Sunday, January 30, 2011

दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्

  • दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्

    (मूल संस्कृत)

    दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् (हिंदी भावानुवाद) Dakshinmurti Stotram (English)

    विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतम्,

    पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यदा निद्रया।

    यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्,

    तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥१

    यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी ...के समान है (अर्थात् अवास्तविक है), स्वयं के भीतर है, मायावश आत्मा ही बाहर प्रकट हुआ सा दिखता है जैसे नींद में अपने अन्दर देखा गया स्वप्न बाहर उत्पन्न हुआ सा दिखाई देता है। जो आत्म-साक्षात्कार के समय यह ज्ञान देते हैं कि आत्मा एक (बिना दूसरे के) है उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१॥

    This world is unreal like the image of a city in the mirror, it exists inside. Due to the power of Maya it looks as if it is manifested outside like in dream we see things outside ourselves. Salutations to Sri Shiva in the form of preceptor, who, at the time of self realization, makes one aware that Atma is without second (i.e. one).॥1॥

    बीजस्यान्तरिवान्कुरो जगदिदं प्राङनिर्विकल्पं पुन-

    र्मायाकल्पितदेशकालकलनावैचित्र्यचित्रीकृतम्।

    मायावीव विजॄम्भयत्यपि महायोगोव यः स्वेच्छया

    तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥२॥

    बीज के अन्दर स्थित अंकुर की तरह पूर्व में निर्विकल्प इस जगत, जो बाद में पुनः माया से भांति - भांति के स्थान, समय , विकारों से चित्रित किया हुआ है, को जो किसी मायावी जैसे, महायोग से, स्वेच्छा से उद्घाटित करते हैं , उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥२॥

    Like a tree inside a seed this world is not manifested initially. Later on it gets manifested due to Maya in space, time and various forms. Salutations to Sri Shiva in the form of preceptor who like a magician, through his yogic powers, transforms it by his own will.॥2॥

    यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पा

    र्थकं भासते

    साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान्।

    यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ

    तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥३॥

    जिनकी प्रेरणा से सत्य आत्म तत्त्व और उसके असत्य कल्पित अर्थ का ज्ञान हो जाता है, जो अपने आश्रितों को वेदों में कहे हुए 'तत्त्वमसि' का प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं, जिनके साक्षात्कार के बिना इस भव-सागर से पार पाना संभव नहीं होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥३॥

    Who inspires to discriminate between the real 'I' and its imagined, unreal meaning; who imparts direct knowledge of 'You are That' as said in Vedas to his dependents; without direct connection with whom, it is impossible to cross this ocean of birth and death, salutations to Sri Shiva in the form of preceptor.॥3॥

    नानाच्छिद्रघटोदरस्तिथमहादीपप्रभाभास्वरं

    ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते।

    जानामीति तमेव भांतमनुभात्येतत्समस्तं जगत्

    तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥४॥

    अनेक छिद्रों वाले घड़े में रक्खे हुए बड़े दीपक के प्रकाश के समान जो ज्ञान आँख आदि इन्द्रियों द्वारा बाहर स्पंदित होता है, जिनकी कृपा से मैं यह जानता हूँ कि उस प्रकाश से ही यह सारा संसार प्रकाशित होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥४॥ Who emanates from eyes and other sense organs like the light of a lamp kept in a vessel with multiple pores; by whose grace, I know that this light only illumines the entire world, salutations to Sri Shiva in the form of preceptor.॥4॥

    देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः

    स्त्रीबालांधजड़ोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः।

    मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिण॓

    तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥५॥

    स्त्रियों, बच्चों, अंधों और मूढ के समान, देह, प्राण, इन्द्रियों, चलायमान बुद्धि और शून्य को 'मैं यह ही हूँ' बोलने वाले मोहित हैं। जो माया की शक्ति के खेल से निर्मित इस महान व्याकुलता का अंत करने वाले हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥५॥

    Those who consider themselves as body, life force, sense organs, dynamic intelligence or nothing are deluded like women, kids, blinds and dull-minded. Who ends this great anxiety due to the play of Maya, salutations to Sri Shiva in the form of preceptor. ॥5॥

    राहुग्रस्तदिवाकरेंदुसदृशो मायासमाच्छादनात्

    संमात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान्।

    प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते

    तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥६॥

    राहु से ग्रसित सूर्य और चन्द्र के समान, माया से सब प्रकार से ढँका होने के कारण, करणों के हट जाने पर अजन्मा सोया हुआ पुरुष प्रकट हो जाता है। ज्ञान देते समय जो यह पहचान करा देते हैं कि पूर्व में सोये हुए यह तुम ही थे, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥६॥

    The unborn, unaware self is properly covered due to Maya like Sun and Moon eclipsed by Rahu. It shines forth once all barriers are removed. Who makes it realize that you are one with that slept self, salutations to Sri Shiva in the form of preceptor.॥6॥

    बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि

    व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा।

    स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया

    तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥७॥

    बचपन आदि शारीरिक अवस्थाओं, जागृत आदि मानसिक अवस्थाओं और अन्य सभी अवस्थाओं में विद्यमान और उनसे वियुक्त (अलग), सदा मैं यह हूँ की स्फुरण करने वाले अपने आत्मा को स्मरण करने पर जो प्रसन्नता एवं सुन्दरता से प्रकट कर देते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥७॥

    Self is ever present in various stages of body like childhood, etc., various stages of mind like waking, etc. and unattached. Who always resonates like 'I am That', who reveals himself happily and beautifully on remembering, salutations to Sri Shiva in the form of preceptor. ॥7॥

    विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः

    शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः।

    स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः

    तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥८॥

    स्वयं के विभिन्न रूपों में जो विश्व को कार्य और कारण सम्बन्ध से, अपने और स्वामी के सम्बन्ध से, गुरु और शिष्य सम्बन्ध से और पिता एवं पुत्र आदि के सम्बन्ध से देखता है, स्वप्न और जागृति में जो यह पुरुष जिनकी माया द्वारा घुमाया जाता सा लगता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥८॥

    Self sees this world in many forms of himself like action and cause, servant and owner, teach er and disciple, father and son, etc. By whose power, Maya; Self looks to be wandering in dream and waking, salutations to Sri Shiva in the form of preceptor.॥8॥

    भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमान्

    इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्।

    नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभो -स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥९॥

    जो भी इस स्थिर और गतिशील जगत में दिखाई देता है, वह जिसके भूमि, जल, अग्नि, वायु , आकाश, सूर्य, चन्द्र और पुरुष आदि आठ रूपों में से है, विचार करने पर जिससे परे कुछ और विद्यमान नहीं है, सर्वव्यापक, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥९॥

    Whatever is seen in this moving and non-moving world is made up of eight forms of Shiva - Earth, Water, Fire, Air, Space, Sun, Moon and Self. On contemplation, there is nothing beyond him, salutations to all pervading Sri Shiva in the form of preceptor.॥9॥

    सर्वात्मत्वमिति स्फुटिकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे

    तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्धयानाच्च संकीर्तनात्।

    सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः

    सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतम् चैश्वर्यमव्याहतम्॥१०॥

    सबके आत्मा आप ही हैं, जिनकी स्तुति से यह ज्ञान हो जाता है, जिनके बारे में सुनने से, उनके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से सबके आत्मारूप आप समस्त विभूतियों सहित ईश्वर स्वयं प्रकट हो जाते हैं और अपने अप्रतिहत (जिसको रोका न जा सके) ऐश्वर्य से जो पुनः आठ रूपों में प्रकट हो जाते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१०॥

    'You are Self of all' is realized by your worship, listening about you, thinking over you, meditating and singing for you. You, the almighty God, are experienced with all your unstoppable grandeur, in eight forms. Salutations to Sri Shiva in the form of preceptor.॥10॥


Friday, January 14, 2011

108 संख्या का महत्व

108 संख्या का महत्व

हिन्दू धर्म में 108 संख्या का बहुत महत्व है | प्रायः सभी देवी देवताओं के 108 नाम का जप किया जाता है |कृष्ण के 108 गोपियाँ थी | जप करने वाली माला में भी 108 मनके होते हैं | इस संख्या से कई रोचक तथ्य जुड़े हैं | इनमें कुछ इस प्रकार हैं -

1 .जन्म पत्रिका में 12 राशियों के 12 घर होते हैं और इन घरों में 9 ग्रहों को स्थापित करते हैं | इस तरह से हर ग्रह 12 जगह स्थापित हो सकता है या फिर 12x9 =108 विभिन्न तरह से जन्म पत्रिका में ग्रह पाए जा सकते हैं |

2 . संस्कृत में 54 अक्षर पाए जाते हैं और हर अक्षर के पुरुष और स्त्री लिंग भेद 108 होते हैं | इस तरह से संस्कृत भाषा में 108 विभिन्न अक्षरों का प्रयोग होता है |

3 .108 की संख्या एक हर्षद नंबर है | हर्षद नंबर उसे कहते हैं जो अपने संख्यायों के कुल योग से भाज्य हो | 1 +0 +8 =9 और 108 को 9 से विभाजित कर सकते हैं |( जैसे 10 ,12 ,18 ,20 ,21 ,24 ,27 ,28 ,30 ,36 ,37 ,40 ,42 ,45 ,46 ,48 ,50 ,54 ,55 ,60 ,63 ,64 ,70 ,72 ,73 ,80 ,81 ,82 ,84 ,90 ,100 ,102 ,108 अन्य हर्षद नंबर हैं )

4 . शास्त्रों के अनुसार मनुष्यों में 108 भौतिक कामनाएं होती हैं और वह 108 तरह के झूठ बोल सकता है |

5 . हृदय चक्र से 108 नाड़ियाँ संचालित होती है | इनमें सबसे महत्वपूर्ण सुसुम्ना नाडी है |

6 .धर्म ग्रंथों में 108 उपनिषद हैं |

7 .श्रीयंत्र में 54 बिंदु होते हैं जहां पर 3 रेखाएं जिन्हें मर्म कहते हैं , मिलती हैं |हर बिंदु के पुरुष वाचक और स्त्री वाचक दो भेद होते हैं | इस तरह से श्री यंत्र में 108 मर्म पाए जाते हैं |

8 .मनुष्य के मन में भूत , वर्त्तमान और भविष्य काल से सम्बंधित भावनाएं होती हैं | कहते हैं कि हर काल से संबधित 36 भावनाएं होती हैं | इस तरह कुल 108 भावनाएं होती हैं |

9 .रसायन शास्त्र के अनुसार 108 तत्व हैं जो पृथ्वी पर मुक्त अवस्था में पाए गए हैं | (In chemistry , there are more than 108 elements but some of them exist only in laboratory)

10.पृथ्वी की सूर्य से दूरी सूर्य के व्यास की 108 गुना है

he distance between the earth and the sun equals about 108 times the sun's diameter ) .

11 .सूर्य का व्यास पृथ्वी के व्यास का 108 गुना है |sun's diameter approximately equals 108 times the earth's diameter.)

12 पृथ्वी से चन्द्रमा की दूरी भी चन्द्रमा के व्यास का 108 गुना है|. the distance between the earth and the moon equals about 108 times the moon's diameter.)

