग चलने का विनय किया। राजा ने मना किया ओर पूछा कि ये पापी अपने कर्म फल से कैसे मुक्त होंगे? तब इंद्र ने कहा कि यदि आप अपने भगवान के दर्शन का पुण्य फल इन्हें दान कर दें तो सभी मुक्त हो जाएंगे। राजा निमि ने अपना पुण्य फल सभी पापियों  को दान कर दिया, जिससे सभी पापी अपने पाप से मुक्त हो गए। मान्यता है कि अनरकेश्वर के दर्शन मात्र से नरक से मुक्ति मिलती है। अश्विन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को पूजन करने से मनुष्य के सौ जन्मों के पाप नष्ट होते हैं  ओर वह स्वर्ग के सुखों का भोग करता है।

Thursday, February 18, 2016

उज्जैन के 84 महादेव -भाग 14

84 महादेव : श्री मुक्तेश्वर महादेव (25)

पुराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में मुक्ति नामक एक जितेन्द्रिय ब्राह्मण थे। मुक्ति की कामना से वे नित तपस्या में लीन रहते थे। तपस्या में रत हुए उन्हें 13 साल हो गए। फिर एक दिन वे स्नान करने के लिए महाकाल वन स्थित पवित्र क्षिप्रा नदी पर गए। क्षिप्रा में उन्होंने स्नान किया फिर वे वहीँ नदी के तट पर जप करने लगे। तभी उन्होंने वहां एक भीषण देह वाले मनुष्य को आते हुए देखा जिसके हाथ में धनुष बाण था। वहां पहुंच कर वह व्यक्ति ब्राह्मण से बोला कि वह उन्हें मारने आया है। उसकी बात सुन ब्राह्मण भयभीत हुए एवं नारायण भगवान का ध्यान लगा कर बैठ गए। ब्राह्मण के तप के भव्य प्रताप से उस व्यक्ति ने धनुष बाण फैक दिए और बोला कि – हे ब्राह्मण, आपके तप के प्रभाव से मेरी बुद्धि निर्मल हो गई है। मैंने बहुत दुष्कर्म किए हैं लेकिन अब मैं आपके साथ तप कर मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूं। ब्राह्मण के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर वह व्यक्ति वहीं बैठ कर भगवान का ध्यान करने लगा। उसके तप के फलस्वरूप वह मुक्ति को प्राप्त हो गया। यह देख ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए और सोचने लगे कि उनको इतने वर्षों के तप बाद भी मुक्ति नहीं मिली। ऐसे विचार कर ब्राह्मण नदी के मध्य जल में जाकर जप करने लगे।
 
 
कुछ दिनों तक वे ऐसे ही जप करने लगे फिर एक बाघ वहां पर आया जो जल में खड़े ब्राह्मण को खाना चाहता था। तब ब्राह्मण ने ‘नमो नारायण’ का उच्चारण शुरू कर दिया। ब्राह्मण के मुख से निकले नमो नारायण के उच्चारण सुनते ही वह बाघ अपनी देह त्याग उत्तम पुरुष के रूप में परिवर्तित हो गया। ब्राह्मण के पूछने पर उसने बताया कि पूर्वजन्म में वह दीर्घबाहु नाम का प्रतापी राजा था और वह समस्त वेद वेदांत में पारंगत था। इस पर वह अभिमान करता था और ब्राह्मणों को कुछ नही समझता था। ब्राह्मणों के अनादर करने पर उन्होंने क्रोधित हो उसे शाप दिया कि वह वह बाघ योनि को प्राप्त हो कष्ट भोगेगा। तब उसने ब्राह्मणों की स्तुति की एवं कहा- हे ब्राह्मण श्रेष्ठजन, में आप सभी का तेज जान गया हूं। आप ही में से अगस्त्य मुनि ने समुद्र को जब अभिमान हुआ तो उसे पीकर खारा कर दिया था। उसका जल पीने योग्य नहीं रहा। ब्राह्मणों के शाप से ही वातापि राक्षस नष्ट हुआ। भृगु ऋषि के क्रोध से सर्व भक्षी अग्नि हुआ। गौतम मुनि के शाप से इंद्र सहस्त्रयोनि हुए। ब्राह्मणों के शाप से विष्णु को भी दस अवतार लेने पड़े। च्यवन मुनि की कृपा से देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों को सोमरस पीने को मिला। ब्राह्मणों के पराक्रम के ऐसे वचनों को कहता हुआ वह बारम्बार ब्राह्मणों से क्षमा याचना करने लगा।
 
उसकी प्रार्थना से ब्राह्मण प्रसन्न हुए और बोले कि जब तुम क्षिप्रा नदी जाओगे और वहां जल में खड़े किसी ब्राह्मण के मुख से नमो नारायण कहते हुए सुनोगे तो तुम शाप से मुक्त हो बाघ योनि से भी मुक्त हो जाओगे। इस प्रकार ब्राह्मण के मुख से भगवान नारायण का नाम सुनकर उसकी मुक्ति हुई। तब ब्राह्मण उस राजा से बोले कि मेरी मुक्ति कैसे होगी? मुझे तप करते हुए वर्षों हो गए लेकिन अब तक मुझे मुक्ति का मार्ग नहीं मिला। तब उस राजा ने कहा कि आप कृपया महाकाल वन में स्थित मुक्तिलिंग के दर्शन करें। आगे वह बोला, मुक्तिलिंग की महिमा बताने वाले को भी मुक्ति प्राप्त होती है। तब राजा और ब्राह्मण दोनों महाकाल वन स्थित दिव्य मुक्तिलिंग के पास आए और उनके दर्शन मात्र से वे दोनों उस लिंग में समा गए जिससे उन्हें मुक्ति प्राप्त हुई।
 
दर्शन लाभ:
मान्यतानुसार श्री मुक्तेश्वर महादेव के दर्शन करने से मुक्ति प्राप्त होती है। इस लिंग की पूजा ऋषि-मुनि-देवता आदि भी करते हैं। उज्जयिनी स्थित चौरासी महादेव में से एक श्री मुक्तेश्वर महादेव का मंदिर खत्रीवाड़ा में स्थित है।

उज्जैन के 84 महादेव-भाग 13

उज्जैन के 84 महादेव : श्री अनरकेश्वर महादेव (27)

 
प्राचीन समय में एक राजा थे निमि। अपने पुण्य कर्मो के कारण यमराज के दूत उन्हे विमान में लेकर स्वर्ग जा रहे थे। यमदूत उन्हें  दक्षिण मार्ग से नरक के सामने से लेकर जा रहा था। राजा निमि ने वहां करोड़ों लोगों को अपने पापों का फल भुगतते देखा, जिससे उन्हें पीड़ा हो रही थी। उन्होंने यमदूत से पूछा कि मुझे किस कर्म के कारण नरक के सामने से गुजरना पड़ा है, दूत ने कहा कि आपने श्राद्ध के दिन दक्षिणा नहीं दी उसी कर्म के कारण आपको यह फल मिल रहा है। इसके बाद राजा ने पूछा मुझे किस कर्म के कारण स्वर्ग की प्राप्ति हो रही है। इस पर यमदूत ने कहा कि आपने महाकाल वन में अश्विन में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भगवान मनकेश्वर का दर्शन-पूजन किया था, जिसके फलस्वरूप आपको स्वर्ग की प्राप्ति हुई है। 

जैसे ही वे लोग आगे चलने लगे नरक के पापियों ने कहा कि हे राजन आप थोड़ी देर ओर रूकें, आपके शरीर को स्पर्श कर आने वाली वायु पीड़ा में राहत दे रही है। राजा निमि ने दूत से कहा कि वे अब स्वर्ग नहीं जाएंगे ओर यही खड़े रहकर पापियों को सुख देगे। इस पर इंद्र वहां उपस्थित हुए और राजा से स्वर्ग चलने का विनय किया। राजा ने मना किया ओर पूछा कि ये पापी अपने कर्म फल से कैसे मुक्त होंगे? तब इंद्र ने कहा कि यदि आप अपने भगवान के दर्शन का पुण्य फल इन्हें दान कर दें तो सभी मुक्त हो जाएंगे। राजा निमि ने अपना पुण्य फल सभी पापियों  को दान कर दिया, जिससे सभी पापी अपने पाप से मुक्त हो गए। मान्यता है कि अनरकेश्वर के दर्शन मात्र से नरक से मुक्ति मिलती है। अश्विन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को पूजन करने से मनुष्य के सौ जन्मों के पाप नष्ट होते हैं  ओर वह स्वर्ग के सुखों का भोग करता है।

