Thursday, October 15, 2015

चूड़ियाँ पहनने के वैज्ञानिक लाभ:

चूड़ियाँ पहनने के वैज्ञानिक लाभ:
हिंदू धर्म में वैदिक काल से महिलाएँ अपने हाथों में चूड़ियाँ पहनती रही हैं। चूड़ियाँ सोलह शृंगारों में से एक हैं तथा महिलाओं के सुहागन होने का प्रतीक हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार जो विवाहित महिलाएँ चूड़ियाँ पहनती हैं, उनके पति की आयु लंबी होती है। इन सबके साथ-साथ चूड़ियाँ स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अत्यंत लाभप्रद हैं। चूड़ियाँ पहनने से होने वाले लाभ चूड़ियों में प्रयुक्त धातु, चूड़ियों की संख्या, चूड़ियों का रंग आदि पर निर्भर करते हैं।
1. महिलाएँ शारीरिक दृष्टि से पुरुषों की तुलना में अधिक कोमल होती हैं। चूड़ियाँ
पहनने से महिलाओं को शारीरिक रूप से शक्ति प्राप्त होती है। उन्हें कमजोरी और शारीरिक शक्ति का अभाव महसूस नहीं होता।
2. आयुर्वेद के अनुसार सोने और चाँदी की भस्म शरीर के लिए बलवर्धक होती है। सोने और चाँदी की चूड़ियाँ पहनने से जब ये शरीर के साथ घर्षण करती हैं, तो इनसे शरीर को इन धातुओं के शक्तिशाली तत्व प्राप्त होते हैं, जो महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होते हैं और वे अधिक आयु तक स्वस्थ रह सकती हैं।
3. जिस धातु से चूड़ियाँ बनी होती हैं, उस धातु का महिला के स्वास्थ्य के साथ-साथउसके आसपास के वातावरण पर भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए प्लास्टिक से बनी चूड़ियाँ रज-तम प्रभाव वाली होती हैं और वातावरण में से नकारात्मक ऊर्जा अपनी ओर खींचती हैं। अतः डॉक्टरों के अनुसार प्लास्टिक की चूड़ियाँ पहनने से महिलाएँ अनेक बार स्वयं को बीमार महसूस करती हैं।
4. धार्मिक मान्यता के अनुसार कांच की चूड़ियाँ सात्विक होती हैं और उन्हें पहनने से महिला के पति तथा पुत्र का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। वहीं, विज्ञान का मानना है कि कांच की चूड़ियों की ध्वनि से वातावरण में उपस्थित नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
5. चूड़ियों की संख्या अधिक होने पर उनका महत्व भी कई गुणा अधिक बढ़ जाता है। विज्ञान का भी मानना है कि जब महिलाएँ अपने दोनों हाथों में अधिक संख्या में चूड़ियाँ पहनती हैं तो इससे एक विशेष ऊर्जा उत्पन्न होती है।
6. धार्मिक मान्यता के अनुसार चूड़ियाँ टूटना या उनमें दरार आना महिला या उससे जुड़े व्यक्तियों के लिए एक अपशकुन है। विज्ञान का मानना है कि जब महिला के आसपास के वातावरण में साधारण से अधिक नकारात्मक ऊर्जा हो जाती है, तो वह उस महिला को घेरने लगती है और सर्वप्रथम उसकी चूड़ियों पर प्रहार करती है। यह नकारात्मक ऊर्जा चूड़ियों के भीतर प्रविष्ट होकर धीरे-धीरे उन्हें नष्ट करने लगती है। यदि दरार आने पर भी चूड़ियाँ उतारी ना जाएं, तो यह नकारात्मक ऊर्जामहिला के स्वास्थ्य पर कुप्रभावडालने लगती है।
7. चूड़ियों के रंग भी महिलाओं के स्वास्थ्य और उसके वैवाहिक जीवन पर अपना प्रभाव डालते हैं। लोकप्रचलित मान्यता के अनुसार नवविवाहित स्त्रियों को हरे एवं लाल रंग की कांच की चूड़ियाँ पहनने के लिए कहा जाता है, क्योंकि हरा रंग प्रकृति देवी का है। जिस प्रकार एक वृक्ष अपनी छाया से लोगों को खुशहाली प्रदान करता है, उसी प्रकार हरे रंग की चूड़ियाँ उनके दाम्पत्य जीवन में खुशहाली लाती हैं। इसी प्रकार लाल रंग उस महिला को आदि शक्ति से जोड़ता है। लाल रंग प्रेम का भी प्रतीक है, अतः लाल रंग की चूड़ियाँ पहनने से दाम्पत्य प्रेम में वृद्धि होती है और वैवाहिक जीवन सुखी रहता है।