13 .आपने कई जगह एक 3x3 के वर्ग में लिखे हुए 9 अंक देखे होंगे | इस वर्गाकार अंको की आकृति को अत्यंत शुभ मानते हैं और इसे पूजा स्थल और दुकानों में बनाया जाता है|हर लाइन के अंको का योग 15 आता है |

8 1 6

3 5 7

4 9 2

इसमे केंद्र में 5 आता है और बाक़ी सारे अंको का योग 40 आता है | इस तरह केंद्र का बाक़ी सारे अंकों से 1: 8 का अनुपात आता है | यही अनुपात 108 के दोनों अंकों ( 0 को निकालते हुए) आता है |

14 . ऊपर के वर्ग में यदि केंद्र के 5 .अंक में केंद्र के ऊपर, नीचे और बांये, दांये के अंक जोड़ कर देखे तो 5+1 =6

5 +7=12 या 2 ( केवल इकाई का अंक लेने पर )

5 +3 =8

5 +9 =14 या 4 ( केवल इकाई का अंक लेने पर )

अब यदि केंद्र से प्रारंभ कर इन अंको तक लाइन बनाएं तो यह लाइन 5 से 1 से 6 ,

अगली लाइन 5से 7 से 2

अगली लाइन 5 से 3 से 8

अंतिम लाइन 5 से 9 से 4 तक होगी

आप देंखेगे कि आपका शुभ चिन्ह स्वास्तिक बन गया है |

15 Zen priests wear juzu (a ring of prayer beads) around their wrists, which consists of 108 beads. 16 in Japan, at the end of the year, a bell is chimed 108 times to finish the old year and welcome the new one. Each ring represents one of 108 earthly temptations a person must overcome to achieve nirvana.

17 . According to Marma Adi and Ayurveda, there are 108 pressure points in the body, where consciousness and flesh intersect to give life to the living being.

18 .The Chinese school of martial arts agrees with the South Indian school of martial arts on the principle of 108 pressure points.

19 .108 number also figures prominently in the symbolism associated with karate, particularly the Gōjū-ryū discipline. The ultimate Gōjū-ryū has, Suparinpei, literally translates to 108. Suparinpei is the chinese pronunciation of the number 108,

20 An official Major League Baseball baseball has 108 stitches.

21 There are 108 Stars of Destiny to collect in the video game Suikoden distributed by Konami for Playstation

22 The sacred River Ganga spans a longitude of 12 degrees (79 to 91), and a latitude of 9 degrees (22 to 31). 12 times 9 equals 108 .

२३.The Chinese Buddhists and Taoists use a 108 bead mala, which is called su-chu, and has three dividing beads, so the mala is divided into three parts of 36 each. Chinese astrology says that there are 108 sacred stars.

24 There are 108 forms of dance in the Indian traditions


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यज्ञ

यज्ञ

यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं- १- देवपूजा, २-दान, ३-संगतिकरण ।

संगतिकरण का अर्थ है-संगठन । यज्ञ का एक प्रमुख उद्देश्य धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को सत्प्रयोजन के लिए संगठित करना भी है । इस युग में संघ शक्ति ही सबसे प्रमुख है । परास्त देवताओं को पुनः विजयी बनाने के लिए प्रजापति ने उनकी पृथक्-पृथक् शक्तियों का एकीकरण करके संघ-शक्ति के रूप में दुर्गा शक्ति का प्रादुर्भाव किया था । उस माध्यम से उनके दिन फिरे और संकट दूर हुए । मानवजाति की समस्या का हल सामूहिक शक्ति एवं संघबद्धता पर निर्भर है, एकाकी-व्यक्तिवादी-असंगठित लोग दुर्बल और स्वार्थी माने जाते हैं । गायत्री यज्ञों का वास्तविक लाभ सार्वजनिक रूप से, जन सहयोग से सम्पन्न कराने पर ही उपलब्ध होता है ।

यज्ञ का तात्पर्य है- त्याग, बलिदान, शुभ कर्म । अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान् सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है । वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है । हवन हुए पदार्थ् वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं । यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है । इस प्रकार थोड़े ही खर्च एवं प्रयत्न से यज्ञकर्ताओं द्वारा संसार की बड़ी सेवा बन पड़ती है ।

वैयक्तिक उन्नति और सामाजिक प्रगति का सारा आधार सहकारिता, त्याग, परोपकार आदि प्रवृत्तियों पर निर्भर है । यदि माता अपने रक्त-मांस में से एक भाग नये शिशु का निर्माण करने के लिए न त्यागे, प्रसव की वेदना न सहे, अपना शरीर निचोड़कर उसे दूध न पिलाए, पालन-पोषण में कष्ट न उठाए और यह सब कुछ नितान्त निःस्वार्थ भाव से न करे, तो फिर मनुष्य का जीवन-धारण कर सकना भी संभव न हो । इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य का जन्म यज्ञ भावना के द्वारा या उसके कारण ही संभव होता है । गीताकार ने इसी तथ्य को इस प्रकार कहा है कि प्रजापति ने यज्ञ को मनुष्य के साथ जुड़वा भाई की तरह पैदा किया और यह व्यवस्था की, कि एक दूसरे का अभिवर्धन करते हुए दोनों फलें-फूलें ।

यदि यज्ञ भावना के साथ मनुष्य ने अपने को जोड़ा न होता, तो अपनी शारीरिक असमर्थता और दुर्बलता के कारण अन्य पशुओं की प्रतियोगिता में यह कब का अपना अस्तित्व खो बैठा होता । यह जितना भी अब तक बढ़ा है, उसमें उसकी यज्ञ भावना ही एक मात्र माध्यम है । आगे भी यदि प्रगति करनी हो, तो उसका आधार यही भावना होगी ।