Tuesday, February 16, 2016

उज्जैन के 84 महादेव-भाग 12

उज्जैन के 84 महादेव में 23 वें स्थान पर मेघनादेश्वर महादेव आते हैं .
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय द्वापर और कलियुग की संधि पर मदांध नामक अहंकारी राजा हुआ था। वह राजा दुष्ट प्रवत्ति का था। राजा के दोषों व पापों के कारण बारह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। वर्षावृष्टि न होने की स्थिति में नदियां सुख गई, तालाब अदृश्य हो गए, यज्ञ वेदाध्ययन आदि सब बंद हो गए। पृथ्वी पर सभी दिशाओं में हाहाकार मच गया। यह देखकर इंद्र आदि देवता क्षीरसागर के उत्तर में श्वेतद्वीप स्थित भगवान जनार्दन के पास गए। वहां पहुंच उन्होंने भगवान को प्रणाम किया एवं उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान ने पूछा कि आप लोग क्यों क्यों पधारे हैं एवं आपकी अभिलाषा क्या है? तब देवतागण बोले कि प्रभु कई वर्षों से वृष्टि नहीं हुई है, कृपया कोई उपाय कीजिए।
देवताओं की बात सुन भगवान जनार्दन कुछ देर के लिए ध्यानमग्न हो गए फिर बोले कि आप सभी कृपया महाकाल वन जाएं। वहां प्रतिहारेश्वर के ईशान कोण में एक दिव्य लिंग है जिसमें वृष्टि करने वाले मेघ निवास करते हैं। आप सब वहां जाएं और भक्ति भाव से उस लिंग का पूजन-अर्चन करें। उनके पूजन-अर्चन से वृष्टि जरूर होगी। श्री भगवान की बात सुन सभी देवगण महाकाल वन स्थित उस दिव्य लिंग के पास पहुंचे और भक्तिमय भाव से स्तुति करने लगे। स्तुति के फलस्वरूप उस लिंग से कई मेघ प्रकट हुए और आकाश में छाकर वृष्टि करने लगे। सम्पूर्ण सृष्टि फिर से सुस्थिर हुई और पृथ्वी के सभी जीव-जंतुओं, पक्षियों तथा मानवों का संताप दूर हुआ। देवतागण इसे अमृत वर्षा मान बेहद प्रसन्न हुए एवं उन्होंने उस लिंग का नाम मेघनादेश्वर रखा।

दर्शन लाभ:
मान्यतानुसार श्री मेघनादेश्वर महादेव के पूजन अर्चन करने से वृष्टि में वृद्धि होती है। ऐसा माना जाता है कि यहां दर्शन करने से पितरों को शांति मिलती है। उज्जयिनी स्थित चौरासी महादेव में से एक श्री मेघनादेश्वर महादेव छोटा सराफा में नृसिंह मंदिर के पीछे स्थित है।
24वें स्थान पर महालयेश्वर महादेव आते हैं .
एक बार पार्वती जी ने शिव जी से पूछा कि सारे संसार में चर-अचर जो दिखाई देता है ओर जो सुनाई देता है सभी आप ने उत्पन्न किया है। इसके साथ ही संपूर्ण जगत आप में ही लीन होता है। इस पर शिव ने कहा देवी पार्वती महाकाल वन में प्रलय के समय मेरे लिंग का नाम महालयेश्वर है।
इस शिवलिंग से ब्रम्हा, विष्णु, देवी-देवता, भूत, बुद्धि, प्रज्ञा, धृति, ख्याति, स्मृति, लज्जा, सरस्वति सभी उत्पन्न हुए हैं और प्रलय के समय सभी इसी में लीन होते हैं। मान्यता है कि जो भी इस शिवलिंग का पूजन करता है। वह त्रिलोक विजयी होता है।

उज्जैन के 84 महादेव-भाग 11

उज्जैन के 84 महादेव में 21 वें स्थान पर श्री कुक्कुटेश्वर महादेव आते हैं .
प्राचीन समय में कौषिक नाम के राजा हुआ करते थे। वे अपनी प्रजा का ध्यान रखते थे और उनके राज्य में सभी सुख सुविधाएं थीं। राजा कौषिक दिनभर मनुष्य रूप में रहते थे और रात को कुक्कुट (मुर्गे) का रूप ले लेते थे। इस कारण उनकी रानी विशाला हमेशा दुःखी रहती थी। राजा के कुक्कुट रूप लेने के कारण वे रति सुख का आनंद नहीं ले पाती थीं। एक दिन रानी ने दुःख के कारण मरने का विचार किया और वह गालव ऋषि के पास पहुंची। विशाला ने अपना दुख गालव ऋषि को बताते हुए इसका कारण पूछा।
गालव ऋषि ने बताया कि तुम्हारा पति पूर्व जन्म में राजा विदूरत का पुत्र था। वह विषयासक्त होकर मांसाहारी हो गया एवं अनेक कुक्कुटों का भक्षण किया। इस कारण क्रुद्ध होकर कुक्कुटों के राजा ताम्रचूड़ ने उसे श्राप दिया कि वह क्षय रोग से पीडित होगा। श्राप के कारण वह क्षीण होने लगा। राजकुमार कौषिक वामदेव मुनि के पास गया और अपने रोग का कारण पूछा। वामदेव मुनि ने ताम्रचूड़ की बात बताई। राजकुमार ने मुनि से श्रापमुक्ति का उपाय पूछा। मुनि ने उसे ताम्र्चूर्ण के पास जाने को कहा . ताम्रचुड़ ने कहा तुम निरोगी रहोगे और शासन करोगे परन्तु रात को अदृश्य हो जाओगे।
रानी ने गालव ऋषि से श्राप मुक्ति का उपाय पूछा तो उन्होनें बताया कि महाकाल वन में पक्षी योनि विमोचन लिंग जबलेश्वर के पास स्थित है वहां जाओ और उनका पूजन करो। राजा रानी महाकाल वन में आए और शिवलिंग का पूजन किया। रात्रि होने पर राजा कौषिक अदृश्य नहीं हुआ और रानी के साथ रति सुख को प्राप्त किया। मान्यता है कि इस कुक्कुटेश्वर शिवलिंग के दर्शन से कोई भी पितृ नरक को प्राप्त नहीं होता।
22 वें स्थान पर श्री कर्कटेश्वर महादेव आते हैं .
कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में धर्ममूर्ति नामक एक प्रतापी राजा थे। देवराज इंद्र की सहायता से उन्होंने सैकड़ों दैत्यों का संहार किया। वह तेजस्वी राजा इच्छानुसार अपना शरीर बनाने में सक्षम थे एवं सदा युद्ध में विजयी होते थे जिससे उनकी कीर्ति समस्त दिशाओं में फैली हुई थी। उनकी पत्नी भानुमति थी जो उनकी दस हज़ार रानियों में श्रेष्ठ थी और जो सदैव धर्म परायण रहती थी। पूर्ण वैभव, कीर्ति और सुख से सुसज्जित राजा ने एक बार अपने महर्षि वशिष्ठ से पूछा कि मुझे कीर्ति व उत्तम लक्ष्मी स्त्री किस कृपा से, किस पुण्य से प्राप्त हुई है।

प्रत्युत्तर में वशिष्ठ मुनि बोले कि पहले पूर्वजन्म में आप शुद्र राजा थे और कई दोषों से युक्त थे। आपकी यह स्त्री भी दुष्ट स्वभाव वाली थी। जब आपने शरीर त्यागा तब आप नरक में गए जहां कई यातनाएं आपको सहनी पड़ीं। वहां अनेक यातनाओं के बाद आपको यमराज ने केकड़े के रूप में जन्म दिया और आप महाकाल वन के रुद्रसागर में रहने लगे। महाकाल वन स्थित रुद्रसागर में जो मनुष्य दान, जप, तप आदि करता है वो अक्षय पुण्य को प्राप्त होता है। पांच वर्ष तक आप उसमें रहे फिर आप जब बाहर निकले तब एक कौआ आपको अपनी चोंच में भरकर आसमान में उड़ने लगा। तब आपने अपने पैरों से कौवे से बचने के लिए प्रहार किए जिसके फलस्वरूप आप उसकी चोंच से छूट गए। कौवे की चोंच से छूट आप स्वर्गद्वारेश्वर के पूर्व में स्थित एक दिव्य लिंग के पास गिरे और गिरते ही उस दिव्य लिंग के प्रभाव से आपने केकड़े का देह त्याग दिव्य विद्याधर के समान देह प्राप्त की। फिर जब आप अन्य शिवगणों के साथ शामिल हो स्वर्ग की ओर जा रहे थे तभी मार्ग में देवताओं ने शिवगणों से आपके बारे में पूछा। तब उन शिवगणों ने शिव लिंग के प्रभाव से आपके केकड़ा योनि से मुक्त होने के बारे में बताया तभी से इस दिव्य लिंग का नाम कर्कटेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी लिंग के माहात्म्य के कारण ही आपको पहले स्वर्ग की और फिर राज की प्राप्ति हुई है। महर्षि की बातें सुनकर राजा तुरंत महाकाल वन स्थित स्वर्गद्वारेश्वर के पूर्व में स्थित शिवालय पहुंचे और वहां ध्यानमग्न हो गए।
दर्शन लाभ:
मान्यतानुसार जो भी श्रद्धालु श्री कर्कटेश्वर महादेव के दर्शन करते हैं उनके योनि दोष दूर होते हैं एवं वे शिवलोक को प्राप्त करते हैं। यहां दर्शन बारह मास किए जा सकते हैं लेकिन अष्टमी और चतुर्दशी के दिन दर्शन का विशेष महत्व माना गया है। उज्जयिनी स्थित चौरासी महादेव में से एक श्री कर्कटेश्वर महादेव का मंदिर खटिकवाड़ा में स्थित है।

