Thursday, November 26, 2015

कनक वृंदावन जयपुर

'कनक वृंदावन'राजस्थान की राजधानी जयपुर में स्थित अरावली पर्वत से घिरी घाटी में आमेर दुर्ग को जाने वाले मार्ग पर बसा यह रमणीय स्थान है।जलमहल के उत्तर में भगवान कृष्ण के मंदिर के पास आमेर घाटी से लगी वैली में कनक वृंदावन जयपुर स्थापन के समय विकसित किया गया। यहां आने वाले पर्यटकों को कृष्ण मंदिर, कनक गार्डन और कनक वृंदावन घाटी तीनों ही जगहों को एक-साथ निहारने का आनंद मिलता है। भव्य हवेलीनुमा मंदिर के किनारों पर छतरियां हैं। भीतर विशाल चौक, और गर्भगृह हैं। गर्भग्रह में किया गया काच का बारीक काम मन मोह लेता है। रात्रि में रोशनी में नहाया यह स्थल और भी खूबसूरत लगता है। कनक वृंदावन की खूबसूरत घाटी मन मोह लेती हैं। आर्टीफीशियल झरने, ताल, और ढलवां दालान के साथ कृश्ण और गोपियों की नृत्य करते हुए बहुत सारी मूर्तियां मन मोह लेती हैं।

 
 
 


सूर्य भगवान

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं। सूर्य भगवान के 11 भाई हैं, जिन्हें एकत्रित रूप में आदित्य भी कहा जाता है। यही कारण है कि सूर्य देव को आदित्य के नाम से भी जाना जाता है। सूर्य भगवान के अलावा 11 भाई ( अंश, आर्यमान, भाग, दक्ष, धात्री, मित्र, पुशण, सवित्र, सूर्या, वरुण, वमन, ) सभी कश्यप तथा अदिति की संतान हैं। विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से उनका परिणय हुआ। संज्ञा के दो पुत्र और एक कन्या हुई- श्राद्धदेव वैवस्वतमनु और यमराज तथा यमुना जी। संज्ञा भगवान सूर्य के तेज़ को सहन नहीं कर पाती थी। उसने अपनी छाया उनके पास छोड़ दी और स्वयं घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी। उस छाया से शनिदेव , यमराज व् सावर्णि मनु और तपती नामक कन्या हुई। भगवान सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखा तो उसे अपने यहाँ ले आये। संज्ञा के बड़वा (घोड़ी) रूप से अश्विनीकुमार हुए। भगवान शनि और यमराज को मनुष्य जाति का न्यायाधिकारी माना जाता है। जहां मानव जीवन का सुख तथा दुख भगवान शनि पर निर्भर करता है वहीं दूसरी ओर शनि के छोटे भाई यमराज द्वारा आत्मा की मुक्ति की जाती है। इसके अलावा यमुना भी भगवान सूर्य की संतान हैं। आगे चलकर मनु ही मानव जाति का पहला पूर्वज बने।
विशाल रथ और साथ में उसे चलाने वाले सात घोड़े तथा सारथी अरुण देव, यह किसी भी सूर्य मंदिर में विराजमान सूर्य देव की मूर्ति का वर्णन है। भारत में प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर भगवान सूर्य तथा उनके रथ को काफी अच्छे से दर्शाता है। सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं - गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति।सूर्य के प्रकाश व् इन्द्रधनुष में भी सात रंग होते हैं | ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते हैं। रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें 12 तिल्लियां लगी हुई हैं।यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी 12 तिल्लियां एक वर्ष के 12 महीनों का वर्णन करती हैं।

अक्षय नवमी

इस वर्ष 20.11.2015 को कार्तिक शुक्ल नवमी है जिसे अक्षय नवमी कहते हैं। अक्षय नवमी के दिन ही द्वापर युग का प्रारम्भ माना जाता है। अक्षय नवमी को ही विष्णु भगवान ने कुष्माण्डक दैत्य को मारा था और उसके रोम से कुष्माण्ड की बेल हुई। इसी कारण कुष्माण्ड,जिसे कद्दू या कुम्हड़ा भी कहते हैं , का दान करने से उत्तम फल मिलता है। इसं दिन गन्ध, पुष्प और अक्षतों से कुष्माण्ड का पूजन करना चाहिये।कहते हैं कि इसी दिन देवी कुष्मांडा का प्राकट्य हुआ था | कहते है कि अक्षय नवमी मे जो भी पुण्य और उत्तम कर्म किये जाते हैं उससे प्राप्त पुण्य कभी नष्ट नहीं होते, यही कारण है कि इस नवमी तिथि को अक्षय नवमी कहा गया है. इस दिन प्रात: काल स्नान करके भगवान विष्णु और शिव जी के दर्शन करने से अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है. इस तिथि को पूजा, दान, यज्ञ, तर्पण करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है.इस नवमी को आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने व कराने का बहुत महत्व है यही कारण है कि इसे धातृ नवमी भी कहा जाता है. धातृ आंवले को कहा जाता है. इस तिथि को आंवले के वृक्ष की पूजा एवं इसके नीचे भोजन करने का विधान है |
अक्षय नवमी कथा :
एक बार देवी लक्ष्मी तीर्थाटन पर निकली तो रास्ते में उनकी इच्छा हुई कि भगवान विष्णु और शिवजी की पूजा की जाय. देवी लक्ष्मी उस समय सोचने लगीं कि एक मात्र चीज़ क्या हो सकती है जिसे भगवान विष्णु और शिव जी पसंद करते हों, उसे ही प्रतीक मानकर पूजा की जाय. इस प्रकार काफी विचार करने पर देवी लक्ष्मी को ध्यान आया कि धात्री ही ऐसी है जिसमें तुलसी और विल्व दोनों के गुण हैं फलत: इन्हीं की पूजा करनी चाहिए. देवी लक्ष्मी ने तब धात्री के वृक्ष की पूजा की और उसी वृक्ष के नीचे प्रसाद ग्रहण किया. इस दिन से ही धात्री के वृक्ष की पूजा का प्रचलन हुआ.

गोवर्धन परिक्रमा

गोवर्धन परिक्रमा का प्रारंभ मानसी गंगा में स्नान करके होता है .इस कुंड में स्नान का फल गंगा स्नान से भी अधिक माना जाता है क्योंकि गंगा स्नान मुक्ति दिलाता है पर मानसी गंगा में स्नान से श्री कृष्ण का अनंत प्रेम मिलता है .
कहते है पहले यह झील बहुत विशाल होती थी पर जैसे जैसे गोवर्धन पर्वत श्राप के कारण छोटा होता जा रहा है ,वैसे ही यह झील भी अब छोटा कुंड बन गयी है .

कहते हैं कि नन्द और यशोदा की इच्छा गंगा में स्नान की हुई और उन्होंने कृष्ण से गंगा स्नान को जाने को कहा .कृष्ण के साथ सारे वृजवासी भी गंगा स्नान पर जाने को तैयार हो गए. कृष्ण ने सोचा कि इतने लोगों को लेकर गंगा तक जाना बहुत कठिन होगा .उन्होंने तब नन्द यशोदा को यह बात बताई व् कहा कि काश ! गंगा जी वृज में ही आ जाती . कृष्ण ने मन ही मन गंगा जी से प्रार्थना की और उनके मन से गंगा जी प्रकट हुई व इस कुंड का निर्माण हुआ .इस कुंड में तब नन्द यशोदा ने व सारे वृजवासिओं ने स्नान किया .
कहते है कि एक बार राधाजी व गोपियाँ मानसी गंगा को नौका से पार करना चाहती थी .उनके साथ में माखन के घड़े भी थे .कृष्णजी तब एक नौका पर मल्लाह बन कर आ गए व सभी को नाव में बैठा लिया . यह तय हुआ कि नौका का भाड़ा कुछ माखन होगा . कुछ दूर नाव चलाकर कृष्ण,जो मल्लाह बने थे ,रूक गए और राधा से कहा कि मुझे भूख आई है और मुझे माखन खिलाओ .
फिर कुछ देर में तेज तूफ़ान आ गया व नाव डगमगाने लगी . राधाजी बहुत डर गयी व कृष्ण जी के पास उनकी बाहों में आ गयी . तब उन्हें छिपी हुई बाँसुरी पता चली व मालूम हो गया कि वह मल्लाह कोई और नही पर कृष्ण ही थे और तूफ़ान भी उनकी इच्छा से आया था .

कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा कही जाती है। इस दिन यदि कृत्तिका नक्षत्र हो तो यह 'महाकार्तिकी' होती है, भरणी नक्षत्र होने पर विशेष रूप से फलदायी होती है और रोहिणी नक्षण होने पर इसका महत्व बहुत ही अधिक बढ़ जाता है।
विष्णु भक्तों के लिए यह दिन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन संध्याकाल में भगवान विष्णु का प्रथम अवतार मत्स्यावतार हुआ था। भगवान को यह अवतार वेदों, प्रलय के अंत तक सप्त ऋषियों, अनाजों एवं राजा सत्यव्रत की रक्षा के लिए लेना पड़ा था। इस वर्ष कार्तिक पूर्णिमा 25 नवंबर यानी बुधवार के दिन है।इस दिन सुबह 7.38 तक भरणी व उसके बाद कृतिका नक्षत्र है .
इस तिथि को ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य आदि का दिन भी माना जाता है। इस दिन किए जाने वाले स्नान, दान, हवन, यज्ञ व उपासना का अनंत फल प्राप्त होता है। इस दिन सत्यनारायण की कथा सुनी जाती है।
सायंकाल देवालयों, मंदिरों, चौराहों और पीपल व तुलसी वृक्ष के सम्मुख दीये जलाए जाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्र होकर नदियों में स्नान करते हैं और श्री हरि का स्मरण करते हैं।
यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरुक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। ऐसा भी कहा जाता है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी पर भगवान विष्णु चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन होते हैं तो फिर वे कार्तिक शुक्ल एकादशी को उठते हैं और पूर्णिमा से वे कार्यरत हो जाते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा के दिन दान का विशेष महत्व है। इस दिन जो भी दान किया जाता है उसका कई गुना पुण्य प्राप्त होता है। इस दिन अनाज , धन व वस्त्र दान का विशेष महत्व है।
सभी सुखों व ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली कार्तिक पूर्णिमा को की गई पूजा और व्रत के प्रताप से हम ईश्वर के और करीब पहुंचते हैं। इस दिन भगवान सत्यनारायण की पूजा से प्रतिष्ठा प्राप्ति होती है, शिवजी के अभिषेक से स्वास्थ्य और आयु में बढ़ोतरी, दीपदान से भय से मुक्ति और सूर्य आराधना से लोकप्रियता और मान सम्मान की प्राप्ति होती है।
कृष्ण ने किया स्नान-दीपदान
कार्तिक पूर्णिमा पर उत्तरप्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ में स्नान का विशेष महत्व है। मान्यता है कि महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद अपने परिजनों के शव देखकर युधिष्ठिर बहुत शोकाकुल हो उठे। पाण्डवों को शोक से निकालने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गढ़मुक्तेश्वर में आकर मृत आत्माओं की शांति के लिए यज्ञ और दीपदान किया। तभी से इस जगह पर स्नान और दीपदान की परंपरा शुरू हुई।
पूर्णिमा पर शिव हुए त्रिपुरारी
कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नाम के असुर का अंत किया था और भगवान विष्णु ने उन्हें त्रिपुरारी कहा।
इस दिन कृतिका में शिव मंदिर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति को ज्ञान और धन की प्राप्ति होती है। इस दिन चंद्रमा उदय के समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिवजी प्रसन्न होते हैं। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान का फल मिलता है।
सिख संप्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है क्योंकि इस दिन सिख संप्रदाय के संस्थापक गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ था। नानकदेव सिखों के पहले गुरु हैं। इस दिन सिख संप्रदाय के अनुयायी सुबह गुरुद्वारे जाकर गुरुवाणी सुनते हैं। इसे गुरु पर्व भी कहा जाता है।

पूजा में नारियल

भारत में देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने नारियल फोड़ने का रिवाज काफी पुराना है। हिंदू धर्म के ज्यादातर धार्मिक संस्कारों में नारियल का विशेष महत्व है।चाहे शादी हो, त्यौहार हो या फिर कोई अन्य महत्वपूर्ण पूजा, पूजा की सामग्री में नारियल आवश्यक रूप से रहता है। नारियल फोड़ने का मतलब है कि आप अपने अहंकार और स्वयं को भगवान के सामने समर्पित कर रहे हैं। माना जाता है कि ऐसा करने पर अज्ञानता और अहंकार का कठोर कवच टूट जाता है और ये आत्मा की शुद्धता और ज्ञान का द्वार खोलता है। जिसे नारियल के सफेद हिस्से के रूप में देखा जाता है।
एक समय हिंदू धर्म में मनुष्य और जानवरों की बलि सामान्य बात थी। तभी आदि शंकराचार्य ने इस अमानवीय परंपरा को तोड़ा और मनुष्य के स्थान पर नारियल चढ़ाने की शुरुआत की।
नारियल कई तरह से मनुष्य की खोपड़ी से मेल खाता है। नारियल की जटा की तुलना मनुष्य के बालों से, कठोर कवच की तुलना मनुष्य की खोपड़ी से और नारियल पानी की तुलना खून से की जा सकती है। साथ ही नारियल के गूदे की तुलना मनुष्य के दिमाग से की जा सकती है। नारियल में दो छेद होते हैं, जिन्हें हम आंख मानते हैं तथा उससे जो रोयें निकलते हैं उसे केश माना जाता है।

Thursday, October 15, 2015

चूड़ियाँ पहनने के वैज्ञानिक लाभ:

चूड़ियाँ पहनने के वैज्ञानिक लाभ:
हिंदू धर्म में वैदिक काल से महिलाएँ अपने हाथों में चूड़ियाँ पहनती रही हैं। चूड़ियाँ सोलह शृंगारों में से एक हैं तथा महिलाओं के सुहागन होने का प्रतीक हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार जो विवाहित महिलाएँ चूड़ियाँ पहनती हैं, उनके पति की आयु लंबी होती है। इन सबके साथ-साथ चूड़ियाँ स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अत्यंत लाभप्रद हैं। चूड़ियाँ पहनने से होने वाले लाभ चूड़ियों में प्रयुक्त धातु, चूड़ियों की संख्या, चूड़ियों का रंग आदि पर निर्भर करते हैं।
1. महिलाएँ शारीरिक दृष्टि से पुरुषों की तुलना में अधिक कोमल होती हैं। चूड़ियाँ
पहनने से महिलाओं को शारीरिक रूप से शक्ति प्राप्त होती है। उन्हें कमजोरी और शारीरिक शक्ति का अभाव महसूस नहीं होता।
2. आयुर्वेद के अनुसार सोने और चाँदी की भस्म शरीर के लिए बलवर्धक होती है। सोने और चाँदी की चूड़ियाँ पहनने से जब ये शरीर के साथ घर्षण करती हैं, तो इनसे शरीर को इन धातुओं के शक्तिशाली तत्व प्राप्त होते हैं, जो महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होते हैं और वे अधिक आयु तक स्वस्थ रह सकती हैं।
3. जिस धातु से चूड़ियाँ बनी होती हैं, उस धातु का महिला के स्वास्थ्य के साथ-साथउसके आसपास के वातावरण पर भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए प्लास्टिक से बनी चूड़ियाँ रज-तम प्रभाव वाली होती हैं और वातावरण में से नकारात्मक ऊर्जा अपनी ओर खींचती हैं। अतः डॉक्टरों के अनुसार प्लास्टिक की चूड़ियाँ पहनने से महिलाएँ अनेक बार स्वयं को बीमार महसूस करती हैं।
4. धार्मिक मान्यता के अनुसार कांच की चूड़ियाँ सात्विक होती हैं और उन्हें पहनने से महिला के पति तथा पुत्र का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। वहीं, विज्ञान का मानना है कि कांच की चूड़ियों की ध्वनि से वातावरण में उपस्थित नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
5. चूड़ियों की संख्या अधिक होने पर उनका महत्व भी कई गुणा अधिक बढ़ जाता है। विज्ञान का भी मानना है कि जब महिलाएँ अपने दोनों हाथों में अधिक संख्या में चूड़ियाँ पहनती हैं तो इससे एक विशेष ऊर्जा उत्पन्न होती है।
6. धार्मिक मान्यता के अनुसार चूड़ियाँ टूटना या उनमें दरार आना महिला या उससे जुड़े व्यक्तियों के लिए एक अपशकुन है। विज्ञान का मानना है कि जब महिला के आसपास के वातावरण में साधारण से अधिक नकारात्मक ऊर्जा हो जाती है, तो वह उस महिला को घेरने लगती है और सर्वप्रथम उसकी चूड़ियों पर प्रहार करती है। यह नकारात्मक ऊर्जा चूड़ियों के भीतर प्रविष्ट होकर धीरे-धीरे उन्हें नष्ट करने लगती है। यदि दरार आने पर भी चूड़ियाँ उतारी ना जाएं, तो यह नकारात्मक ऊर्जामहिला के स्वास्थ्य पर कुप्रभावडालने लगती है।
7. चूड़ियों के रंग भी महिलाओं के स्वास्थ्य और उसके वैवाहिक जीवन पर अपना प्रभाव डालते हैं। लोकप्रचलित मान्यता के अनुसार नवविवाहित स्त्रियों को हरे एवं लाल रंग की कांच की चूड़ियाँ पहनने के लिए कहा जाता है, क्योंकि हरा रंग प्रकृति देवी का है। जिस प्रकार एक वृक्ष अपनी छाया से लोगों को खुशहाली प्रदान करता है, उसी प्रकार हरे रंग की चूड़ियाँ उनके दाम्पत्य जीवन में खुशहाली लाती हैं। इसी प्रकार लाल रंग उस महिला को आदि शक्ति से जोड़ता है। लाल रंग प्रेम का भी प्रतीक है, अतः लाल रंग की चूड़ियाँ पहनने से दाम्पत्य प्रेम में वृद्धि होती है और वैवाहिक जीवन सुखी रहता है।

गोवर्धन पर्वत धारण करने पर नीचे की भुमि जलमग्न क्यों नहीं हुई?

गोवर्धन पर्वत धारण करने पर नीचे की भुमि जलमग्न क्यों नहीं हुई? एक समय शिवजी ने पार्वती जी के सामने सन्तों की बड़ी महिमा गाई। सन्तों की महिमा सुनकर पार्वती जी की श्रद्धा उमड़ी और उसी दिन उन्होंने श्री अगस्त्य मुनि को भोजन का निमन्त्रण दे डाला तथा शिवजी को बाद में इस बाबत बतलाया तो सुनकर शिवजी हंसे और कहा “आज ही तो सन्तों में श्रद्धा हुई और आज ही ऐसे सन्त को न्यौता दे दिया। अगर किसी को भोजन कराना ही था, तो किसी कम भोजन करने वाले मुनि को ही न्यौता दे देती। तुम अगस्त्य को नहीं जानती तीन चुल्लू में समुद्र सोख गए थे। भला इनका पेट भरना कोई हंसी खेल है। यदि भुखे रह गए तो लोक में बड़ी निन्दा होगी। जीवन में एक बार शिव के यहाँ गए और भूखे ही लौटे। भद्रे! कार्य विचार कर नहीं किया।” पार्वती जी बोलीं-“अब तो न्यौता दे ही दिया उसमें उलट-फेर होने की नहीं, चाहे जो भी हो।” शिवजी बोले-“तो तुम जानो तुम्हारा काम जाने, मैं तो चुपचाप राम-राम जपूँगा।” पार्वती जी तो साक्षात् अन्नपूर्णा ठहरी उन्होनें सोचा जब मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पूर्ण भोजन करा देती हूँ, तो एक ऋषि का पेट नहीं भर सकती। अवश्य तृप्त ही नहीं महातृप्त करके भेजूँगी। फिर क्या था, बड़े जोर-शोर से तैयारी हुई। खाद्यान्नों के पहाड़ लग गए। आखिर कितना खायेंगे ऋषि। जब अगस्त्य जी खाने को बैठे तो भोजन का कोई हिसाब ही नही। आखिर परोसने वाली साक्षात् अन्नपूर्णा, इतना मधुर और इतना स्वादिष्ट भोजन। पार्वती जी अपनी समस्त सखियों-सहेलियों सहित दौड़-दौड़कर परोसती रहीं कि भोजन का तारतम्य न टूटे। टोकरी की टोकरी थाल में पलट दी जाती थी, किन्तु इधर यह भी खूब रही कि क्षणभर में थाली साफ। खाते-खाते जब अगस्त्य जी की जठराग्नि धधकी तो उन्हें भोजन को हाथ से उठा-उठाकर ग्रास-ग्रास खाने की जरुरत ही नहीं रही। भोजन स्वयं खिंचकर उनके मुँह मे जाने लगा। परोसने वाली सखियां घबरायी कि कहीं भोजन के साथ हम सब भी न खिंची चली जायें। ऋषि जी का ढ़ंग देखकर माता अन्नपूर्णा भी अचम्भे में पड़ गई। सोचने लगी अब तो भगवान् ही मर्यादा रखेंगे। ठीक कहा था शम्भूजी ने, किन्तु साथ ही पार्वती को शिव पर झुंझलाहट भी हो रही थी कि देखो तो, मैं तो हैरान हूँ। ऐसे समय पर मेरी सहायता के बजाय मुँह फेरे बैठे हैं। निरुपाय अन्नपूर्णा ने भगवान का द्वार खटखटाया। ठीक भी है ‘हारे को हरिनाम’ प्रसिद्ध ही है। भगवान तुरन्त ही बाल ब्रह्मचारी का रुप धारणकर आ पहुँचे और बोले-“भगवती भिक्षां देही।” पार्वती जी घबरायी “मैं तो एक ही को पूर्ण करने में परेशान हूँ। ये दूसरे समाज सेवक भी आ धमके, सो भी भूखे ही।” परन्तु धर्म से विवश होकर ब्रह्मचारी जी के लिए भी ऋषि के समीप ही आसन लगाया जाने लगा। अगस्त्य जी अपने समीप आसन नहीं लगाने देते थे, किन्तु ब्रह्मचारी भी पूरे जिद्दी थे। अड़ गये कि बैठूंगा तो यहीं। हारकर अगस्त्य जी चुप हो गए। बाल ब्रह्मचारी जी ने थोड़ा सा भोजन पाकर ही आचमन कर लिया। माता पार्वती ने पूछा-“प्रभो! इतनी जल्दी खाना क्यों बन्द कर दिया?” वे बोले-“हम ब्रह्मचारी हैं अधिक खाने से आलस्य प्रमाद आता है, जिससे भजन में बाधा होती है और क्या हम इनकी तरह भूखे थोड़े ही हैं, कि पूर्ण ही न हों।” उधर अगस्त्य जी ने भी संकोच के कारण खाना बन्द कर दिया, कि पंगत में एक खाता रहे और दूसरा आचमन कर ले। दूसरी बात यह कि जो बाद में आया वह पहले खा चुका। खाना तो बन्द कर दिया, किन्तु अगस्त्य जी ने जल नहीं पिया था। वह ब्रह्मचारी पर बिगड़े-“तुमने मुझे जल नहीं पीने दिया।” भगवान ने कृपा करके अपने स्वरुप के दर्शन कराए और कहा-“आप धैर्य धरें। आपको जल मैं द्वापर में पिलाऊँगा। निमन्त्रण मैं आज ही देता हूँ।” जब इन्द्र ने अपने लिए होने वाले यज्ञ के बन्द होने पर ब्रज डुबोने के लिए अतिवृष्टि की थी तब भगवान ने उस जल का शोषण करने कि लिए अगस्त्य ऋषि को नियुक्त किया था। इस कारण नीचे की जमीन जलमग्न नहीं होने पायी।
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गोलू देव का मंदिर