प्रकृति का स्वभाव यज्ञ परंपरा के अनुरूप है । समुद्र बादलों को उदारतापूर्वक जल देता है, बादल एक स्थान से दूसरे स्थान तक उसे ढोकर ले जाने और बरसाने का श्रम वहन करते हैं । नदी, नाले प्रवाहित होकर भूमि को सींचते और प्राणियों की प्यास बुझाते हैं । वृक्ष एवं वनस्पतियाँ अपने अस्तित्व का लाभ दूसरों को ही देते हैं । पुष्प और फल दूसरे के लिए ही जीते हैं । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु आदि की क्रियाशीलता उनके अपने लाभ के लिए नहीं, वरन् दूसरों के लिए ही है । शरीर का प्रत्येक अवयव अपने निज के लिए नहीं, वरन् समस्त शरीर के लाभ के लिए ही अनवरत गति से कार्यरत रहता है । इस प्रकार जिधर भी दृष्टिपात किया जाए, यही प्रकट होता है कि इस संसार में जो कुछ स्थिर व्यवस्था है, वह यज्ञ वृत्ति पर ही अवलम्बित है । यदि इसे हटा दिया जाए, तो सारी सुन्दरता, कुरूपता में और सारी प्रगति, विनाश में परिणत हो जायेगी । ऋषियों ने कहा है- यज्ञ ही इस संसार चक्र का धुरा है । धुरा टूट जाने पर गाड़ी का आगे बढ़ सकना कठिन है ।

यज्ञीय विज्ञान

मन्त्रों में अनेक शक्ति के स्रोत दबे हैं । जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास ये युक्त शब्दों की रचना करने से अनेक राग-रागनियाँ बजती हैं और उनका प्रभाव सुनने वालों पर विभिन्न प्रकार का होता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण से भी एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर, सूक्ष्म जगत् पर तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है ।

यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्त्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं । डी.डी.टी., फिनायल आदि छिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिक कारगर उपाय यज्ञ करना है । साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है । दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और सभी प्राणियों की भी सुरक्षा करती है । मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है ।

यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है । जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है । प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे । जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं । महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं । उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है ।

कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है । इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है । यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्वर्ग जैसे आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग देने वाला कहा गया है ।

यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-विक्षेप दूर होते हैं । फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश जगता है । यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मण तत्त्व, ऋषि तत्त्व की वृद्धि होती है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का परम लक्ष्य बहुत सरल हो जाता है । आत्मा और परमात्मा को जोड़ देने का, बाँध देने का कार्य यज्ञाग्नि द्वारा ऐसे ही होता है, जैसे लोहे के टूटे हुए टुकड़ों को बैल्डिंग की अग्नि जोड़ देती है । ब्राह्मणत्व यज्ञ के द्वारा प्राप्त होता है । ब्राह्मण वृत्ति बढ़े, इसके लिए वातावरण में यज्ञीय प्रभाव की शक्ति भरना आवश्यक है ।

विधिवत् किये गये यज्ञ इतने प्रभावशाली होते हैं, जिसके द्वारा मानसिक दोषों- दुर्गुणों का निष्कासन एवं सद्भावों का अभिवर्धन नितान्त संभव है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशय आदि मानसिक उद्वेगों की चिकित्सा के लिए यज्ञ एक विश्वस्त पद्धति है । शरीर के असाध्य रोगों तक का निवारण उससे हो सकता है ।

अग्निहोत्र के भौतिक लाभ भी हैं । वायु को हम मल, मूत्र, श्वास तथा कल-कारखानों के धुआँ आदि से गन्दा करते हैं । गन्दी वायु रोगों का कारण बनती है । वायु को जितना गन्दा करें, उतना ही उसे शुद्ध भी करना चाहिए । यज्ञों से वायु शुद्ध होती है । इस प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा का एक बड़ा प्रयोजन सिद्ध होता है ।

यज्ञ का धूम्र आकाश में-बादलों में खाद बनकर मिल जाता है । वर्षा के जल के साथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी परिपुष्ट होते हैं । यज्ञ अग्नि के माध्यम से शक्तिशाली बने मन्त्रोच्चार की ध्वनि कम्पन, सुदूर क्षेत्र में बिखरकर लोगों का मानसिक परिष्कार करते हैं, फलस्वरूप शरीर के साथ साथ मानसिक स्वास्थ्य भी बढ़ता है ।

अनेक प्रयोजनों के लिए-अनेक कामनाओं की पूर्ति के लिए, अनेक विधानों के साथ, अनेक विशिष्ट यज्ञ भी किये जा सकते हैं । दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार उत्कृष्ट सन्तानें प्राप्त की थीं, अग्निपुराण में तथा उपनिषदों में वर्णित पंचाग्नि विद्या में ये रहस्य बहुत विस्तारपूर्वक बताये गये हैं । विश्वामित्र आदि ऋषि प्राचीनकाल में असुरता निवारण के लिए बड़े-बड़े यज्ञ करते थे । राम-लक्ष्मण को ऐसे ही एक यज्ञ की रक्षा के लिए स्वयं जाना पड़ा था । लंका युद्ध के बाद राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे । महाभारत के पश्चात् कृष्ण ने भी पाण्डवों से एक महायज्ञ कराया था, उनका उद्देश्य युद्धजन्य विक्षोभ से क्षुब्ध वातावरण की असुरता का समाधान करना ही था । जब कभी आकाश के वातावरण में असुरता की मात्रा बढ़ जाए, तो उसका उपचार यज्ञ प्रयोजनों से बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता । आज पिछले दो महायुद्धों के कारण जनसाधारण में स्वार्थपरता की मात्रा अधिक बढ़ जाने से वातावरण में वैसा ही विक्षोभ फिर उत्पन्न हो गया है । उसके समाधान के लिए यज्ञीय प्रक्रिया को पुनर्जीवित करना आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक हो गया है ।