गोवर्धन पर्वत धारण करने पर नीचे की भुमि जलमग्न क्यों नहीं हुई?

गोवर्धन पर्वत धारण करने पर नीचे की भुमि जलमग्न क्यों नहीं हुई? एक समय शिवजी ने पार्वती जी के सामने सन्तों की बड़ी महिमा गाई। सन्तों की महिमा सुनकर पार्वती जी की श्रद्धा उमड़ी और उसी दिन उन्होंने श्री अगस्त्य मुनि को भोजन का निमन्त्रण दे डाला तथा शिवजी को बाद में इस बाबत बतलाया तो सुनकर शिवजी हंसे और कहा “आज ही तो सन्तों में श्रद्धा हुई और आज ही ऐसे सन्त को न्यौता दे दिया। अगर किसी को भोजन कराना ही था, तो किसी कम भोजन करने वाले मुनि को ही न्यौता दे देती। तुम अगस्त्य को नहीं जानती तीन चुल्लू में समुद्र सोख गए थे। भला इनका पेट भरना कोई हंसी खेल है। यदि भुखे रह गए तो लोक में बड़ी निन्दा होगी। जीवन में एक बार शिव के यहाँ गए और भूखे ही लौटे। भद्रे! कार्य विचार कर नहीं किया।” पार्वती जी बोलीं-“अब तो न्यौता दे ही दिया उसमें उलट-फेर होने की नहीं, चाहे जो भी हो।” शिवजी बोले-“तो तुम जानो तुम्हारा काम जाने, मैं तो चुपचाप राम-राम जपूँगा।” पार्वती जी तो साक्षात् अन्नपूर्णा ठहरी उन्होनें सोचा जब मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पूर्ण भोजन करा देती हूँ, तो एक ऋषि का पेट नहीं भर सकती। अवश्य तृप्त ही नहीं महातृप्त करके भेजूँगी। फिर क्या था, बड़े जोर-शोर से तैयारी हुई। खाद्यान्नों के पहाड़ लग गए। आखिर कितना खायेंगे ऋषि। जब अगस्त्य जी खाने को बैठे तो भोजन का कोई हिसाब ही नही। आखिर परोसने वाली साक्षात् अन्नपूर्णा, इतना मधुर और इतना स्वादिष्ट भोजन। पार्वती जी अपनी समस्त सखियों-सहेलियों सहित दौड़-दौड़कर परोसती रहीं कि भोजन का तारतम्य न टूटे। टोकरी की टोकरी थाल में पलट दी जाती थी, किन्तु इधर यह भी खूब रही कि क्षणभर में थाली साफ। खाते-खाते जब अगस्त्य जी की जठराग्नि धधकी तो उन्हें भोजन को हाथ से उठा-उठाकर ग्रास-ग्रास खाने की जरुरत ही नहीं रही। भोजन स्वयं खिंचकर उनके मुँह मे जाने लगा। परोसने वाली सखियां घबरायी कि कहीं भोजन के साथ हम सब भी न खिंची चली जायें। ऋषि जी का ढ़ंग देखकर माता अन्नपूर्णा भी अचम्भे में पड़ गई। सोचने लगी अब तो भगवान् ही मर्यादा रखेंगे। ठीक कहा था शम्भूजी ने, किन्तु साथ ही पार्वती को शिव पर झुंझलाहट भी हो रही थी कि देखो तो, मैं तो हैरान हूँ। ऐसे समय पर मेरी सहायता के बजाय मुँह फेरे बैठे हैं। निरुपाय अन्नपूर्णा ने भगवान का द्वार खटखटाया। ठीक भी है ‘हारे को हरिनाम’ प्रसिद्ध ही है। भगवान तुरन्त ही बाल ब्रह्मचारी का रुप धारणकर आ पहुँचे और बोले-“भगवती भिक्षां देही।” पार्वती जी घबरायी “मैं तो एक ही को पूर्ण करने में परेशान हूँ। ये दूसरे समाज सेवक भी आ धमके, सो भी भूखे ही।” परन्तु धर्म से विवश होकर ब्रह्मचारी जी के लिए भी ऋषि के समीप ही आसन लगाया जाने लगा। अगस्त्य जी अपने समीप आसन नहीं लगाने देते थे, किन्तु ब्रह्मचारी भी पूरे जिद्दी थे। अड़ गये कि बैठूंगा तो यहीं। हारकर अगस्त्य जी चुप हो गए। बाल ब्रह्मचारी जी ने थोड़ा सा भोजन पाकर ही आचमन कर लिया। माता पार्वती ने पूछा-“प्रभो! इतनी जल्दी खाना क्यों बन्द कर दिया?” वे बोले-“हम ब्रह्मचारी हैं अधिक खाने से आलस्य प्रमाद आता है, जिससे भजन में बाधा होती है और क्या हम इनकी तरह भूखे थोड़े ही हैं, कि पूर्ण ही न हों।” उधर अगस्त्य जी ने भी संकोच के कारण खाना बन्द कर दिया, कि पंगत में एक खाता रहे और दूसरा आचमन कर ले। दूसरी बात यह कि जो बाद में आया वह पहले खा चुका। खाना तो बन्द कर दिया, किन्तु अगस्त्य जी ने जल नहीं पिया था। वह ब्रह्मचारी पर बिगड़े-“तुमने मुझे जल नहीं पीने दिया।” भगवान ने कृपा करके अपने स्वरुप के दर्शन कराए और कहा-“आप धैर्य धरें। आपको जल मैं द्वापर में पिलाऊँगा। निमन्त्रण मैं आज ही देता हूँ।” जब इन्द्र ने अपने लिए होने वाले यज्ञ के बन्द होने पर ब्रज डुबोने के लिए अतिवृष्टि की थी तब भगवान ने उस जल का शोषण करने कि लिए अगस्त्य ऋषि को नियुक्त किया था। इस कारण नीचे की जमीन जलमग्न नहीं होने पायी।
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गोलू देव का मंदिर