गोलू देव का मंदिर अल्मोड़ा से छह किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ मोटर मार्ग के समीप है।मंदिर में घोड़े में सवार और धनुष बाण लिए गोलू देवता की
प्रतिमा है।
मंदिर परिसर में हरे-भरे पेड़, टंगी हुई असंख्य छोटी-बड़ी घंटियां और अर्जियां लोगों को आकर्षित करती हैं। अन्याय,क्लेश व विपदा से पीड़ित लोग इस मंदिर में अपनी पुकार लगाने व मनौती मांगने प्रतिदिन आते रहते हैं।
मंदिर के अंदर और बाहर सैकड़ों की तादाद में लगे आवेदन पत्र इसकी गवाही देते हैं। गोलू देवता के दरबार में अधिकतर कानूनी मुकदमे, न्याय, व्यवसाय, स्वास्थ्य, मानसिक परेशानी, नौकरी, गलत अभियोग,
जमीन जायदाद व मकान निर्माण से जुड़े विषयों पर अर्जियां लगाई जाती हैं। मनौती पूर्ण होने लोग मंदिर में अपनी सामर्थ्य के अनुसार घंटियां चढ़ाते हैं।
इस मंदिर में कितनी घंटियाँ है , यह गिनना संभव नहीं है | समय समय पर घंटियाँ निकाल कर अलग रख दी जाती हैं जिससे नई घंटियाँ लगाने की जगह बन सके.

वैष्णो देवी की विवाह की प्रतीक्षा

त्रेतायुग की बात है. दक्षिण भारत के रामेश्वरम में समुद्र तट पर एक गांव में
रत्नाकर पंडित रहते थे. रत्नाकर शिवजी और मां आदि शक्ति के बड़े भक्त थे पर उन्हें कोई संतान न थी.रत्नाकर की पत्नी हमेशा मां आदिशक्ति से संतान की गुहार लगाती रहती थीं. उन्होंने लगातार कई वर्षों तक मां की पूजा अर्चना की. कई सालों से संतानहीन रत्नाकर की पत्नी की प्रार्थना एक दिन मां सुन ली.
वह गर्भवती हुई तो एक रात रत्नाकर के सपने में एक बालिका ने आकर कहा- मैं तुम्हारे घर आ रही हूं पर एक शर्त पर, मैं जो कुछ करना चाहूं, रोकोगे नहीं.
पुजारी और सिद्ध पंडित रत्नाकर को यह आभास हो गया कि मां आदिशक्ति के सत, रज और तम को दिखाने वाले तीन रूप महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने मिलकर ही इस कन्या का रूप लिया है.
नियत समय पर इस दिव्य कन्या का जन्म हुआ. रत्नाकर को यह भी पता चल गया था कि यह कन्या मां आदिशक्ति ने धर्म की रक्षा के लिए ही प्रकट की है. रत्नाकर उसी भाव से कन्या का लालन पालन करने लगे. तीनों महाशक्तियों के मिलन के उस स्वरूप को उन्होंने त्रिकुटा नाम दिया. त्रिकुटा
का स्वभाव जन्म से ही अनूठा था. बचपन से ही वह पूजा पाठ और धार्मिक कार्यक्रमों को देख कर प्रसन्न होती.
अभी दसवां साल शुरु भी नहीं हुआ था कि त्रिकुटा को यह पता चल गया था कि भगवान विष्णु ने भगवान श्रीराम के रूप में धरती पर अवतार ले लिया है. त्रिकुटा ने यह व्रत ले लिया कि वह भगवान श्रीराम से ही विवाह करेगी अन्यथा नहीं.
त्रिकुटा ने अपने पिता से कहा कि वह रामेश्वरम के तट पर रहकर तपस्या करना चाहती हैं. शर्त के मुताबिक रत्नाकर ने उसे नहीं रोका. दस बरस की उम्र से ही त्रिकुटा, समुद्रतट पर एक कुटी बना कर रहने लगी.
वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तप करने लगी. इसी तरह बहुत बरस बीत गए. सीताहरण के बाद भगवान श्रीराम लक्ष्मण के साथ दलबल लेकर सीता की खोज करते हुए रामेश्वर पहुंचे. श्रीराम को पुल बांधने तक यहां रुकना था. इस दौरान समुद्र तट पर एक ध्यानमग्न कन्या को देख बहुत चकित हुए. भगवान श्रीराम ने उस कन्या से पूछा कि तुम कौन हो और इस उम्र
में इतना कठोर तप करने का क्या अर्थ है. कन्या ने अपना परिचय पंडित रत्नाकर की पुत्री त्रिकुटा के रूप में देकर अपनी प्रतिज्ञा बतायी. त्रिकुटा ने भगवान श्रीराम से निवेदन किया कि वे उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार कर लें.
इस पर भगवान श्रीराम ने कहा- यह संभव नहीं है. जब त्रिकुटा ने अपने कठोर तप का वास्ता दिया तो भगवान ने कहा- जब मैं सीता का पता लगाकर लौटूंगा तब तुम्हारे पास आऊंगा. यदि तुम मुझे पहचान लोगी तो मैं तुम्हें अपनाने के बारे में सोचूंगा.
भगवान श्रीराम जब लंका विजय के बाद पुष्पक विमान से लौट रहे थे तब रामेश्वरम के तट पर पहुंचते ही उन्होंने विमान रुकवाकर सारी सेना से कहा- थोड़ी देर रुकें मैं आता हूं. श्रीराम एक अत्यंत बूढे का वेश बनाकर त्रिकुटा के पास पहुंचे. त्रिकुटा उन्हें पहचान न सकी. तब भगवान श्रीराम अपने असली रूप में आ गए. उन्होंने त्रिकुटा से कहा- देवि आप इस परीक्षा में सफल न हो पाईं. वैसे भी इस जन्म में सीता से विवाह कर मैंने एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है. इसलिए तुम्हारे साथ विवाह तो असंभव ही था. पर कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा तब तुम्हें पत्नी रूप में अवश्य स्वीकार करुंगा. उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत जाकर भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर संसार का भला करती रहो. विष्णु का अंश होने, उनके वंश में पैदा होने और विष्णु पूजक होने के नाते सारा संसार तुम्हें मां वैष्णों के रूप में पूजेगा.
तभी से तीन पहाड़ों वाले त्रिकूट पर्वत पर माता वैष्णों देवी के नाम से विराजमान है. श्रीहरि का वरदान होने के कारण वैष्णों माता भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं

हनुमान जी की मूर्छा

हनुमान जी की मूर्छा :
हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है.प्रभु आपने मुझे संजीवनी
बूटी लेने नहीं भेजा था.आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था.
"सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू"


अर्थात - हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा
है,प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला
हूँ.भगवान बोले कैसे ?
हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है.आपको
पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने
बाण मारा और मै गिरा,तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैद्य बुलाया. कितना भरोसा
है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया.
"जौ मोरे मन बच अरू काया,प्रीति राम पद कमल अमाया"
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला,जौ मो पर रघुपति अनुकूला
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा ,कहि जय जयति कोसलाधीसा"

यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि
रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए.यह वचन
सुनते हुई मै श्री राम, जय राम, जय-जय राम कहता हुआ उठ बैठा.
प्रभुजी , मै नाम तो आपका लेता हूँ पर
भरोसा भरत जी जैसा नहीं किया, वरना मै संजीवनी लेने क्यों जाता,
बस ऐसा ही हम करते है हम नाम तो भगवान का लेते है पर भरोसा नही करते,बुढ़ापे में
बेटा ही सेवा करेगा,बेटे ने नहीं की तो क्या होगा? उस समय हम भूल जाते है जिस
भगवान का नाम हम जप रहे है वे है न,पर हम भरोसा नहीं करते.बेटा सेवा करे न करे पर
भरोसा हम उसी पर करते है.