यज्ञीय प्रेरणाएँ

यज्ञ आयोजनों के पीछे जहाँ संसार की लौकिक सुख-समृद्धि को बढ़ाने की विज्ञान सम्मत परंपरा सन्निहित है-जहाँ देव शक्तियों के आवाहन-पूजन का मंगलमय समावेश है, वहाँ लोकशिक्षण की भी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है । यज्ञ का दृश्य दिखाकर लोगों को यह भी समझाया जाता है कि हमारे जीवन की प्रधान नीति 'यज्ञ' भाव से परिपूर्ण होनी चाहिए । हम यज्ञ आयोजनों में लगें-परमार्थ परायण बनें और जीवन को यज्ञ परंपरा में ढालें । हमारा जीवन यज्ञ के समान पवित्र, प्रखर और प्रकाशवान् हो । गंगा स्नान से जिस प्रकार पवित्रता, शान्ति, शीतलता, आदरता को हृदयंगम करने की प्रेरणा ली जाती है, उसी प्रकार यज्ञ से तेजस्विता, प्रखरता, परमार्थ-परायणता एवं उत्कृष्टता का प्रशिक्षण मिलता है । यज्ञ की प्रक्रिया को जीवन यज्ञ का एक रिहर्सल कहा जा सकता है । घी, शक्कर, मेवा, औषधियाँ आदि बहुमूल्य वस्तुएँ जिस प्रकार हम परमार्थ प्रयोजनों में होम करते हैं, उसी तरह अपनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, समृद्धि, सार्मथ्य आदि को भी विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए । इस नीति को अपनाने वाले व्यक्ति न केवल समाज का, बल्कि अपना भी सच्चा कल्याण करते हैं । संसार में जितने भी महापुरुष, देवमानव हुए हैं, उन सभी को यही नीति अपनानी पड़ी है । जो उदारता, त्याग, सेवा और परोपकार के लिए कदम नहीं बढ़ा सकता, उसे जीवन की सार्थकता का श्रेय और आनन्द भी नहीं मिल सकता ।

यज्ञीय प्रेरणाओं का महत्त्व समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है । उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं । वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-

१- जो कुछ हम बहुमूल्य पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, उसे वह अपने पास संग्रह करके नहीं रखती, वरन् उसे सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है । ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग हम भी वैसा ही करें, जो हमारा यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है । हमारी शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम उपयोग हमारे लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए ।

२- जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने में आत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है । जो पिछड़े या छोटे या बिछुड़े व्यक्ति अपने सम्पर्क में आएँ, उन्हें हम आत्मसात् करने और समान बनाने का आदर्श पूरा करें ।

३- अग्नि की लौ कितना ही दबाव पड़ने पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है । प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, हम अपने विचारों और कार्यों की अधोगति न होने दें । विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें ।

४- अग्नि जब तक जीवित है, उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहीं छोड़ती । उसी प्रकार हमें भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी घटने नहीं देनी चाहिए । जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ बने रहना चाहिए ।

५- यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हमें सीखना होता है कि मानव जीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है । इसलिए अपने अन्त को ध्यान में रखते हुए जीवन के हर पल के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए ।

अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायुरूप में बनाकर उन्हें समस्त जड़-चेतन प्राणियों को बिना किसी अपने-पराये, मित्र-शत्रु का भेद किये साँस द्वारा इस प्रकार गुप्तदान के रूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिक तत्त्व खिला दिया, सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है, कम खर्च में बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है ।

यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है । अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है । होली आदि पर्वों पर किये जाने वाले यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं । यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं ।

प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है । यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है । यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है । धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है ।

गायत्री सद्बुद्धि की देवी और यज्ञ सत्कर्मों का पिता है । सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टि से सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है । गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत ही सरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है । जगत् के दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधन करने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी है और अद्वितीय भी ।

लोकमंगल के लिए, जन-जागरण के लिए, वातावरण के परिशोधन के लिए स्वतंत्र रूप से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न किये जाते हैं । संस्कारों और पर्व-आयोजनों में भी उसी की प्रधानता है ।

प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को यज्ञ प्रक्रिया से परिचित होना ही चाहिए ।

Sunday, January 9, 2011

विश्वामित्र

विश्वामित्र

विश्वामित्र वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। ऋषि विश्वामित्र बड़े ही प्रतापी और तेजस्वी महापुरुष थे। ऋषि धर्म ग्रहण करने के पूर्व वे बड़े पराक्रमी और प्रजावत्सल नरेश थे।

क्षत्रिय राजा के रूप में विश्वामित्र :

प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। विश्वामित्र जी उन्हीं गाधि के पुत्र थे। एक दिन राजा विश्वामित्र अपनी सेना को लेकर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गये। विश्वामित्र जी उन्हें प्रणाम करके वहीं बैठ गये। वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र जी का यथोचित आदर सत्कार किया और उनसे कुछ दिन आश्रम में ही रह कर आतिथ्य ग्रहण करने का अनुरोध किया। इस पर यह विचार करके कि मेरे साथ विशाल सेना है और सेना सहित मेरा आतिथ्य करने में वशिष्ठ जी को कष्ट होगा, विश्वामित्र जी ने नम्रता पूर्वक अपने जाने की अनुमति माँगी किन्तु वशिष्ठ जी के अत्यधिक अनुरोध करने पर थोड़े दिनों के लिये उनका आतिथ्य स्वीकार कर लिया।

वशिष्ठ जी ने कामधेनु गाय का आह्वान करके विश्वामित्र तथा उनकी सेना के लिये छः प्रकार के व्यंजन तथा समस्त प्रकार के सुख सुविधा की व्यवस्था कर दिया। वशिष्ठ जी के आतिथ्य से विश्वामित्र और उनके साथ आये सभी लोग बहुत प्रसन्न हुये।