गोलू देव का मंदिर अल्मोड़ा से छह किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ मोटर मार्ग के समीप है।मंदिर में घोड़े में सवार और धनुष बाण लिए गोलू देवता की
प्रतिमा है।
मंदिर परिसर में हरे-भरे पेड़, टंगी हुई असंख्य छोटी-बड़ी घंटियां और अर्जियां लोगों को आकर्षित करती हैं। अन्याय,क्लेश व विपदा से पीड़ित लोग इस मंदिर में अपनी पुकार लगाने व मनौती मांगने प्रतिदिन आते रहते हैं।
मंदिर के अंदर और बाहर सैकड़ों की तादाद में लगे आवेदन पत्र इसकी गवाही देते हैं। गोलू देवता के दरबार में अधिकतर कानूनी मुकदमे, न्याय, व्यवसाय, स्वास्थ्य, मानसिक परेशानी, नौकरी, गलत अभियोग,
जमीन जायदाद व मकान निर्माण से जुड़े विषयों पर अर्जियां लगाई जाती हैं। मनौती पूर्ण होने लोग मंदिर में अपनी सामर्थ्य के अनुसार घंटियां चढ़ाते हैं।
इस मंदिर में कितनी घंटियाँ है , यह गिनना संभव नहीं है | समय समय पर घंटियाँ निकाल कर अलग रख दी जाती हैं जिससे नई घंटियाँ लगाने की जगह बन सके.