2. - दूसरी बात प्रभु ! बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप
उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ.मेरा दूसरा अभिमान टूट
गया, इसी तरह हम भी यही सोच लेते है कि गृहस्थी के बोझ को मै उठाये हुए हूँ,पर असल मे सारा बोझ तो भगवान ही उठाते हैं .
3. - फिर हनुमान जी कहते है -और एक बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है
जैसे बाण भरत जी के पास है.आपने सुबाहु मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया,आपका
बाण तो आपसे दूर गिरा देता है,पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है.मुझे
बाण पर बैठाकर आपके पास भेज दिया.

भगवान बोले - हनुमान जब मैंने ताडका को मारा और भी राक्षसों को मारा, तो वे सब मरकर
मुक्त होकर मेरे ही पास तो आये,इस पर हनुमान जी बोले प्रभु आपका बाण तो मारने के
बाद सबको आपके पास लाता है पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता
है.भरत जी संत है और संत का बाण क्या है? संत का बाण है उसकी वाणी लेकिन हम करते
क्या है,हम संत वाणी को समझते तो है पर सटकते नहीं है,और औषधि सटकने पर ही फायदा
करती है.

4. - हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठाया तो उस समय हनुमान जी को
थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ? परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र
जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चले.

इसी तरह हम भी कभी-कभी संतो पर संदेह करते है,कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा
देगे, संत ही तो है जो हमें सोते से जागते है जैसे हनुमान जी को जगाया, क्योकि उनका
मन,वचन,कर्म सब भगवान में लगा है.अरे उन पर भरोसा तो करो तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित
भगवान के चरणों तक पहुँचा देगे.

Thursday, September 17, 2015

‘सहस्त्रलिंगा’

आज हम आपको एक ऐसी जगह ले जाने वाले हैं जहां एक या दो नहीं, वरन् हज़ारों शिवलिंग मौजूद हैं।इस जगह को ‘सहस्त्रलिंगा’ के नाम से जाना जाता है, अर्थात् हज़ारों लिंग। ये ऐतिहासिक जगह कर्नाटक के उत्तर कन्नड ज़िले में एक नदी पर स्थित है। इस नदी का नाम शामला है। यहां चट्टान पर शिवलिंग बने हैं। यह शिवलिंग नदी के घटते जलस्तर के साथ ही दिखने लगते हैं |यहां आए पर्यटक बहते हुए हज़ारों शिवलिंग को देखकर अचंभित हो जाते हैं। यह दृश्य ऐसा लगता है मानो स्वयं भगवान शिव ‘शिवलिंग’ का रूप धारण कर नदी से बाहर आ रहे हैं और भक्तों को आशीर्वाद दे रहे हैं। इस भव्य दृश्य को देखने के लिए रोज़ाना पर्यटकों के साथ-साथ भगवान शिव पर आस्था रखने वाले भक्तों का यहां तांता लगा रहता है। दरअसल सिरसी के राजा सदाऐश्वर्य (1678-1718) ने इन शिवलिंगों का निर्माण करवाया था। शायद इतने वर्षों में यह जगह जलाशय में तब्दील हो जाने के कारण राजा द्वारा बनाए गए शिवलिंग पाने के नीचे छिप गए।कुछ छोटे आकार के और कुछ बड़े आकार के शिवलिंग यहां आसानी से देखे जा सकते हैं।शिवलिंग के अलावा कई बार भक्तों ने यहां कुछ बड़ी-बड़ी चट्टानें भी बहते पानी में देखी हैं, जिन पर पशु-पक्षियों की आकृतियां बनी हुई हैं।एक चट्टान पर शिव के वाहन नन्दी भी विराजमान हैं।


गणेश जी की पत्नियां

पहले गणेशजी का चेहरा भी मनुष्य के चेहरे की तरह था। लेकिन एक बार भगवान शिव जब माता पार्वती से मिलने पहुंचे तो गणेशजी ने उन्हें नहीं जाने दिया तब शंकरजी ने गणेश जी का सिर त्रिशूल से अलग कर दिया था।
इसके बाद गणेशजी के सिर में हाथी का सिर जोड़ा गया। हाथी के सिर की सुंदरता बढ़ाने वाले उनके दो दांत भी थे। लेकिन परशुराम के साथ युद्ध में गणेशजी का एक दंत भी टूट गया। और वो एकदंत कहलाए। उनका शरीर भी बड़ा था।
इसलिए उनसे कोई भी सुशील कन्या विवाह के लिए राजी नहीं होती थी। गणेशजी इस बात से नाराज थे। उन्होंने कहा, 'अगर मेरा विवाह नहीं हो रहा तो मैं किसी ओर का विवाह भी नहीं होने दूंगा।'
उन्होंने अपने चूहे को आदेश दिया कि जिस रास्ते से किसी भी देवता की बारात गुजरे उस रास्ते को और विवाह मंडप की भूमि को अंदर से खोखला कर विघ्न डालो। चूहे ने गणेशजी के कहने पर वैसा ही किया। सारे देवता परेशान हो गए। शिवजी को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था| देवी पार्वती ने सलाह दी कि ब्रह्माजी से इस समस्या का हल पूंछा जाए।
तब ब्रह्माजी योग में लीन हुए और योग से ही दो कन्याएं ऋद्धि और सिद्धि अवतरित हुईं। दोनों ब्रह्माजी की मानस पुत्री थीं। उन दोनों को लेकर ब्रह्माजी गणेशजी के पास पहुंचे और कहा वह उन्हें शिक्षा दें। गणेशजी तैयार हो गये। जब भी चूहा गणेशजी के पास किसी के विवाह की सूचना लाता तो ऋद्धि और सिद्धि ध्यान बांटने के लिए कोई न कोई प्रसंग छेड़ देतीं।
इस तरह विवाह निर्विघ्न होने लगे। एक दिन चूहा आया और उसने देवताओं के निर्विघ्न विवाह के बारे में बताया तब गणेश जी को सारा मामला समझ में आया।
गणेशजी के क्रोधित होने से पहले ब्रह्माजी उनके पास ऋद्धि सिद्धि को लेकर प्रकट हुए। उन्होंने कहा, आपने स्वयं इन्हें शिक्षा दी है। मुझे इनके लिए कोई योग्य वर नहीं मिल रहा है। आप इनसे विवाह कर लें।

इस तरह ऋद्धि(बुद्धि- विवेक की देवी) और सिद्धि (सफलता की देवी) से गणेशजी का विवाह हो गया। और फिर बाद में गणेश जी के शुभ और लाभ दो पुत्र भी हुए।

“मनोकामना इच्छा पूर्ती श्री सिद्धि विनायक मंदिर”




“मनोकामना इच्छा पूर्ती श्री सिद्धि विनायक मंदिर”
श्री सिद्धि विनायक मंदिर भारत वर्ष की राजधानी दिल्ली में मधुबन चौक के पास बरगद के पेड़ में स्थापित है| यह बरगद का पेड़ वर्षो पुराना है| श्रद्धालूओं एवं भक्तजनो की ऐसी आस्था है कि श्री सिद्धि विनायक जी का निवास इस बरगद के पेड़ के नीचे है, जहाँ वास्तविकता में साक्षात गणपति जी के होने का आभास होता है | शायद इसी आस्था के कारण वर्षो से इस बरगद के नीचे भक्त जन दीपक जलाकर पेड़ पर कलावा व धागा बांधकर पूजा अर्चना करते है | लोगो की ऐसी आस्था है कि श्री सिद्धि विनायक जी सभी भक्त जनो की मनोकामना पूरी करते है |
भक्तजन पूजन, भजन कीर्तन करते हुए भगवान सिद्धि विनायक के मंदिर में मनोकामना के लिए वट वृक्ष पर मोली व कलावा तथा दीपक जलाकर अचर्ना करते है |
 