कामधेनु गाय का चमत्कार देखकर विश्वामित्र ने उस गाय को वशिष्ठ जी माँगा पर वशिष्ठ जी बोले राजन! यह गाय मेरा जीवन है और इसे मैं किसी भी कीमत पर किसी को नहीं दे सकता।

वशिष्ठ जी के इस प्रकार कहने पर विश्वामित्र ने बलात् उस गाय को पकड़ लेने का आदेश दे दिया और उसके सैनिक उस गाय को डण्डे से मार मार कर हाँकने लगे। कामधेनु गाय ने क्रोधित होकर उन सैनिकों से अपना बन्धन छुड़ा लिया और वशिष्ठ जी के पास आकर विलाप करने लगी। वशिष्ठ जी बोले कि हे कामधेनु! यह राजा मेरा अतिथि है इसलिये मैं इसको शाप भी नहीं दे सकता| इसके पास विशाल सेना होने के कारण इससे युद्ध में भी विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मैं स्वयं को विवश अनुभव कर रहा हूँ। उनके इन वचनों को सुन कर कामधेनु ने कहा कि हे ब्रह्मर्षि! एक ब्राह्मण के बल के सामने क्षत्रिय का बल कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता। आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं एक क्षण में इस क्षत्रिय राजा को उसकी विशाल सेनासहित नष्ट कर दूँगी। और कोई उपाय न देख कर वशिष्ठ जी ने कामधेनु को अनुमति दे दी।

आज्ञा पाते ही कामधेनु ने योगबल से अत्यंत पराक्रमी मारक शस्त्रास्त्रों से युक्त पराक्रमी योद्धाओं को उत्पन्न किया जिन्होंने शीघ्र ही शत्रु सेना को गाजर मूली की भाँति काटना आरम्भ कर दिया। अपनी सेना का नाश होते देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त कुपित हो वशिष्ठ जी को मारने दौड़े। वशिष्ठ जी ने उनमें से एक पुत्र को छोड़ कर शेष सभी को भस्म कर दिया।

अपनी सेना तथा पुत्रों के के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र को राज सिंहासन सौंप कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। कठोर तपस्या करके विश्वामित्र जी ने महादेव जी को प्रसन्न कर लिया ओर उनसे दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।

महर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोध

इस प्रकार सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र बदला लेने के लिये वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे। उन्हें ललकार कर विश्वामित्र ने अग्निबाण चला दिया। वशिष्ठ जी ने भी अपना धनुष संभाल लिया और बोले कि मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तू मुझ पर वार कर। आज मैं तेरे अभिमान को चूर-चूर करके बता दूँगा कि क्षत्रिय बल से ब्रह्म बल श्रेष्ठ है। क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, रुद्रास्त्र, ऐन्द्रास्त्र तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ दिया जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर मानव, मोहन, गान्धर्व, जूंभण, दारण, वज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश, पिनाक, दण्ड, पैशाच, क्रौंच, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्य, मंथन, कंकाल, मूसल, विद्याधर, कालास्त्र आदि सभी अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। वशिष्ठ जी ने उन सबको नष्ट करके ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। ब्रह्मास्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगा। सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है। अब आप ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शान्त करें। इस प्रार्थना से द्रवित होकर उन्होंने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाया और मन्त्रों से उसे शान्त किया।

पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देह क्षत्रिय बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नीसहित दक्षिण दिशा की और चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन-यापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नहीँ, वे दुःखी ही हुये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये।"

त्रिशंकु की स्वर्गयात्रा

इस बीच इक्ष्वाकु वंश में त्रिशंकु नाम के एक राजा हुये। त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे अतः इसके लिये उन्होंने वशिष्ठ जी अनुरोध किया किन्तु वशिष्ठ जी ने इस कार्य के लिये अपनी असमर्थता जताई। त्रिशंकु ने यही प्रार्थना वशिष्ठ जी के पुत्रों से भी की जो दक्षिण प्र|न्त में घोर तपस्या कर रहे थे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कहा कि जिस काम को हमारे पिता नहीं कर सके तुम उसे हम से कराना चाहते हो । ऐसा प्रतीत होता है कि तू हमारे पिता का अपमान करने के लिये यहाँ आया है। उनके इस प्रकार कहने से त्रिशंकु ने क्रोधित होकर वशिष्ठ जी के पुत्रों को अपशब्द कहे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चाण्डाल हो जाने का शाप दे दिया।

शाप के कारण त्रिशंकु चाण्डाल बन गये तथा उनके मन्त्री तथा दरबारी उनका साथ छोड़कर चले गये। फिर भी उन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा का परित्याग नहीं किया। वे विश्वामित्र के पास जाकर अपनी इच्छा को पूर्ण करने का अनुरोध किया। विश्वामित्र ने कहा तुम मेरी शरण में आये हो। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा। इतना कहकर विश्वामित्र ने अपने पुत्र को बुलाया| और उसे यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये कहा। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कि वशिष्ठ के पुत्रों सहित वन में रहने वाले सब ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण दे आओ।

सभी ऋषि-मुनियों ने उनके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया किन्तु वशिष्ठ जी के पुत्रों ने यह कहकर उस निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया कि जिस यज्ञ में यजमान चाण्डाल और पुरोहित क्षत्रिय हो उस यज्ञ का भाग हम स्वीकार नहीं कर सकते। यह सुनकर विश्वामित्र जी ने क्रुद्ध होकर उन्हें कालपाश में बँध कर यमलोक जाने और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करने का शाप दे दिया और यज्ञ की तैयारी में लग गये।

विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठ जी के पुत्र यमलोक चले गये। वशिष्ठ जी के पुत्रों के परिणाम से भयभीत सभी ऋषि मुनियों ने यज्ञ में विश्वामित्र का साथ दिया। यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्ध्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ। इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुये आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुये स्वर्ग जा पहुँचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गये। त्रिशंकु की पीड़ा की कल्पना करके विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया। इसके बाद उन्होंने नये इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिये लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे।