Saturday, February 13, 2016

उज्जैन के 84 महादेव -भाग 10

उज्जैन के 84 महादेव में 19वें स्थान पर नागचंद्रेश्वर महादेव आते हैं . पटनी बाजार स्थित नागचंद्रेश्वर महादेव के दर्शन से निर्माल्य लंघन से उत्पन्न पाप का नाश होता है। ऐसा कहा जाता है कि देवर्षि नारद एक बार इंद्र की सभा में कथा सुना रहे थे। इंद्र ने मुनि से पूछा कि हे देव, आप त्रिलोक के ज्ञाता हैं। मुझे पृथ्वी पर ऐसा स्थान बताओ, जो मुक्ति देने वाला हो। यह सुनकर मुनि ने कहा कि उत्तम प्रयागराज तीर्थ से दस गुना ज्यादा महिमा वाले महाकाल वन में जाओ। वहाँ महादेव के दर्शन मात्र से ही सुख, स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वर्णन सुनकर सभी देवता विमान में बैठकर महाकाल वन आए। उन्होंने आकाश से देखा कि चारों ओर साठ करोड़ से भी शत गुणित लिंग शोभा दे रहे हैं। उन्हें विमान उतारने की जगह दिखाई नहीं दे रही थी। इस पर निर्माल्य उल्लंघन दोष जानकर वे महाकाल वन नहीं उतरे, तभी देवताओं ने एक तेजस्वी नागचंद्रगण को विमान में बैठकर स्वर्ग की ओर जाते देखा। पूछने पर उसने महाकाल वन में महादेव के उत्तम पूजन कार्य को बताया। देवताओं के कहने पर कि वन में घूमने पर तुमने निर्माल्य लंघन भी किया होगा, तब उसके दोष का उपाय बताओ। नागचंद्रगण ने ईशानेश्वर के पास ईशान कोण में स्थित लिंग का महात्म्य बताया। इस पर देवता महाकाल वन गए और निर्माल्य लंघन दोष का निवारण उन लिंग के दर्शन कर किया। यह बात चूँकि नागचंद्रगण ने बताई थी, इसीलिए देवताओं ने इस लिंग का नाम नागचंद्रेश्वर महादेव रखा।
20 वें स्थान पर प्रतिहारेश्वर महादेव आते हैं |पटनी बाजार स्थित नागचंद्रेश्वर महादेव के पास प्रतिहारेश्वर महादेव का मंदिर है। इनके दर्शन मात्र से व्यक्ति धनवान बन जाता है। एक बार महादेव उमा से विवाह के बाद सैकड़ों वर्षों तक रनिवास में रहे। देवताओं को चिंता हुई कि यदि महादेव को पुत्र हुआ तो वह तेजस्वी बालक त्रिलोक का विनाश कर देगा। ऐसे में गुरु महा तेजस्वी ने उपाय बताया कि आप सभी महादेव के पास जाकर गुहार करो। जब सभी मंदिराचल पर्वत पहुँचे तो द्वार पर नंदी मिले। इस पर इंद्र ने अग्नि से कहा कि हंस बनकर नंदी की नजर चुराकर जाओ और महादेव से मिलो। हंस बने अग्नि ने महादेव के कान में कहा कि देवतागण द्वार पर खड़े इंतजार कर रहे हैं। इस पर महादेव द्वार पर आए तथा देवताओं की बात सुनी। उन्होंने देवताओं को पुत्र न होने देने का वचन दिया। लापरवाही के स्वरूप उन्होंने नंदी को दंड दिया। नंदी पृथ्वी पर गिरकर विलाप करने लगा। नंदी का विलाप सुनकर देवताओं ने नंदी से महाकाल वन जाकर शिवपूजा का महात्म्य बताया। नंदी ने वैसा ही किया। उसने लिंग पूजन कर वरदान प्राप्त किया। लिंग से ध्वनि आई कि तुमने महाभक्ति से पूजन किया है अतः तुम्हें वरदान है कि तुम्हारे नाम प्रतिहार (नंदीगण) से यह लिंग जाना जाएगा। तब से उसे प्रतिहारेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्धि मिली।

उज्जैन के 84 महादेव -भाग 9

उज्जैन के 84 महादेवों में 17 वें स्थान पर अप्सरेश्वर महादेव हैं जो मोदी की गली में ही कुएँ के पास स्थित अप्सरेश्वर महादेव के दर्शन मात्र से ही अभिष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। इनको स्पर्श करने से राज्य-सुख तथा मोक्ष मिलता है। एक बार नंदन वन में इंद्रदेव विराजित थे। अप्सरा रंभा नृत्य कर उनका मनोरंजन कर रही थी। अचानक कोई विचार आने पर रंभा की लय बिगड़ गई। इस पर इंद्र क्रोधित हुए और श्राप दिया कि वह कांतिहीन होकर मृत्युलोक में गमन करे। रंभा पृथ्वी पर गिर पड़ी और रूदन करने लगी। उसकी सखी अप्सराएँ भी वहाँ आ गईं तभी वहाँ से मुनि नारद गुजरे। उन्होंने रंभा की जबानी सारा वृत्तांत सुना तो बोले- 'रंभा तुम महाकाल वन जाओ। वहाँ मनोरथपूर्ण करने वाला लिंग मिलेगा। उसके पूजन, आराधना से तुम्हें स्वर्ग मिलेगा। उर्वशी अप्सरा को भी इनके पूजन से पुरुरवा राजा पति के रूप में मिले थे।' ऐसा कहने पर रंभा ने लिंग की आराधना की। इस पर महादेव प्रसन्ना हुए और रंभा को आशीर्वाद दिया कि वह इंद्र की वल्लभप्रिया बनेगी तथा यह लिंग अप्सरेश्वर महादेव के नाम से जाना जाएगा।
उज्जैन के 84 महादेवों में 18 वें स्थान पर कलकलेश्वर महादेवहैं | श्री कलकलेश्वर महादेव के दर्शन से कलह नहीं होता है। एक बार महादेव ने उमा को महाकाली नाम से पुकारा। इस बात को लेकर महादेव-उमा में कलह बढ़ गया। कलह के कारण तीनों लोक कम्पित होने लगे। यह देख देव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व आदि भय को प्राप्त हुए। इस भीषण हो-हल्ले में पृथ्वी के गर्भ से एक लिंग निकला। उस लिंग से शुभ एवं सुख वचन की वाणी निकली। लिंग ने त्रिलोक को शांति के वचन कहे। इस पर देवताओं ने उस लिंग का नाम कलकलेश्वर महादेव रखा। इसका पूजन-अर्चन करने वाले मनुष्य को दुःख, व्याधि तथा अकाल मौत से मुक्ति मिलती है। ये महादेव मोदी की गली में कुएँ के सामने स्थित है

Friday, February 12, 2016

उज्जैन के 84 महादेव(भाग 8)

उज्जैन के 84 महादेवों में 15वें और 16वें स्थान पर आते हैं -
इन्द्रद्युम्नेश्वर महादेव पटनी बाजार क्षेत्र में, मोदी की गली स्थित
ईशानेश्वर महादेव पटनी बाजार क्षेत्र में मोदी की गली के बड़े दरवाजे में स्थित

उज्जैन के 84 महादेव (भाग 7)