धर्मग्रंथो में वर्णित 9 रहस्यमयी मणियां

धर्मग्रंथो में वर्णित 9 रहस्यमयी मणियां
1.पारस मणि : पारस मणि का जिक्र पौराणिक और लोक कथाओं में खूब मिलता है। इसके हजारों किस्से और कहानियां समाज में प्रचलित हैं। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में जहां हीरे की खदान है, वहां से 70 किलोमीटर दूर दनवारा गांव के एक कुएं में रात को रोशनी दिखाई देती है। लोगों का मानना है कि कुएं में पारस मणि है। पारस मणि से लोहे की किसी भी चीज को छुआ देने से वह सोने की बन जाती थी। कहते हैं कि कौवों को इसकी पहचान होती है और यह हिमालय के आस-पास ही पाई जाती है। हिमालय के साधु-संत ही जानते हैं कि पारस मणि को कैसे ढूंढा जाए, क्योंकि वे यह जानते हैं कि कैसे कौवे को ढूंढने के लिए मजबूर किया जाए।
2.नीलमणि : नीलमणि एक रहस्यमय मणि है। असली नीलमणि जिसके भी पास होती है उसे जीवन में भूमि, भवन, वाहन और राजपद का सुख होता है। असली नीलमणि से नीली या बैंगनी रोशनी निकली है|
3.नागमणि : नागमणि को भगवान शेषनाग धारण करते हैं। भारतीय पौराणिक और लोक कथाओं में नागमणि के किस्से आम लोगों के बीच प्रचलित हैं। नागमणि सिर्फ नागों के पास ही होती है।नागमणि का रहस्य आज भी अनसुलझा हुआ है। आम जनता में यह बात प्रचलित है कि कई लोगों ने ऐसे नाग देखे हैं जिसके सिर पर मणि थी।
4.कौस्तुभ मणि : कौस्तुभ मणि को भगवान विष्णु धारण करते हैं। कौस्तुभ मणि की उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान हुई थी। पुराणों के अनुसार यह मणि समुद्र मंथन के समय प्राप्त 14 मूल्यवान रत्नों में से एक थी। यह बहुत ही कांतिमान मणि है।
यह मणि जहां भी होती है, वहां किसी भी प्रकार की दैवीय आपदा नहीं होती। यह मणि हर तरह के संकटों से रक्षा करती है। माना जाता है कि समुद्र के तल या पाताल में आज भी यह मणि पाई जाती है।
5.चंद्रकांता मणि : माना जाता है कि असली चंद्रकांता मणि जिसके भी पास होती है उसका जीवन किसी चमत्कार की तरह पलट जाता है। इस मणि की तरह ही उसका जीवन चमकने लगता है। उसकी हर तरह की इच्‍छाएं पूर्ण होने लगती हैं।कहते हैं कि झारखंड के बैजनाथ मंदिर में चंद्रकांता मणि है।
शुश्रुत संहिता में चन्द्र किरणों का उपचार के रूप में उल्लेख मिलता है जिनमें प्रमुख है अद्भुत चंद्रकांत मणि का उल्लेख। इस मणि की एक प्रमुख विशेषता होती है कि इसे चन्द्र किरणों में रखने पर इससे जल टपकने लगता है। इस जल में कई अद्भुत औषधीय गुण होते हैं।
रक्षोघ्नं शीतलं हादि जारदाहबिषापहम्।
चन्द्रकान्तोद्भवम् वारि वित्तघ्नं विमलं स्मृतम्।। सुश्रुत 45/27।।
अर्थात चन्द्रकांता मणि से उत्पन्न जल कीटाणुओं का नाश करने वाला है। शीतल, आह्लाददायक, ज्वरनाशक, दाह और विष को शांत करने वाला है।
6.स्यमंतक मणि : स्यमंतक मणि को इंद्रदेव धारण करते हैं। कहते हैं कि प्राचीनकाल में कोहिनूर को ही स्यमंतक मणि कहा जाता था। कई स्रोतों के अनुसार कोहिनूर हीरा लगभग 5,000 वर्ष पहले मिला था और यह प्राचीन संस्कृत इतिहास में लिखे अनुसार स्यमंतक मणि नाम से प्रसिद्ध रहा था। दुनिया के सभी हीरों का राजा है कोहिनूर हीरा। यह बहुत काल तक भारत के क्षत्रिय शासकों के पास रहा फिर यह मुगलों के हाथ लगा। इसके बाद अंग्रेजों ने इसे हासिल किया और अब यह हीरा ब्रिटेन के म्यूजियम में रखा है।
7.स्फटिक मणि : स्फटिक मणि सफेद रंग की चमकदार होती है। यह आसानी से मिल जाती है। लोग स्फटिक की माला धारण करते हैं। इसको धारण करने से सुख, शांति, धैर्य, धन, संपत्ति, रूप, बल, वीर्य, यश, तेज व बुद्धि की प्राप्ति होती है तथा इसकी माला पर किसी मंत्र को जप करने से वह मंत्र शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है।
8.लाजावर्त मणि : इस मणि का रंग मयूर की गर्दन की भांति नील-श्याम वर्ण के स्वर्णिम छींटों से युक्त होता है। यह मणि भी प्राय: कम ही पाई जाती है।
लाजावर्त मणि को धारण करने से बल, बुद्धि एवं यश की वृद्धि होती ही है।
9.उलूक मणि : उलूक मणि के बारे में ऐसी कहावत है कि यह मणि उल्लू पक्षी के घोंसले में पाई जाती है। हालांकि अभी तक इसे किसी ने देखा नहीं है। माना जाता है कि इसका रंग मटमैला होता है।
यह किंवदंती है कि किसी अंधे व्यक्ति को यदि घोर अंधकार में ले जाकर द्वीप प्रज्वलित कर उसकी आंख से इस मणि को लगा दें तो उसे दिखाई देने लगता है। दरअसल यह नेत्र ज्योति बढ़ाने में लाभदायक है।

Sunday, September 6, 2015

5 तत्वों के 5 मंदिर

शिव पुराण की कैलाश संहिता के अनुसार शिव से ईशान उत्पन्न हुए और ईशान से पांचतत्वों की उत्पत्ति हुई। पहला तत्व आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पांचवां पृथ्वी है। इन पांचों का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है। आकाश में एक ही गुण है -शब्द , वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण है, अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप इन तीन गुणों की प्रधानता है, जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चार गुण माने गए हैं और पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन पांच गुणों से संपन्न है। उपरोक्त पांचों तत्वों से संबंधित शिव मंदिर दक्षिण भारत में स्थित है।
1. आकाश तत्व का शिव मंदिर तमिलनाडू के चिदंबरम में है .
2.वायु तत्व का शिव मंदिर श्री कालहस्ती, आंध्र प्रदेश में है .
3.कांचीपुरम में एकम्बरेस्वर मंदिर, जहां भगवान की पूजा उनके पृथ्वी रूप में की जाती है .
4.तिरुचिरापल्ली,( थिरुवनाईकवल) में जम्बुकेस्वर मंदिर, जहां भगवान की पूजा उनके जल रूप में की जाती है.
5.तिरुवनमलाई ,तमिलनाडू में अन्नामलाइयर मंदिर, जहां भगवान की पूजा अग्नि रूप में की जाती है.