इन्द्र की बात सुन कर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने अपने स्थानों को वापस चले गये।

विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति

देवताओं के चले जाने के बाद विश्वामित्र भी ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये पूर्व दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लगे‌।‌ इस तपस्या को भ़ंग करने के लिए नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित हुए किन्तु उन्होंने बिना क्रोध किये ही उन सबका निवारण किया। तपस्या की अवधि समाप्त होने पर जब वे अन्न ग्रहण करने के लिए बैठे, तभी ब्राह्मण भिक्षुक के रुप में आकर इन्द्र ने भोजन की याचना की| विश्वामित्र ने सम्पूर्ण भोजन उस याचक को दे दिया और स्वयं निराहार रह गये इन्द्र को भोजन देने के पश्चात विश्वामित्र के मन में विचार आया कि सम्भवत: अभी मेरे भोजन ग्रहण करने का समय नहीं आया है इसीलिये याचक के रूप में यह विप्र उपस्थित हो गया। मुझे अभी और तपस्या करना चाहिये। अतएव वे मौन रहकर फिर दीर्घकालीन तपस्या में लीन हो गये। इस बार उन्होंने प्राणायाम से श्वाँस रोक कर महादारुण तप किया। इस तप से प्रभावित देवताओं ने ब्रह्माजी से निवेदन किया कि भगवन्! विश्वामित्र की तपस्या अब पराकाष्ठा को पहुँच गई है। अब वे क्रोध और मोह की सीमाओं को पार कर गये हैं। अब इनके तेज से सारा संसार प्रकाशित हो उठा है। सूर्य और चन्द्रमा का तेज भी इनके तेज के सामने फीका पड़ गया है। अतएव आप प्रसन्न होकर इनकी अभिलाषा पूर्ण कीजिये।

देवताओं के इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी उन्हें सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण की उपाधि प्रदान की किन्तु विश्वामित्र ने कहा कि हे भगवन्! जब आपने मुझे यह वरदान दिया है तो मुझे ओंकार, षट्कार तथा चारों वेद भी प्रदान कीजिये। प्रभो! अपनी तपस्या को मैं तभी सफल समझूँगा जब वशिष्ठ जी मुझे ब्राह्मण और ब्रह्मर्षि मान लेंगे।

महर्षि वशिष्ठ द्वारा मान्यता

विश्वामित्र की बात सुन कर सब देवताओं ने वशिष्ठ जी का पास जाकर उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया। उनकी तपस्या की कथा सुनकर वशिष्ठ जी विश्वामित्र के पास पहुँचे और उन्हें अपने हृदय से लगा कर बोले कि विश्वामित्र जी! आप वास्तव में ब्रह्मर्षि हैं। मैं आज से आपको ब्राह्मण स्वीकार करता हूँ।



मकर संक्रान्ति

मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रान्ति पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है जब इस पर्व को मनाया जाता है । यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ( जब सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है ) पड़ता है । मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारम्भ होती है । इसलिये इसको उत्तरायणी भी कहते हैं। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल 'संक्रान्ति' कहते हैं।

भारत में मकर संक्रान्ति के विविध रूप

संपूर्ण भारत में मकर संक्रांति विभिन्न रूपों में मनाया जाता है।

हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जलाता है। इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेवड़ियाँ आपस में बांटकर खुशियां मनाते हैं। बहुएं घर घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मांगती हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिए लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारंपरिक मक्के की रोटी और सरसों की साग का भी लुत्फ उठाया जाता है।

उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से 'दान का पर्व' है । इलाहाबाद में यह पर्व माघ मेले के नाम से जाना जाता है। १४ जनवरी से इलाहाबाद मे हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है। १४ दिसम्बर से १४ जनवरी का समय खर मास के नाम से जाना जाता है। और उत्तर भारत मे इस एक महीने मे किसी भी अच्छे कार्य को अंजाम नही दिया जाता । मसलन शादी-ब्याह नही किये जाते हैं | १४ जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से अच्छे दिनों की शुरुआत होती है । माघ मेला पहला स्नान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि तक यानी आख़िरी स्नान तक चलता है। संक्रान्ति के दिन स्नान के बाद दान करने का भी चलन है। इस दिन गंगा स्नान करके , तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। इस पर्व पर भी क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े मेले लगते है। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी सेवन एवं खिचड़ी दान का अत्यधिक महत्व होता है। इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है।

महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएं अपनी पहली संक्रांति पर कपास, तेल, नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं :- `लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला` अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं।

छः प्रकार से तिल का उपभोग शुभ :इस पर्व पर छः प्रकार से तिल का उपभोग करना शुभ होता है। जिसमें तिल मिले जल, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का भोजन, तिल का दान, तिल मिले जल का पीना शुभ माना जाता है। साथ ही सुहागिनों को सुहाग वस्तुओं, नये बर्तन, पायल, बिछिया आदि का दान करना चाहिए।

बंगाल में इस पर्व पर स्नान पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। यहां गंगासागर में प्रतिवर्ष विशाल मेला लगता है। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मान्यता यह भी है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए व्रत किया था। इस दिन गंगासागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीड़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वर्ष में केवल एक दिन-मकर संक्रांति को यहां लोगों की अपार भीढ़ होती है। इसीलिए कहा जाता है-`सारे तीरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार।`

तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। प्रथम दिन भोगी-पोंगल, द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल, तृतीय दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल, चौथे व अंतिम दिन कन्या-पोंगल। इस प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।

असम में मकर संक्रांति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं। राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएं अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएं किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं। अत: मकर संक्रांति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखती है।