उज्जैन के 84 महादेवों में 13वें और 14वें स्थान पर आते हैं -
गंधर्ववती घाट स्थित श्री मनकामनेश्वर महादेव के दर्शन मात्र से सौभाग्य प्राप्त होता है। ऐसा कहा जाता है कि एक समय ब्रह्माजी प्रजा की कामना से ध्यान कर रहे थे। उसी समय एक सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्माजी के पूछने पर उसने कहा कि कामना की आपकी इच्छा से, आपके ही अंश से उत्पन्न हुआ हूँ। मुझे आज्ञा दो, मैं क्या करूँ? ब्रह्माजी ने कहा कि तुम सृष्टि की रचना करो। यह सुनकर कंदर्प नामक वह पुत्र वहाँ से चला गया, लेकिन छिप गया। यह देखकर ब्रह्माजी क्रोधित हुए और नेत्राग्नि से नाश का श्राप दिया। कंदर्प के क्षमा माँगने पर उन्होंने कहा कि तुम्हें जीवित रहने हेतु 12 स्थान देता हूँ, जो कि स्त्री शरीर पर होंगे। इतना कहकर ब्रह्माजी ने कंदर्प को क्षमा का पुष्प का धनुष और पाँच बाण देकर बिदा किया। कंदर्प ने इन शस्त्रों का उपयोग कर सभी को वशीभूत कर लिया। जब उसने तपस्यारत महादेव को वशीभूत करने का विचार किया तब महादेव ने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। इससे कंदर्प (कामदेव) भस्म हो गया। उसकी स्त्री रति के विलाप करने पर आकाशवाणी हुई कि रुदन मत कर, तेरा पति बिना शरीर का (अनंग) रहेगा। यदि वह महाकाल वन जाकर महादेव की पूजा करेगा तो तेरा मनोरथ पूर्ण होगा। कामदेव (अनंग) ने महाकाल वन में शिवलिंग के दर्शन किए और आराधना की। इस पर प्रसन्न होकर महादेव ने वर दिया कि आज से मेरा नाम, तुम्हारे नाम से मनकामनेश्वर महादेव नाम से प्रसिद्ध होगा। चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी को जो व्यक्ति दर्शन करेगा, वह देवलोक को प्राप्त होगा।
कुटुम्बेश्वर महादेव:
सिंहपुरी क्षेत्र स्थित कुटुम्बेश्वर महादेव के दर्शन मात्र से गोत्र वृद्धि होती है। ऐसा कहा जाता है कि जब देवों तथा दैत्यों ने क्षीरसागर का मंथन किया तब उसमें से ऐसा विष निकला, जिसने चारों ओर त्राहि मचा दी। देवताओं ने महादेव से स्तुति की कि वे इससे उनकी रक्षा करें। महादेव ने मोर बनकर उस विष को पी लिया, किंतु वे भी इसे सहन नहीं कर पाए। तब महादेव ने शिप्रा नदी को वह विष दे दिया। शिप्रा ने इसे महाकाल वन स्थित कामेश्वर लिंग पर डाल दिया। वह लिंग विषयुक्त हो गया। इसके दर्शन मात्र से ब्राह्मण आदि मरने लगे। महादेव को मालूम होने पर उन्होंने ब्राह्मणों को जीवित किया तथा वरदान दिया कि आज से जो भी इस लिंग के दर्शन करेगा वह आरोग्य को प्राप्त होगा तथा कुटुम्ब में वृद्धि करेगा। तब से यह लिंग कुटुम्बेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।

Wednesday, February 10, 2016

उज्जैन के 84 महादेव-भाग 6

उज्जैन के 84 महादेवों में 11वें और 12वें स्थान पर आते हैं -
श्री सिद्धेश्वर महादेव : सिद्धनाथ मंदिर मे सिद्धनाथ घाट के नये दरवाज़े के पास ।
श्री लोकपालेश्वर महादेव : कार्तिक चौक से रघुवंशी मार्ग से दाए हाथ के तरफ की गली मे सीधे चौक मे।

Tuesday, February 9, 2016

84 महादेव- भाग 5

उज्जैन के 84 महादेवों में नवें और दसवें स्थान पर आते हैं -

  1. श्री स्वर्णद्वारपालेश्व महादेव : महाकाल के चौराहा से हरिफाटक ब्रिज  जाने पर बाए हाथ पर पुलिया के नीचे। 
  2. श्री  कर्कोटेश्व महादेव  :    हरसिध्दि  मंदिर के परिसर मे । 

उज्जैन के 84 महादेव- भाग 4

84 महादेवों में सातवें और आठवें स्थान पर आते हैं -
  1. श्री त्रिविष्टेश्व महादेव : महाकाल मंदिर क्षेत्र मे ओंकारेश्वर मंदिर के पीछे महाकाल के सभा मंडप  की  सीढी  के पास । 
  2. श्री कपालेश्व महादेव  : श्री अवन्तिपाश्वनाथ तीर्थ  के चौराहा से बड़े पुल जाने पर घाटी  पर बाए हाथ पर  

84महादेव -भाग 3

उज्जैन के 84 महादेवों में पांचवे व छठे स्थान पर आते हैं -
  1. श्री अनादिकल्पेश्व महादेव  :   महाकाल मंदिर क्षेत्र  के जूना  महाकाल  मंदिर के पास
  2. श्री स्वर्णज्वालेश्व महादेव  :  राम सीढी  पर श्री ढूंढेश्वर महादेव के ऊपर । 

84 महादेव -भाग 2

तीसरे व चौथे स्थान पर आते हैं -
  1. श्री ढूंढेश्वर महादेव  : शिप्रा किनारे रामघाट के  सामने  सीढी  पर बाए हाथ पर  
  2. श्री  डमरूकेश्वर महादेव : रामघाट पर राम सीढी  पर 
 

84 महादेव -भाग 1

महाकाल की नगरी उज्जैन स्थित 84 महादेवों की अर्चना श्रावण माह में विशेष रूप से की जाती है जब पुरुषोत्तम मास (अधिक मास ) आता  है, तब भी दर्शन यात्रा की जाती हैं ।   स्कन्द पुराण के अनुसार ८४ लाख योनियों का भ्रमण करते हुए, मानव योनि में आते है, तो मानव योनि में आने के पहले  ८४ लाख योनियों  के भ्रमण में , हम से जो भी दोष हुआ हो , तो इन ८४ महादेव के दर्शन करने से सारे दोषो का निराकरण होता है। ऐसा कहा जाता है की प्रलय होने पर ८४ महादेव ही अचल रहेंगे।
 इनमें पहले व दूसरे स्थान पर आते हैं -
  1. श्री अगस्तेश्वर महादेव : हरसिध्दि  मंदिर  के पीछे संतोषी माता  के  मंदिर  मे  यात्रा  यही से  प्रारंभ होती है , तथा अन्त मे पुनः श्री अगस्तेश्वर महादेव के दर्शन -पूजन  के उपरांत संपूर्ण होती है ।
  2. श्री गुहेश्वर महादेव : शिप्रा किनारे रामघाट पर बिना शिखर का मंदिर , श्री धर्मराजजी  मंदिर के पास नदी किनारे 
 

सावित्री देवी मंदिर

एक बार ब्रह्मा से भी भारी भूल हो गई थी. एक ऐसी भूल, जिससे उनकी पत्नी न सिर्फ उनसे रूठ गईं, बल्कि हमेशा-हमेशा के लिए उनका साथ भी छोड़ गईं. यही नहीं, पत्नी के गुस्से का ही यह परिणाम था कि आज सृष्टि की रचना करने वाले की पूजा सिर्फ पुष्कर में ही होती है.
दूर पहाड़ों की चोटी पर विराजती हैं सावित्री, परमपिता ब्रह्मा की अर्द्धांगिनी सावित्री. लेकिन यहां सावित्री रूठी हुई हैं, नाराज हैं. यही वजह है कि ब्रह्मा के मंदिर से बिल्कुल अलग-थलग उन्होंने पहाड़ पर अपना बसेरा बनाया हुआ है.
एक बार ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना के लिए पुष्कर में यज्ञ का आयोजन किया. इस यज्ञ में पत्नी का बैठना जरूरी था, लेकिन सावित्री को पहुंचने में देरी हो गई.
पूजा का शुभ मुहूर्त बीतता जा रहा था. सभी देवी-देवता एक-एक करके यज्ञ स्थली पर पहुंचते गए. लेकिन सावित्री का कोई अता-पता नहीं था. कहते हैं कि जब शुभ मुहूर्त निकलने लगा, तब कोई उपाय न देखकर ब्रह्माजी ने नंदिनी गाय के मुख से गायत्री को प्रकट किया और उनसे विवाह कर अपना यज्ञ पूरा किया. उधर सावित्री जब यज्ञस्थली पहुंचीं, तो वहां ब्रह्माजी के बगल में गायत्री को बैठे देख क्रोधित हो गईं और उन्होंने ब्रह्माजी को श्राप दे दिया. सावित्री का गुस्सा इतने में ही शांत नहीं हुआ. उन्होंने विवाह कराने वाले ब्राह्मण को भी श्राप दिया कि चाहे जितना दान मिले, ब्राह्मण कभी संतुष्ट नहीं होंगे. गाय को कलियुग में गंदगी खाने और नारद को आजीवन कुंवारा रहने का श्राप दिया.
क्रोध शांत होने के बाद सावित्री पुष्कर के पास मौजूद पहाड़ियों पर जाकर तपस्या में लीन हो गईं और फिर वहीं की होकर रह गईं. कहते हैं कि यहीं रहकर सावित्री भक्तों का कल्याण करती हैं.
पुष्कर में जितनी अहमियत ब्रह्माजी की है, उतनी ही सावित्री की भी है. सावित्री को सौभाग्य की देवी माना जाता है. यह मान्यता है कि यहां पूजा करने से सुहाग की लंबी उम्र होती है. यही वजह है कि महिलाएं यहां आकर प्रसाद के तौर पर मेहंदी, बिंदी और चूड़ियां चढ़ाती हैं और सावित्री से पति की लंबी उम्र मांगती हैं.
 