वृहदेश्वर मंदिर

वृहदेश्वर मंदिर
बृहदेश्वर अथवा बृहदीश्वर मन्दिर तमिलनाडु के तंजौर में स्थित एक मंदिर है जो 11वीं सदी के आरम्भ में बनाया गया था। इसे तमिल भाषा में बृहदीश्वर के नाम से जाना जाता है। इसे राजराजेश्वर मन्दिर का नाम भी दिया जाता है। यह अपने समय के विश्व के विशालतम संरचनाओं में गिना जाता था। इसके तेरह (13) मंजिले भवन की ऊंचाई लगभग 66 मीटर है। मंदिर भगवान शिव की आराधना को समर्पित है।
यह कला की प्रत्येक शाखा - वास्तुकला, पाषाण व ताम्र में शिल्पांकन, प्रतिमा विज्ञान, चित्रांकन, नृत्य, संगीत, आभूषण एवं उत्कीर्णकला का भंडार है। यह मंदिर उत्कीर्ण संस्कृत व तमिल पुरालेख सुलेखों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस मंदिर के निर्माण कला की एक विशेषता यह है कि इसके गुंबद की परछाई पृथ्वी पर नहीं पड़ती। शिखर पर स्वर्णकलश स्थित है। मंदिर में स्थापित विशाल, भव्य शिवलिंग को देखने पर उनका वृहदेश्वर नाम सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है।
मंदिर में प्रवेश करने पर गोपुरम्‌ के भीतर एक चौकोर मंडप है। वहां चबूतरे पर नन्दी जी विराजमान हैं। नन्दी जी की यह प्रतिमा 6 मीटर लंबी, 2.6 मीटर चौड़ी तथा 3.7 मीटर ऊंची है। भारतवर्ष में एक ही पत्थर से निर्मित नन्दी जी की यह दूसरी सर्वाधिक विशाल प्रतिमा है।





राजस्थान का घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग

घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग भगवान शंकर के निवास के रूप में द्धादशवां
एवं अंतिम ज्योतिर्लिंग है। यह द्धादशवां ज्योतिर्लिंग राजस्थान राज्य के
सवाई माधोपुर जिले के ग्राम शिवाड़ में देवगिरि पहाड़ के अंचल मे स्थित है। जो जयपुर से मात्र 100 किलोमीटर दूर नेशनल हाईवें नं.12 पर बरोनी होकर (बरोनी से 21 किलोमीटर दूर) स्थित है। यह जयपुर कोटा रेलमार्ग पर ईसरदा रेल्वे स्टेशन से 3 किलोमीटर दूर स्थित है।
घुश्मेश्वर द्धादशवां ज्योतिर्लिंग का यह पवित्र मंदिर कई वर्षो पुराना है।
वर्षभर में लाखों लोग यहाँ आते है। देवगिरी पर्वत पर बना घुश्मेश्वर उधान
रात्री के समय लाइटिंग में अदभुत छटायेँ बिखेरता हैं।
भगवान शिव के बहारवें (द्धादशवें) ज्योतिर्लिंग के स्थान के बारे में पिछले
वर्षो मेँ कई दावे व आपत्तियां उठाई गई। लेकिन शिवपुराण के प्रमाण से ये
साबित हो गया है की यह द्धादशवां ज्योतिर्लिंग शिवालय,शिवाड़ (राजस्थान) मेँ ही स्थित है। शिवपुराण के अनुसार बाहरवां (द्धादशवां) ज्योतिर्लिंग शिवालय
मेँ है। शिव महापुराण कोटि रूद्र संहिता के अध्याय 32 से 33 के अनुसार घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग शिवालय में स्थित है। प्राचीन काल में शिवाड का नाम शिवालय ही था।

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री शैले मल्लिकार्जुनम | उज्जयिन्यां महाकालंओंकारं
ममलेश्वरम ||
केदारं हिमवत्प्रष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम | वाराणस्यां च विश्वेशं त्रयम्बकं
गोतमी तटे ||
वैधनाथं चितभूमौ नागेशं दारुकावने | सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये
||
(शिव पुराण कोटि रूद्र संहिता 32-33)

कसार देवी मंदिर

दुनिया में तीन पर्यटक स्थल ऐसे हैं जहां कुदरत की खूबसूरती के दर्शन तो होते ही हैं, साथ ही मानसिक शांति भी महसूस होती है। ये अद्वितीय और चुंबकीय शक्ति का केंद्र भी हैं।
इनमें से एक भारत के उत्तराखंड में अल्मोड़ा स्थिति कसारदेवी मंदिर है। इन तीनों धर्म स्थलों पर हजारों साल पहले सभ्यताएं बसी थीं। नासा के वैज्ञानिक चुम्बकीय रूपसे इन तीनों जगहों के चार्ज होने के कारणों और प्रभावों पर शोध कर रहे हैं। कसारदेवी मंदिर के आसपास पूरा क्षेत्र वैन में धरती के भीतर विशाल भू-चुंबकीय पिंड है। इस पिंड में विद्युतीय चार्ज कणों की परत होती है जिसे रेडिएशन भी कह सकते हैं।
पिछले दो साल से नासा के वैज्ञानिक इस बैल्ट के बनने के कारणों को जानने में जुटे हैं। इस वैज्ञानिक अध्ययन में यह भी पता लगाया जा रहा है कि मानव मस्तिष्क या प्रकृति पर इस चुंबकीय पिंड का क्या असर पड़ता है।
अब तक हुए इस अध्ययन में पाया गया है कि अल्मोड़ा स्थित कसारदेवी मंदिर और दक्षिण अमेरिका के पेरू स्थित माचू-पिच्चू व इंग्लैंड के स्टोन हेंग में अद्भुत समानताएं हैं।

दुनिया में तीन पर्यटक स्थल ऐसे हैं जहां कुदरत की खूबसूरती के दर्शन तो होते ही हैं, साथ ही मानसिक शांति भी महसूस होती है। ये अद्वितीय और चुंबकीय शक्ति का केंद्र भी हैं।
इनमें से एक भारत के उत्तराखंड में अल्मोड़ा स्थिति कसारदेवी मंदिर है। इन तीनों धर्म स्थलों पर हजारों साल पहले सभ्यताएं बसी थीं। नासा के वैज्ञानिक चुम्बकीय रूपसे इन तीनों जगहों के चार्ज होने के कारणों और प्रभावों पर शोध कर रहे हैं। कसारदेवी मंदिर के आसपास पूरा क्षेत्र वैन में धरती के भीतर विशाल भू-चुंबकीय पिंड है। इस पिंड में विद्युतीय चार्ज कणों की परत होती है जिसे रेडिएशन भी कह सकते हैं।
पिछले दो साल से नासा के वैज्ञानिक इस बैल्ट के बनने के कारणों को जानने में जुटे हैं। इस वैज्ञानिक अध्ययन में यह भी पता लगाया जा रहा है कि मानव मस्तिष्क या प्रकृति पर इस चुंबकीय पिंड का क्या असर पड़ता है।
अब तक हुए इस अध्ययन में पाया गया है कि अल्मोड़ा स्थित कसारदेवी मंदिर और दक्षिण अमेरिका के पेरू स्थित माचू-पिच्चू व इंग्लैंड के स्टोन हेंग में अद्भुत समानताएं हैं।
 