वैष्णो देवी की विवाह की प्रतीक्षा

त्रेतायुग की बात है. दक्षिण भारत के रामेश्वरम में समुद्र तट पर एक गांव में
रत्नाकर पंडित रहते थे. रत्नाकर शिवजी और मां आदि शक्ति के बड़े भक्त थे पर उन्हें कोई संतान न थी.रत्नाकर की पत्नी हमेशा मां आदिशक्ति से संतान की गुहार लगाती रहती थीं. उन्होंने लगातार कई वर्षों तक मां की पूजा अर्चना की. कई सालों से संतानहीन रत्नाकर की पत्नी की प्रार्थना एक दिन मां सुन ली.
वह गर्भवती हुई तो एक रात रत्नाकर के सपने में एक बालिका ने आकर कहा- मैं तुम्हारे घर आ रही हूं पर एक शर्त पर, मैं जो कुछ करना चाहूं, रोकोगे नहीं.
पुजारी और सिद्ध पंडित रत्नाकर को यह आभास हो गया कि मां आदिशक्ति के सत, रज और तम को दिखाने वाले तीन रूप महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने मिलकर ही इस कन्या का रूप लिया है.
नियत समय पर इस दिव्य कन्या का जन्म हुआ. रत्नाकर को यह भी पता चल गया था कि यह कन्या मां आदिशक्ति ने धर्म की रक्षा के लिए ही प्रकट की है. रत्नाकर उसी भाव से कन्या का लालन पालन करने लगे. तीनों महाशक्तियों के मिलन के उस स्वरूप को उन्होंने त्रिकुटा नाम दिया. त्रिकुटा
का स्वभाव जन्म से ही अनूठा था. बचपन से ही वह पूजा पाठ और धार्मिक कार्यक्रमों को देख कर प्रसन्न होती.
अभी दसवां साल शुरु भी नहीं हुआ था कि त्रिकुटा को यह पता चल गया था कि भगवान विष्णु ने भगवान श्रीराम के रूप में धरती पर अवतार ले लिया है. त्रिकुटा ने यह व्रत ले लिया कि वह भगवान श्रीराम से ही विवाह करेगी अन्यथा नहीं.
त्रिकुटा ने अपने पिता से कहा कि वह रामेश्वरम के तट पर रहकर तपस्या करना चाहती हैं. शर्त के मुताबिक रत्नाकर ने उसे नहीं रोका. दस बरस की उम्र से ही त्रिकुटा, समुद्रतट पर एक कुटी बना कर रहने लगी.
वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तप करने लगी. इसी तरह बहुत बरस बीत गए. सीताहरण के बाद भगवान श्रीराम लक्ष्मण के साथ दलबल लेकर सीता की खोज करते हुए रामेश्वर पहुंचे. श्रीराम को पुल बांधने तक यहां रुकना था. इस दौरान समुद्र तट पर एक ध्यानमग्न कन्या को देख बहुत चकित हुए. भगवान श्रीराम ने उस कन्या से पूछा कि तुम कौन हो और इस उम्र
में इतना कठोर तप करने का क्या अर्थ है. कन्या ने अपना परिचय पंडित रत्नाकर की पुत्री त्रिकुटा के रूप में देकर अपनी प्रतिज्ञा बतायी. त्रिकुटा ने भगवान श्रीराम से निवेदन किया कि वे उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार कर लें.
इस पर भगवान श्रीराम ने कहा- यह संभव नहीं है. जब त्रिकुटा ने अपने कठोर तप का वास्ता दिया तो भगवान ने कहा- जब मैं सीता का पता लगाकर लौटूंगा तब तुम्हारे पास आऊंगा. यदि तुम मुझे पहचान लोगी तो मैं तुम्हें अपनाने के बारे में सोचूंगा.
भगवान श्रीराम जब लंका विजय के बाद पुष्पक विमान से लौट रहे थे तब रामेश्वरम के तट पर पहुंचते ही उन्होंने विमान रुकवाकर सारी सेना से कहा- थोड़ी देर रुकें मैं आता हूं. श्रीराम एक अत्यंत बूढे का वेश बनाकर त्रिकुटा के पास पहुंचे. त्रिकुटा उन्हें पहचान न सकी. तब भगवान श्रीराम अपने असली रूप में आ गए. उन्होंने त्रिकुटा से कहा- देवि आप इस परीक्षा में सफल न हो पाईं. वैसे भी इस जन्म में सीता से विवाह कर मैंने एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है. इसलिए तुम्हारे साथ विवाह तो असंभव ही था. पर कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा तब तुम्हें पत्नी रूप में अवश्य स्वीकार करुंगा. उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत जाकर भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर संसार का भला करती रहो. विष्णु का अंश होने, उनके वंश में पैदा होने और विष्णु पूजक होने के नाते सारा संसार तुम्हें मां वैष्णों के रूप में पूजेगा.
तभी से तीन पहाड़ों वाले त्रिकूट पर्वत पर माता वैष्णों देवी के नाम से विराजमान है. श्रीहरि का वरदान होने के कारण वैष्णों माता भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं

हनुमान जी की मूर्छा

हनुमान जी की मूर्छा :
हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है.प्रभु आपने मुझे संजीवनी
बूटी लेने नहीं भेजा था.आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था.
"सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू"


अर्थात - हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा
है,प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला
हूँ.भगवान बोले कैसे ?
हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है.आपको
पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने
बाण मारा और मै गिरा,तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैद्य बुलाया. कितना भरोसा
है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया.
"जौ मोरे मन बच अरू काया,प्रीति राम पद कमल अमाया"
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला,जौ मो पर रघुपति अनुकूला
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा ,कहि जय जयति कोसलाधीसा"

यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि
रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए.यह वचन
सुनते हुई मै श्री राम, जय राम, जय-जय राम कहता हुआ उठ बैठा.
प्रभुजी , मै नाम तो आपका लेता हूँ पर
भरोसा भरत जी जैसा नहीं किया, वरना मै संजीवनी लेने क्यों जाता,
बस ऐसा ही हम करते है हम नाम तो भगवान का लेते है पर भरोसा नही करते,बुढ़ापे में
बेटा ही सेवा करेगा,बेटे ने नहीं की तो क्या होगा? उस समय हम भूल जाते है जिस
भगवान का नाम हम जप रहे है वे है न,पर हम भरोसा नहीं करते.बेटा सेवा करे न करे पर
भरोसा हम उसी पर करते है.

2. - दूसरी बात प्रभु ! बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप
उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ.मेरा दूसरा अभिमान टूट
गया, इसी तरह हम भी यही सोच लेते है कि गृहस्थी के बोझ को मै उठाये हुए हूँ,पर असल मे सारा बोझ तो भगवान ही उठाते हैं .
3. - फिर हनुमान जी कहते है -और एक बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है
जैसे बाण भरत जी के पास है.आपने सुबाहु मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया,आपका
बाण तो आपसे दूर गिरा देता है,पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है.मुझे
बाण पर बैठाकर आपके पास भेज दिया.

भगवान बोले - हनुमान जब मैंने ताडका को मारा और भी राक्षसों को मारा, तो वे सब मरकर
मुक्त होकर मेरे ही पास तो आये,इस पर हनुमान जी बोले प्रभु आपका बाण तो मारने के
बाद सबको आपके पास लाता है पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता
है.भरत जी संत है और संत का बाण क्या है? संत का बाण है उसकी वाणी लेकिन हम करते
क्या है,हम संत वाणी को समझते तो है पर सटकते नहीं है,और औषधि सटकने पर ही फायदा
करती है.

4. - हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठाया तो उस समय हनुमान जी को
थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ? परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र
जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चले.

इसी तरह हम भी कभी-कभी संतो पर संदेह करते है,कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा
देगे, संत ही तो है जो हमें सोते से जागते है जैसे हनुमान जी को जगाया, क्योकि उनका
मन,वचन,कर्म सब भगवान में लगा है.अरे उन पर भरोसा तो करो तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित
भगवान के चरणों तक पहुँचा देगे.