श्रीमारकण्डेय धाम'

उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर गंगा-गोमती के संगम पर चौबेपुर के कैथी ग्राम के उत्तरी सीमा पर बना 'श्रीमारकण्डेय धाम' अपार जन आस्था का प्रमुख केन्द्र है। तमाम तरह की परेशानियों से ग्रसित लोग अपने दुःखों को दूर करने के लिए यहाँ आते हैं|
कथा :
मृकण्ड ऋषि तथा उनकी पत्नि मरन्धती दोनों पुत्रहीन थे। वे नैमिषारण्य, सीतापुर में तपस्यारत थे। मृकण्ड ऋषि को पुत्र न होने की बहुत ग्लानि होती थी। वे पुत्र प्राप्ति की कामना के साथ सीतापुर छोड़कर विंध्याचल चले आये। वहाँ इन्होंने घोर तपस्या प्रारम्भ की। इनकी साधना से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का रास्ता बताया कि हमारी लेखनी को मिटाने वाले सिर्फ एक मात्र भगवान शंकर हैं। आप शंकर जी की उपासना कर पुत्र प्राप्त कर सकते हैं। इस बात से प्रसन्न होकर मृकण्ड ऋषि गंगा-गोमती के संगम तपोवन 'कैथी' जाकर भगवान शंकर की घोर उपासना में लीन हो गये।
तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी ने उन्हें दर्शन दिया और वर माँगने के लिए कहा। मृकण्ड ऋषि ने याचना कि- "भगवान मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हो।" इस पर शिवजी ने कहा- "तुम्हें अधिक आयु वाले अनेक गुणहीन पुत्र चाहिए या फिर मात्र सोलह वर्ष की आयु वाला एक गुणवान पुत्र।" मुनि ने कहा कि- "प्रभु! मुझे गुणवान पुत्र ही चाहिए।" समय आने पर मुनि के यहाँ मारकण्डेय नामक पुत्र का जन्म हुआ। पर बालक की अल्प आयु की चिन्ता मृकण्ड ऋषि को सताने लगी। दोनों दम्पत्ति दुःखी रहने लगे। मारकण्डेय जी को माता-पिता का दुःख न देखा गया। वे कारण जानने के लिए हठ करने लगे। बाल हठ के आगे विवश होकर मृकण्ड ऋषि ने सारा वृतान्त कह बताया। मारकण्डेय समझ गये कि ब्रह्मा की लेखनी को मिटा कर जब भगवान शंकर के आशिर्वाद से मैं पैदा हुआ हूँ तो इस संकट में भी शंकर जी की ही शरण लेनी चाहिए। मारकण्डेय गंगा-गोमती के संगम पर बैठ कर घनघोर तपस्या में लीन हो गये। शिव पार्थिव वाचन पूजा करते हुए उम्र के बारह साल बीतने को आये। एक दिन यमराज ने बालक मारकण्डेय को लेने के लिए अपने दूत को भेजा। भगवान शंकर की तपस्या में लीन बालक को देख यमराज के दूत का साहस टूट गया। उसने जाकर यमराज को सारा हाल बताया। तब जाकर यमराज स्वयं बालक को लेन भैंसे पर सवार होकर आये। जब यमराज बालक मारकण्डेय को लेने आये, तब वह शंकर जी की तपस्या में लीन था तथा शंकर व पार्वती स्वयं उसकी रक्षा में वहाँ मौजूद थें। बालक मारकण्डेय का ध्यान तोड़ने के लिए यमराज दूर से भय दिखा प्रहार करने लगे। तब मारकण्डेय जी घबरा गये और उनके हाथ से शिवलिंग ज़मीन पर जा गिरा।यह देखकर भगवान शंकर भक्त की रक्षा करने हेतु प्रकट हो गये और मारकण्डेय को यमराज से बचाया और यमराज को सचेत करते हुए कहा कि "चाहे संसार इधर से उधर हो जाए, सूर्य और चन्द्रमा बदल जाए, किन्तु मेरे परम भक्त मार्कंडेय का तुम कुछ अनिष्ट नहीं कर सकते। इस बालक की आयु काल की गणना मेरे दिनों से होगी।
'कैथी' गाँव मारकण्डेय जी के नाम से विख्यात है। यहाँ का तपोवन काफ़ी विख्यात है। यह गर्ग, पराशर, श्रृंगी, उद्याल आदि ऋषियों की तपोस्थली रहा है। इसी स्थान पर राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति के लिए श्रृंगी ऋषि ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था, जिसके परिणाम स्वरूप राजा दशरथ को पुत्र प्राप्त हुआ था। पुत्र इच्छा पुर्ति के लिए इससे बढ़ कर सिद्धपीठ स्थान कोई दूसरा नहीं है। 'मारकण्डे महादेव' के इस तपोस्थली पर हर समय पति-पत्नि का जोड़ा पीत वस्त्र धारण कर गाठ जोड़े पुत्र प्राप्ति के लिए 'हरिवंशपुराण' का पाठ कराते हैं। इस जगह आकर पूजा-अर्चना के बाद लोगों को मनोकामना सिद्धि मिलती है। मारकण्डेय महादेव मंदिर के शिवलिंग पर जो बेल पत्र चढ़ाया जाता है, उस पर चन्दन से श्रीराम का नाम लिखा जाता है। मान्यता है कि 'महाशिवरात्रि' के दूसरे दिन श्रीराम नाम लिखा बेल पत्र अर्पित करने से पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।





Saturday, January 30, 2016

शाकम्भरी देवी

शाकम्भरी देवी :
दुर्गम नाम का एक दैत्य था। दैत्य तपस्या करने के विचार से हिमालय पर्वत पर गया। मन में ब्रह्मा जी का ध्यान करके उसने आसन जमा लिया। वह केवल वायु पीकर रहता था। उसने एक हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की। चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक हंस कर दुर्गम के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले - 'तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो वर पाने की इच्छा हो, मांग लो। ' ब्रह्माजी के मुख से यह वाणी सुनकर दुर्गम ने कहा – मुझे बल दीजिये, जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ।
दुर्गम की यह बात सुनकर चारों वेदों के परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी 'ऐसा ही हो' कहते हुए सत्यलोक की ओर चले गये।
शक्ति पाकर दुर्गम ने लोगों पर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया और धर्म के क्षय ने गंभीर सूखे को जन्म दिया और सौ वर्षों तक कोई वर्षा नहीं हुई ।
ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग भीषण अनिष्टप्रद समय उपस्थित होने पर जगदम्बा की उपासना करने हिमालय पर्वत पर गये, और अपने को सुरक्षित एवं बचाने के लिए हिमालय की कन्दराओं में छिप गए तथा माता देवी को प्रकट करने के लिए कठोर तपस्या की । समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उन्होंने देवी की स्तुति की। भगवती जगदम्बा तुरन्त संतुष्ट हो गयीं। ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग की समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उनके संताप के करुण क्रन्दन से विचलित होकर, देवी-फल, सब्जी, जड़ी-बूटी, अनाज, दाल और पशुओं के खाने योग्य कोमल एवं अनेक रस से सम्पन्न नवीन घास फूस लिए हुए प्रकट हुईं और अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये।,शाक का तात्पर्य सब्जी होता है, इस प्रकार माता देवी का नाम उसी दिन से ''शाकम्भरी'' पड गया।

शाकम्भरी नवरात्रि पौष शुक्ल अष्टमी से आरम्भ होकर पौष की पूर्णिमा को समाप्त होता है ।
यह राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमांचल प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में मनाया जाता है । भारत के इन राज्यों के मन्दिरों में विशाल आयोजन माता की आराधना हेतु होता है ।
शाकम्भरी माता का पहला प्रमुख मंदिर राजस्थान के सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है।
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और
तीसरा उत्तरप्रदेश में सहारनपुर से 42 किलोमीटर दूर स्थित है.