मकर संक्रान्ति का महत्व

शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है।

मकर संक्रांति के दिन घृत कम्बल दान की बड़ी महिमा बताई गई है। जैसे-

माघे मासि महादेवे यः कूर्याद् घृतकम्बलम्‌। स भुक्त्वा सकलान्भोगानन्ते मोक्षं च विन्दति।

नरा भूपतयो जाता घृतकम्बल दानतः। जातिस्मराश्च ते जाता मुक्ताश्चान्ते शिवार्चकः॥

अर्थात् माघ मास में जो घृत कम्बल करता है। वह अनेकों भोगों को भोग कर अन्त में मोक्ष पा जाता है। घृत कम्बल देने से मनुष्य राजा हो गए, वे शिव पूजकर जातिस्मर और मुक्त हो गए। घृत कम्बल का तात्पर्य घी एवं कम्बल नहीं होता है।

शिव रहस्य में कहा गया है कि गाय के उत्तम घी को लेकर उसे हल्का गर्म कर दें। पुनः उसे ठंडा होने दें। वह घी थोड़ी देर में जम जाएगा। यह वजन में साढ़े तीन सेर होना चाहिए। यही घृत का महाकम्बल कहा जाता है। इसका चौथाई घी शाम को मंदिर में ले जाए। पहले किसी अन्य घी से शिवलिंग को स्नान कराएँ। बाद में वह शिवलिंग पर रख दें। 20 पल बाद में उसे शिवलिंग से नीचे उतार लें। उसके बाद दोनों तिल, सरसों, बिल्वपत्र और सुवर्ण रंग के कमल के फूल से भगवान शिव की पूजा करें। आरती पूजन के बाद वह घी किसी ब्राह्मण को दान कर दें। मकर संक्रांति के दिन किया जाने वाला यही महाघृतकम्बल कहा जाता है।

मकर संक्रांति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यंत शुभकारक माना गया है। इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गई है। सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किंतु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यंत फलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छ:-छ: माह के अंतराल पर होती है। भारत देश उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है। मकर संक्रांति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है अर्थात भारत से दूर होता है। इसी कारण यहां रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है, किंतु मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। अत: इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा। अत: मकर संक्रांति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्यशक्ति में वृद्धि होगी। ऐसा जानकर संपूर्ण भारतवर्ष में लोगों द्वारा विविध रूपों में सूर्यदेव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जाती है। सामान्यत: भारतीय पंचांग की समस्त तिथियां चंद्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती हैं, किंतु मकर संक्रांति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है। इसी कारण यह पर्व प्रतिवर्ष 14 जनवरी को ही पड़ता है।

मकर संक्रान्ति का ऐतिहासिक महत्व

माना जाता है कि इस दिन भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं।

Wednesday, January 5, 2011

पावागढ़ शक्तिपीठ


पावागढ़ शक्तिपीठ

काली माता का यह प्रसिद्ध मंदिर माँ के शक्तिपीठों में से एक है। शक्तिपीठ उन पूजा स्थलों को कहा जाता है, जहाँ सती माँ के अंग गिरे थे। पुराणों के अनुसार पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित हुई सती ने योगबल द्वारा अपने प्राण त्याग दिए थे। सती की मृत्यु से व्यथित शिवशंकर उनके मृत शरीर को लेकर तांडव करते हुए ब्रह्मांड में भटकते रहे। इस समय माँ के अंग जहाँ-जहाँ गिरे वहीं शक्तिपीठ बन गए। माना जाता है कि पावागढ़ में माँ के वक्षस्थल गिरे थे|

जगतजननी के स्तन गिरने के कारण इस जगह को बेहद पूजनीय और पवित्र माना जाता है। यहाँ की एक खास बात यह भी है कि यहाँ दक्षिण मुखी काली माँ की मूर्ति है, जिसकी दक्षिण रीति अर्थात तांत्रिक पूजा की जाती है।

इस पहाड़ी को गुरु विश्वामित्र से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि गुरु विश्वामित्र ने यहाँ काली माँ की तपस्या की थी। यह भी माना जाता है कि काली माँ की मूर्ति को विश्वामित्र ने ही प्रतिष्ठित किया था। यहाँ बहने वाली नदी का नामाकरण भी उन्हीं के नाम पर ‘विश्वामित्र’ किया गया है। इसी तरह पावागढ़ के नाम के पीछे भी एक कहानी है। कहा जाता है कि इस दुर्गम पर्वत पर चढ़ाई लगभग असंभव काम था। चारों तरफ खाइयों से घिरे होने के कारण यहाँ हवा का वेग भी चहुँतरफा था, इसलिए इसे पावागढ़ अर्थात ऐसी जगह कहा गया जहाँ पवन का वास हो।

यह मंदिर गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण के पास स्थित है, जो वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। पावागढ़ मंदिर ऊँची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। काफी ऊँचाई पर बने इस दुर्गम मंदिर की चढ़ाई बेहद कठिन है। अब सरकार ने यहाँ रोप-वे सुविधा उपलब्ध करवा दी है, जिसके जरिये आप पहाड़ी तक आसानी से पहुँच सकते हैं। यह सुविधा माछी से शुरू होती है। यहाँ से रोप-वे लेकर श्रद्धालु पावागढ़ पहाड़ी के ऊपरी हिस्से तक पहुँचते हैं। रोप-वे से उतरने के बाद आपको लगभग 250 सीढ़ियाँ चढ़ना होंगी, तब जाकर आप मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुँचेंगे।

नवरात्र के समय इस मंदिर में श्रद्धालुओं की खासी भीड़ उमड़ती है। लोगों की यहाँ गहरी आस्था है। उनका मानना है कि यहाँ दर्शन करने के बाद माँ उनकी हर मुराद पूरी कर देती है।