भाग्यशाली अंक 18

अंकशास्त्र के अनुसार हमारे जन्म की तारीख जिसे हम मूलांक कहते हैं, हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण होती है। यह मूलांक हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं पर असरदार साबित होता है।इस मूलांक के जरिये किसी व्यक्ति के स्वभाव, उसकी पसंद-नापसंद, उसके लिए जीवन में क्या अच्छा है तथा कौन सी चीज़ें उसके लिए बुरी साबित हो सकती हैं, यह सारी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। ‘18’ के अंक को अंकशास्त्र विद्या के अनुसार बेहद असरदार माना गया है। यह अंक अपने आप ही आपके लिए सौभाग्यशाली साबित हो सकता है। इस अंक में ऐसे चमत्कारी प्रभाव हैं कि यह रुके हुए काम तो बनाता ही है, साथ ही इस अंक का परस्पर उपयोग एक धनहीन व्यक्ति को मालामाल बना सकता है।18 अंक दुनिया भर में काफी शुभ अंक माना जाता है। यह बात हर कोई जानता है कि अंकशास्त्र के भीतर यदि कोई अंक सबसे अशुभ माना गया है तो वह है 13। इस अंक का प्रभाव इतना अधिक है कि लोग इसे इस्तेमाल करने से भी कतराते हैं।पर 18 अंक को लेकर दुनिया भर में कई मान्यताएं देखी गई हैं। चीन में मान्यता है कि अंक 18 धन और समृद्धि का प्रतीक है। इसलिए व्यवसाय या नौकरी से संबंधित या फिर कोई भी धन से जुड़ा कार्य करने के लिए 18 तारीख को जरूर चुना जाता है।मान्यताओं के आधार पर अंक 18 का उच्चारण करने से सकारात्मक उर्जा का प्रवाह होता है जो धन वैभव को आकर्षित करता है। चीन में यह विश्वास इतना गहरा है कि यहां लोग 18वें नंबर का घर और 18 नंबर का फ्लैट लेना पसंद करते हैं। एक लाईन में बने मकानों में सभी के दाम एक जैसे होते हैं लेकिन इनमें से 18वें नंबर का मकान सबसे महंगा बिंकता है। हमारे देश भारत में भी अंक 18 को शुभ माना जाता है।आज से ही नहीं बल्कि पौराणिक युग से 18 अंक को महत्व हासिल हुआ है। हिन्दू पुराणों की संख्या 18 रखी गई है, इसके अलावा शास्त्र भी कुल 18 ही हैं। महाभारत महाकाव्य को भी 18 भागों में ही बांटा गया है।18 कोजोड़ने से 9 मूलांक आता है जो गुरु से प्रभावित है, जो व्यक्ति के जीवन में धन और उन्नति का मार्ग खोलता है। इसलिये इस तारीख को जन्म लेने वाले लोग काफी भाग्य शाली माने जाते हैं। इसके अलावा 18 अंक की तरह ही भारत में अंक 9 का काफी इस्तेमाल किया जाता है।

सीता के वनवास का रहस्य

सीता के वनवास का रहस्य :
एक बार सीता  अपनी सखियों के साथ मनोरंजन के लिए महल के बाग में गईं. उन्हें पेड़ पर बैठे तोते का एक जोड़ा दिखा.
दोनों तोते आपस में सीता के बारे में बात कर रहे थे. एक ने कहा-अयोध्या में एक सुंदर और प्रतापी कुमार हैं जिनका नाम श्रीराम है. उनसे जानकी का विवाह होगा.श्रीराम ग्यारह हजार वर्षों तक इस धरती पर शासन करेंगे. सीता-राम एक दूसरे केजीवनसाथी की तरह इस धरती पर सुख से जीवन बिताएंगे.
सीता ने अपना नाम सुना तो दोनों पक्षी की बात गौर से सुनने लगीं. उन्हें अपने जीवन के बारे में और बातें सुनने की इच्छा हुई. सखियों से कहकर उन्होंने दोनों पक्षी पकड़वा लिए. सीता ने उन्हें प्यार से पुचकारा और कहा- डरो मत. तुम बड़ी अच्छी बातें करते हो. यह बताओ ये ज्ञान तुम्हें कहां से मिला. मुझसे भयभीत होने की जरूरत नहीं.
दोनों का डर समाप्त हुआ. वे समझ गए कि यह स्वयं सीता हैं. दोनों ने बताया कि वाल्मिकी नाम के एक महर्षि हैं. वे उनके आश्रम में ही रहते हैं. वाल्मिकी रोज राम-सीता जीवन की चर्चा करते हैं. वे यह सब सुना करते हैं और सब
कंठस्थ हो गया है.
सीता ने और पूछा तो शुक ने कहा- दशरथ पुत्र राम शिव का धनुष भंग करेंगे और सीता उन्हें पति के रूप में स्वीकार करेंगी. तीनों लोकों में यह अद्भुत जोड़ी बनेगी.सीता पूछती जातीं और शुक उसका उत्तर देते जाते. दोनों थक गए. उन्होंने सीता से कहा यह कथा बहुत विस्तृत है. कई माह लगेंगे सुनाने में. यह कह कर दोनों उड़ने को तैयार हुए.
सीता ने कहा- तुमने मेरे भावी पति के बारे में बताया है. उनके बारे में बड़ी
जिज्ञासा हुई है. जब तक श्रीराम आकर मेरा वरण नहीं करते मेरे महल में तुम आराम से रहकर सुख भोगो.
शुकी ने कहा- देवी हम वन के प्राणी है. पेडों पर रहते सर्वत्र विचरते हैं. मैं
गर्भवती हूं. मुझे घोसले में जाकर अपने बच्चों को जन्म देना है.
सीताजी नहीं मानी. शुक ने कहा- आप जिद न करें. जब मेरी पत्नी बच्चों को जन्म दे देगी तो मैं स्वयं आकर शेष कथा सुनाउंगा. अभी तो हमें जाने दें.
सीता ने कहा- ऐसा है तो तुम चले जाओ लेकिन तुम्हारी पत्नी यहीं रहेगी. मैं इसे कष्ट न होने दूंगी. शुक को पत्नी से बड़ा प्रेम था. वह अकेला जाने को तैयार न था. शुकी भी अपने पति से वियोग सहन नहीं कर सकती थी . उसने सीता को कहा- आप मुझे पति से अलग न करें. मैं आपको शाप दे दूंगी.
सीता हंसने लगीं. उन्होंने कहा- शाप देना है तो दे दो. राजकुमारी को पक्षी के शाप से  क्या बिगड़ेगा.शुकी ने शाप दिया- एक गर्भवती को जिस तरह तुम उसके पति से दूर कर रही हो उसी तरह तुम जब गर्भवती रहोगी तो तुम्हें पति का बिछोह सहना पड़ेगा. शाप देकर शुकी ने प्राण त्याग दिए.
पत्नी को मरता देख शुक क्रोध में बोला- अपनी पत्नी के वचन सत्य करने के लिए मैं ईश्वर को प्रसन्न कर श्रीराम के नगर में जन्म लूंगा और अपनी पत्नी का शाप सत्य कराने का माध्यम बनूंगा.
वही शुक(तोता) अयोध्या का धोबी बना जिसने झूठा लांछन लगाकर श्रीराम को इस बात के लिए विवश किया कि वह सीता को अपने महल से निष्काषित कर दें.

Sunday, February 15, 2015

शिव धुन

शिव धुन

तीन लोक के दाता
मैंने जोड़ा है तुमसे नाता
तीन लोक के दाता

मन में तू है
तू ही मेरे नैनो में है मुस्काता
तीन लोक के दाता
मैंने जोड़ा है तुमसे नाता
तीन लोक के दाता

रूप एक है,नाम हज़ारों
नीलकंठ विषधारी
मै किस नाम से तुझे पुकारूं
महादेव त्रिपुरारी
पल पल मेरा रोम रोम है तेरे ही गुण गाता
तीन लोक के दाता
मैंने जोड़ा है तुमसे नाता
तीन लोक के दाता


तेरी दया है, कृपा है तेरी
यह उपकार है तेरा 
तूने सब कुछ दिया मुझे है
मै तो तेरा दिया ही खाता
तीन लोक के दाता
मैंने जोड़ा है तुमसे नाता
तीन लोक के दाता

तुझमे मात पिता को देखा , देखे बंधू भ्राता
तीन लोक के दाता
मैंने जोड़ा है तुमसे नाता
तीन लोक के दाता

तेरे चरणों से एक पल भी
दूर न होने पाऊं
जैसे बूँद मिले सागर में ,मैं तुझमे खो जाऊं
मुझ पे अपना प्रेम का रस तू
यूं ही रहे बरसाता
तीन लोक के दाता
मैंने जोड़ा है तुमसे नाता
तीन लोक के दाता