ममलेश्वर महादेव मंदिर

ममलेश्वर महादेव मंदिर हिमाचल प्रदेश की करसोगा घाटी के ममेल गांव में स्थित है। ममलेश्वर महादेव मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर का संबंध पांडवो से भी है क्योकि पांडवो ने अपने अज्ञातवास का कुछ समय इसी गाँव में बिताया था। इस मंदिर में एक प्राचीन ढोल है जिसके बारे में कहा जाता है की ये भीम का ढोल है। इसके अलावा मंदिर में स्थापित पांच शिवलिंगों के बारे में कहा जाता है की इसकी स्थापना स्वयं पांडवों ने की थी। और सबसे प्रमुख गेंहूँ का दाना है जिसे की पांडवों का बताया जाता है। यह गेंहूँ का दाना पुजारी के पास रहता है। यह दाना करीब 5000 साल पुराना है और इस एक दाने का वजन 200 ग्राम है |इस मंदिर में एक धुना है जिसके बारे में मान्यता है कि ये महाभारत काल से निरंतर जल रहा है। इस अखंड धुनें के पीछे एक कहानी है कि जब पांडव अज्ञातवास में घूम रहे थे तो वे कुछ समय के लिए इस गाँव में रूके । तब इस गांव में एक राक्षस ने एक गुफा में डेरा जमाया हुआ था । उस राक्षस के प्रकोप से बचने के लिये लोगो ने उस राक्षस के साथ एक समझौता किया हुआ था कि वो रोज एक आदमी को खुद उसके पास खाने के लिए भेजेंगें जिससे कि वो सारे गांव को एक साथ ना मारे । एक दिन उस घर के लडके का नम्बर आया जिसमें पांडव रूके हुए थे । उस लडके की मां को रोता देख पांडवो ने कारण पूछा तो उसने बताया कि आज मुझे अपने बेटे को राक्षस के पास भेजना है । अतिथि के तौर पर अपना धर्म निभाने के लिये पांडवो में से भीम उस लडके की बजाय खुद उस राक्षस के पास गए । दोनो में भयंकर युद्ध हुआ और भीम ने उस राक्षस को मारकर गांव को उससे मुक्ति दिलाई |कहते है कि भीम की इस विजय की याद में ही यह अखंड धुना चल रहा है।इसके अलावा मंदिर में स्थापित पांच शिवलिंगों के बारे में कहा जाता है कि इनकी स्थापना स्वयं पांडवों ने की थी।

हत्याहरण तीर्थ

हत्याहरण तीर्थ उत्तर प्रदेश प्रदेश के हरदोई जनपद की संडीला तहसील में पवित्र नैमिषारण्य परिक्रमा क्षेत्र में स्थित है। प्रसिद्ध हत्याहारण कुंड तीर्थ के संबंध में यह मान्यता है कि भगवान राम भी रावण वध के उपरांत ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त होने के लिये इस सरोवर में स्नान करने आये थे।
ऐतिहासिक कथा
इस तीर्थ की नीव देवो में देव महादेव ने डाली थी|शिव पुराण में वर्णन है कि माता पार्वती के साथ भगवान भोले नाथ एकांत की खोज में निकले और नैमिषारण्य क्षेत्र में विहार करते हुए एक जंगल में जा पहुचे |वहाँ पर सुरम्य जंगल मिलने पर तपस्या करने लगे ! तपस्या करते हुए माता पार्वती को प्यास लगी | जंगल में जल न मिलने पर उन्होंने देवताओ से पानी के लिए कहा तब भगवान सूर्य ने एक कमंडल जल दिया | माँ पार्वती ने जल पान करने के बाद बचे जल को जमीन पर गिरा दिया |तेजस्वी पवित्र जल से वहाँ पर एक कुण्ड का निर्माण हुआ |जाते वक्त भगवान शंकर ने इस स्थान का नाम प्रभास्कर क्षेत्र रखा |यह कहानी सतयुग की है|द्वापर में ब्रम्हा द्वारा अपनी पुत्री पर कुदृष्टि डालने पर पाप लगा |उन्होंने इस तीर्थ में आकर स्नान किया तब वह पाप मुक्त हुए |तब इस तीर्थ का नाम ब्रम्ह क्षेत्र पड़ा |त्रेता में मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने जब रावण का बध किया तो भगवान राम को ब्रम्ह हत्या का पाप लगा | तब गुरु के कहने पर भगवान राम ब्रम्ह हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए इस तीर्थ पर आये और स्नान किया | इस तरह से उनके पाप धुले और वो ब्रम्ह हत्या के पाप से मुक्त हुए | त्रेता युग से आज तक इस स्थान का नाम हत्या हरण कहा जाता है क्योंकि यहाँ स्नान करने से ह्त्या तक का पाप नष्ट हो जाता है |
 

परशुराम महादेव का मंदिर

परशुराम महादेव का मंदिर राजस्थान के राजसमन्द और पाली जिले की सीमा पर स्थित है। मुख्य गुफा मंदिर राजसमन्द जिले में आता है जबकि कुण्ड धाम पाली जिले में आता है। पाली से इसकी दूरी करीब 100 किलोमीटर और कुम्भलगढ़ दुर्गसे मात्र 10 किलोमीटर है।अरावली की सुरम्य पहाड़ियों में स्थित परशुराम महादेव गुफा मंदिर का निर्माण स्वंय परशुराम ने अपने फरसे से चट्टान को काटकर किया था। इस गुफा मंदिर तक जाने के लिए 500 सीढ़ियों का सफर तय करना पड़ता है। इस गुफा मंदिर के अंदर एक स्वयं भू शिवलिंग है जहां पर विष्णु के छठे अवतार परशुराम ने भगवान शिव की कई वर्षो तक कठोर तपस्या की थी। तपस्या के बल पर उन्होंने भगवान शिव से धनुष, अक्षय तूणीर एवं दिव्य फरसा प्राप्त किया था।
पूरी गुफा एक ही चट्टान में बनी हुई है। ऊपर का स्वरूप गाय के थन जैसा है। प्राकृतिक स्वयं-भू लिंग के ठीक ऊपर गोमुख बना है, जिससे शिवलिंग पर अविरल प्राकृतिक जलाभिषेक हो रहा है। मान्यता है कि मुख्य शिवलिंग के नीचे बनी धूणी पर कभी भगवान परशुराम ने शिव की कठोर तपस्या की थी। इसी गुफा में एक शिला पर एक राक्षस की आकृति बनी हुई है। जिसे परशुराम ने अपने फरसे से मारा था।

दुर्गम पहाड़ी, घुमावदार रास्ते, प्राकृतिक शिवलिंग, कल-कल करते झरने एवं प्राकृतिक सौंदर्य से ओत-प्रोत होने के कारण भक्तों ने इसे मेवाड़ के अमरनाथ का नाम दे दिया है।
इस स्थान से जुडी एक मान्यता के अनुसार भगवान बद्रीनाथ के कपाट वही व्यक्ति खोल सकता है जिसने परशुराम महादेव के दर्शन कर रखे हो।एक अन्य मान्यता गुफा मंदिर में स्थित शिवलिंग से जुडी है|मंदिर में शिवलिंग में एक छिद्र है जिसके बारे में मान्यता है कि इसमें दूध का अभिषेक करने से दूध छिद्र में नहीं जाता जबकि पानी के सैकड़ों घड़े डालने पर भी वह नहीं भरता और पानी शिवलिंग में समा जाता है। इसी जगह पर परशुराम ने दानवीर कर्ण को शिक्षा दी थी।

मेंढक मंदिर

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी जिले में एक ऐसा शिव मंदिर है जिसमे शिवजी मेंढक की पीठ पर विराजमान हैं। जिला मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर दूर ओयल कस्बे में स्थित इस मन्दिर को मेंढक मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर की खास बात ये है कि यहां नर्मदेश्वर महादेव का शिवलिंग रंग बदलता है, और यहां नंदी की खड़ी हुई मूर्ति है | मंदिर राजस्थानी स्थापत्य कला पर बना है, और मण्डूक तंत्र पर बना है। मंदिर के बाहरी दीवारों पर शव साधना करती उत्कीर्ण मूर्तियां इसे तांत्रिक मंदिर ही बनाती हैं।
मेंढक मंदिर अड़तीस मीटर लम्बा, पच्चीस मीटर चौड़ाई में निर्मित एक मेढक की पीठ पर बना हुआ है | पाषाण निर्मित मेंढक का मुख तथा अगले दो पैर उत्तर की दिशा में हैं | मेंढक का मुख 2 मीटर लम्बा, डेढ़ मीटर चौड़ा तथा 1 मीटर ऊंचा है| इसके पीछे का भाग 2 मीटर लम्बा तथा 1.5 मीटर चौड़ा है | पिछले पैर दक्षिण दिशा में दिखाई हैं | मेंढक की उभरी हुई गोलाकार आंखें तथा मुख का भाग बड़ा जीवन्त प्रतीत होता है | मेंढक के शरीर का आगे का भाग उठा हुआ तथा पीछे का भाग दबा हुआ है जोकि वास्तविक मेंढक के बैठने की स्वाभविकमुद्रा है.

सामने से मेंढक के पीठ पर करीब सौ फिट का ये मन्दिर अपनी स्थापत्य के लिए यूपी ही नहीं पूरे देश के शिव मंदिर में सबसे अलग है। सावन में महीने भर दूर-दूर से भक्त यहां आकर भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं और आशीर्वाद लेते हैं।
मेंढक मंदिर की एक खास बात इसका कुआं भी है। जमीन तल से ऊपर बने इस कुए में जो पानी रहता है वो जमीन तल पर ही मिलता है। इसके अलावा खड़ी नंदी की मूर्ति मंदिर की विशेषता है। मंदिर का शिवलिंग भी बेहद खूबसूरत है और संगमरमर के कसीदेकारी से बनी ऊंची शिला पर विराजमान है। नर्मदा नदी से लाया गया शिवलिंग भी भगवान नर्मदेश्वर के नाम से विख्यात हैं।




Friday, January 29, 2016

मादीपुर में प्राचीन शिव मंदिर

दिल्ली के  है . कहते हैं कि इस मंदिर के शिवलिंग को पांडवों की माँ माद्री द्वारा स्थापित किया गया था . पहले इस इलाके का नाम माद्रीपुर था जो आज मादीपुर हो गया है . इस मंदिर का अभी नवीनीकरण हुआ है व कई नई मूर्तियाँ भी स्थापित हुई हैं . इस मंदिर में प्रतिदिन भक्तों का शिवलिंग पूजन के लिए जमावड़ा रहता है . इसके पास में एक सरोवर भी है जिसे भगवती सरोवर कहते हैं .
 

























श्री गणेश संकट चतुर्थी

श्री गणेश संकट चतुर्थी या सकत चौथ के दिन श्री विध्नहर्ता की पूजा- अर्चना और व्रत करने से व्यक्ति के समस्त संकट दूर होते है. यह व्रत इस वर्ष 27 जनवरी, 2016 को है. माघ माह के कृष्ण पक्ष चतुर्थी के दिन को संकट चौथ के नाम से भी जाना जाता है.
हिन्दू धर्म शास्त्रों में के अनुसार भगवान श्री गणेश कई रुपों में अवतार लेकर प्राणीजनों के दुखों को दूर करते हैं. श्री गणेश मंगलमूर्ति है, सभी देवों में सबसे पहले श्री गणेश का पूजन किया जाता है. श्री गणेश चतुर्थी का उपवास जो भी भक्त संपूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ करता है, उसकी जीवन में आने वाली सभी विध्न बाधाओं का नाश होता है. यह व्रत मुख्यत संतान की कुशलता की कामना व लंबी आयु हेतु भगवान गणेश और माता पार्वती की विधिवत पूजा अर्चना के साथ किया जाता है . व्रत का आरंभ तारों की छांव में करना चाहिए व्रतधारी को पूरा दिन अन्न, जल ग्रहण किए बिना पूजा अर्चना करनी चाहिए और बच्चों की दीर्घायु के लिए कामना करनी चाहिए. इसके बाद संध्या समय पूजा की तैयारी के लिए गुड़, तिल, गन्ने और मूली को उपयोग करना चाहिए. व्रत में यह सामग्री विशेष महत्व रखती है, देर शाम चंद्रोदय के समय व्रतधारी को तिल, गुड़ आदि का अ‌र्घ्य देकर भगवान चंद्र देव से व्रत की सफलता की कामना करनी चाहिए.
व्रत कथा :किसी नगर में एक कुम्हार रहता था । एक बार उसने बर्तन बनाकर आंवा लगाया तो आंवा गर्म ही नहीं हुआ .। हारकर वह राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगा । राजा ने राजपंडित को बुलाकर कारण पूछा तो पंडित ने कहा कि हर बार आंवा लगाते समय बच्चे की बलि देने से आंवा पक जाएगा । राजा का आदेश हो गया । बलि आरम्भ हुई । जिस परिवार की बारी होती वह परिवार अपने बच्चो में से एक बच्चा बलि के लिए भेज देता । इसी तरह कुछ दिनों बाद सकट के दिन एक बुढ़िया के लड़के की बारी आयी । दुखी बुढ़िया सोच रही थी की मेरा तो एक ही बेटा है ,वह भी मुझसे जुदा हो जाएगा । बुढ़िया ने लड़के को सकट की सुपारी और दूब का बीड़ा देकर कहा "भगवान का नाम लेकर आंवा में बैठ जाना । सकट माता रक्षा करेंगी । " बालक आंवा में बिठा दिया गया और बुढ़िया सकट माता के सामने बैठकर पूजा करने लगी । पहले तो आंवा पकने में कई दिन लग जाते थे,पर इस बार सकट माता की कृपा से एक ही रात में आंवा पक गया । सवेरे कुम्हार ने देखा तो हैरान रह गया । आंवा पक गया था । बुढ़िया का बेटा एवं अन्य बालक भी जीवित एंव सुरक्षित थे । नगर वासियों ने सकट की महिमा स्वीकार की तथा लड़के को भी धन्य माना । सकट माता की कृपा से नगर के अन्य बालक भी जी उठे ।
सकट चौथ माता का एक प्रसिद्द मंदिर राजस्थान के अलवर जिले के सकट ग्राम में है .यह स्थान अलवर जिले की राजगढ़ तहसील में अलवर से करीब 60 किलोमीटर दूर है . 
 

राधारानी मंदिर बरसाना

बरसाने में यूं तो कई मंदिर हैं पर यहां का विशेष आकर्षण है-राधारानी
मंदिर। इसकी सुंदरता देखते ही बनती है। यहां राधारानी की प्रतिमा बहुत सुंदर है।
मंदिर में ही वृषभानुजी की मूर्ति है जिसके एक ओर किशोरी सहारा दिए खड़ी हैं तो
दूसरी ओर श्रीदामा खड़े हैं।बरसाना के बीचो-बीच एक पहाड़ी है जो कि बरसाने के मस्तिष्क पर आभूषण के समान है। उसी के ऊपर राधा रानी मंदिर है और इस मंदिर को बरसाने की लाड़ली जी का मंदिर भी कहा जाता है। राधा का प्राचीन मंदिर मध्यकालीन है जो लाल और पीले पत्थर का बना है।
राधा-कृष्ण को समर्पित इस भव्य और सुन्दर मंदिर का निर्माण राजा वीर सिंह ने 1675 में करवाया था। बाद में स्थानीय लोगों द्वारा पत्थरों को इस मंदिर में लगवाया। राधा जी
को प्यार से बरसाना के लोग ललि जी और वृषभानु दुलारी भी कहते हैं। राधाजी के पिता
का नाम वृषभानु और उनकी माताजी का नाम कीर्ति था। राधा रानी का मंदिर बहुत ही
सुन्दर और मनमोहक है। राधा रानी मंदिर कऱीब ढाई सौ मीटर ऊंची पहाड़ी पर बना है और इस मंदिर में जाने के लिए सैकड़ों सीढिय़ां चढऩी पढ़ती है।अभी यहाँ रोपवे बनाने का कार्य प्रारम्भ होने वाला है |

 









ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर इंदौर से 77 किमी एवं मोरटक्का से 13 किमी की दुरी पर भगवान शिव का ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है. यहाँ पर नर्मदा नदी दो भागों में बंट कर मान्धाता या शिवपूरी नामक द्वीप का निर्माण करती है यह द्वीप या टापू करीब 4 किमी लंबा एवं 2 किमी चौड़ा है. इस द्वीप का आकार ॐ समान है.
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
द्वादश ज्योतिर्लिंग में चौथा ओम्कारेश्वर है | स्कन्द पुराण, शिवपुराण व वायुपुराण में ओम्कारेश्वर शेत्र की महिमा का उल्लेख है | ओम्कारेश्वर में 68 तीर्थ है | यहाँ 33 करोड़ देवता विराजमान है | 84 योजन का विस्तार करने वाली माँ नर्मदा का विराट स्वरुप यहाँ पर है | इस प्रणव ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से समस्त पाप भस्म हो जाते है |
पुराणों के अनुसार विन्ध्य पर्वत ने भगवान शिव की पार्थिव लिंग रूप में पूजन व तपस्या की थी एवं भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया एवं प्रणव लिंग के रूप में अवतरित हुए .यह भी कहा जाता है कि देवताओं की प्रार्थना के पश्चात शिवलिंग २ भागो में विभक्त हो गया एवं एक भाग ओम्कारेश्वर एवं दूसरा भाग ममलेश्वर कहलाया. ऐसा कहा जाता है की ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर में एवं पार्थिव लिंग मम्लेश्वर में स्थित है. अन्य कथानुसार इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता ने यहाँ कठोर तपस्या की तब भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया एवं यहाँ प्रकट हुए, तभी से भगवान ओंकारेश्वर में रूप में विराजमान हैं.
मंदिर में एक विशाल सभा मंडप है जो की लगभग 14 फुट ऊँचा है एवं 60 विशालकाय खम्बों पर आधारित है.मंदिर कुल मिला कर 5 मजिलों वाला है एवं सभी पर अलग अलग देवता स्थापित हैं. जो की नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: श्री ओंकारेश्वर , श्री महाकालेश्वर, श्री सिद्धनाथ , श्री गुप्तेश्वर, एवं ध्वजाधारी शिखर देवता हैं.
श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ऐसा एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जो नर्मदा के उत्तर तट पर स्थित है.यहाँ भगवान शिव ओम्कार स्वरुप में प्रकट हुए हैं. एवं ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव व माता पार्वती प्रतिदिन तीनो लोकों में भ्रमण के पश्चात यहाँ आकर विश्राम करते हैं. अतएव यहाँ प्रतिदिन भगवान शिव की शयन आरती की जाती है .
भगवान् ओंकारेश्वर की शयन आरती के पश्चात रात्रि 9 बजे से 9.30 बजे तक भगवान् के शयन दर्शन होते है। जिसमे भगवान् के शयन हेतु चांदी का झूला लगाया जाता है, तथा शयन सेज बिछाई जाती है, तथा सेज पर चोपड़ पासा सजाया जाता है एवं संपूर्ण गर्भगृह का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है।
ओंकारेश्वर आने वालों दर्शनार्थियों के लिए झूला पुल एक विशेष आकर्षण है। यह पुल सीधे मुख्य मंदिर के द्वार तक पहुँचता है. एवं पूरे वर्ष उपयोग में लाया जाता है. यहाँ से नर्मदा नदी ओंकारेश्वर बांध एवं मंदिर का मनोरम द्रश्य दिखलाई पड़ता है।


मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर इंदौर से 77 किमी एवं मोरटक्का से 13 किमी की दुरी पर भगवान शिव का ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है. यहाँ पर नर्मदा नदी दो भागों में बंट कर मान्धाता या शिवपूरी नामक द्वीप का निर्माण करती है यह द्वीप या टापू करीब 4 किमी लंबा एवं 2 किमी चौड़ा है. इस द्वीप का आकार ॐ समान है.
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
द्वादश ज्योतिर्लिंग में चौथा ओम्कारेश्वर है | स्कन्द पुराण, शिवपुराण व वायुपुराण में ओम्कारेश्वर शेत्र की महिमा का उल्लेख है | ओम्कारेश्वर में 68 तीर्थ है | यहाँ 33 करोड़ देवता विराजमान है | 84 योजन का विस्तार करने वाली माँ नर्मदा का विराट स्वरुप यहाँ पर है | इस प्रणव ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से समस्त पाप भस्म हो जाते है |
पुराणों के अनुसार विन्ध्य पर्वत ने भगवान शिव की पार्थिव लिंग रूप में पूजन व तपस्या की थी एवं भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया एवं प्रणव लिंग के रूप में अवतरित हुए .यह भी कहा जाता है कि देवताओं की प्रार्थना के पश्चात शिवलिंग २ भागो में विभक्त हो गया एवं एक भाग ओम्कारेश्वर एवं दूसरा भाग ममलेश्वर कहलाया. ऐसा कहा जाता है की ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर में एवं पार्थिव लिंग मम्लेश्वर में स्थित है. अन्य कथानुसार इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता ने यहाँ कठोर तपस्या की तब भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया एवं यहाँ प्रकट हुए, तभी से भगवान ओंकारेश्वर में रूप में विराजमान हैं.
मंदिर में एक विशाल सभा मंडप है जो की लगभग 14 फुट ऊँचा है एवं 60 विशालकाय खम्बों पर आधारित है.मंदिर कुल मिला कर 5 मजिलों वाला है एवं सभी पर अलग अलग देवता स्थापित हैं. जो की नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: श्री ओंकारेश्वर , श्री महाकालेश्वर, श्री सिद्धनाथ , श्री गुप्तेश्वर, एवं ध्वजाधारी शिखर देवता हैं.
श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ऐसा एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जो नर्मदा के उत्तर तट पर स्थित है.यहाँ भगवान शिव ओम्कार स्वरुप में प्रकट हुए हैं. एवं ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव व माता पार्वती प्रतिदिन तीनो लोकों में भ्रमण के पश्चात यहाँ आकर विश्राम करते हैं. अतएव यहाँ प्रतिदिन भगवान शिव की शयन आरती की जाती है .
भगवान् ओंकारेश्वर की शयन आरती के पश्चात रात्रि 9 बजे से 9.30 बजे तक भगवान् के शयन दर्शन होते है। जिसमे भगवान् के शयन हेतु चांदी का झूला लगाया जाता है, तथा शयन सेज बिछाई जाती है, तथा सेज पर चोपड़ पासा सजाया जाता है एवं संपूर्ण गर्भगृह का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है।
ओंकारेश्वर आने वालों दर्शनार्थियों के लिए झूला पुल एक विशेष आकर्षण है। यह पुल सीधे मुख्य मंदिर के द्वार तक पहुँचता है. एवं पूरे वर्ष उपयोग में लाया जाता है. यहाँ से नर्मदा नदी ओंकारेश्वर बांध एवं मंदिर का मनोरम द्रश्य दिखलाई पड़ता.


मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर इंदौर से 77 किमी एवं मोरटक्का से 13 किमी की दुरी पर भगवान शिव का ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है. यहाँ पर नर्मदा नदी दो भागों में बंट कर मान्धाता या शिवपूरी नामक द्वीप का निर्माण करती है यह द्वीप या टापू करीब 4 किमी लंबा एवं 2 किमी चौड़ा है. इस द्वीप का आकार ॐ समान है.
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
द्वादश ज्योतिर्लिंग में चौथा ओम्कारेश्वर है | स्कन्द पुराण, शिवपुराण व वायुपुराण में ओम्कारेश्वर शेत्र की महिमा का उल्लेख है | ओम्कारेश्वर में 68 तीर्थ है | यहाँ 33 करोड़ देवता विराजमान है | 84 योजन का विस्तार करने वाली माँ नर्मदा का विराट स्वरुप यहाँ पर है | इस प्रणव ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से समस्त पाप भस्म हो जाते है |
पुराणों के अनुसार विन्ध्य पर्वत ने भगवान शिव की पार्थिव लिंग रूप में पूजन व तपस्या की थी एवं भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया एवं प्रणव लिंग के रूप में अवतरित हुए .यह भी कहा जाता है कि देवताओं की प्रार्थना के पश्चात शिवलिंग २ भागो में विभक्त हो गया एवं एक भाग ओम्कारेश्वर एवं दूसरा भाग ममलेश्वर कहलाया. ऐसा कहा जाता है की ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर में एवं पार्थिव लिंग मम्लेश्वर में स्थित है. अन्य कथानुसार इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता ने यहाँ कठोर तपस्या की तब भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया एवं यहाँ प्रकट हुए, तभी से भगवान ओंकारेश्वर में रूप में विराजमान हैं.
मंदिर में एक विशाल सभा मंडप है जो की लगभग 14 फुट ऊँचा है एवं 60 विशालकाय खम्बों पर आधारित है.मंदिर कुल मिला कर 5 मजिलों वाला है एवं सभी पर अलग अलग देवता स्थापित हैं. जो की नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: श्री ओंकारेश्वर , श्री महाकालेश्वर, श्री सिद्धनाथ , श्री गुप्तेश्वर, एवं ध्वजाधारी शिखर देवता हैं.
श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ऐसा एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जो नर्मदा के उत्तर तट पर स्थित है.यहाँ भगवान शिव ओम्कार स्वरुप में प्रकट हुए हैं. एवं ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव व माता पार्वती प्रतिदिन तीनो लोकों में भ्रमण के पश्चात यहाँ आकर विश्राम करते हैं. अतएव यहाँ प्रतिदिन भगवान शिव की शयन आरती की जाती है .
भगवान् ओंकारेश्वर की शयन आरती के पश्चात रात्रि 9 बजे से 9.30 बजे तक भगवान् के शयन दर्शन होते है। जिसमे भगवान् के शयन हेतु चांदी का झूला लगाया जाता है, तथा शयन सेज बिछाई जाती है, तथा सेज पर चोपड़ पासा सजाया जाता है एवं संपूर्ण गर्भगृह का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है।
ओंकारेश्वर आने वालों दर्शनार्थियों के लिए झूला पुल एक विशेष आकर्षण है। यह पुल सीधे मुख्य मंदिर के द्वार तक पहुँचता है. एवं पूरे वर्ष उपयोग में लाया जाता है. यहाँ से नर्मदा नदी ओंकारेश्वर बांध एवं मंदिर का मनोरम द्रश्य दिखलाई है .

 


















Saturday, January 2, 2016

माँ वैष्णो देवी की पुरानी गुफा

माँ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए लाखों भक्त जाते हैं पर बहुत कम लोगों को माँ की पुरानी गुफा से जाकर दर्शन का सौभाग्य मिलता है . अधिक भीड़ होने के कारण यह पुरानी गुफा का रास्ता बहुत कम दिन ही खोला जाता है . पुरानी गुफा की दीवारों पर भी बहुत सुन्दर आकृतियाँ बनी हुई हैं ,पर इस गुफा से जाने वाले सौभाग्यशाली भक्त भी इन आकृतियों को अन्धेरा व भीड़ के कारण देख नहीं पाते हैं .इन आकृतियों के कुछ अति दुर्लभ चित्र आप के लिए प्रस्तुत हैं . यह चित्र अति दुर्लभ हैं |(These images are taken from www.ranima.com which is a beautiful site containing all details about Vaishno Devi Yatra)