Friday, April 26, 2013

पांडूपोल हनुमान मंदिर


आज के घोरकलयुग में केवल एक देवता ऐसे हैं जो साक्षात रूपमें उपस्थित हैं और वे देव हैं रामभक्तहनुमान।संकटमोचन के रूप में पूजे जाने वाले इन देव के वैसे तो पूरे भारतवर्ष में कई धामहोंगे लेकिन राजस्थान के सरिस्काअभ्यारण के सुरम्य वातावरण में पवनपुत्र एक ऐसे रूप में विराजमान हैं जो शायद ही पूरी दुनिया मेंकहीं और होगा।

 हनुमानजी का यहरूप मोहक ही नहीं अपने आप में निराला भी है।अन्य धामों से हटकरइस धाम में हनुमानजी की प्रतिमा शयन अवस्था में विराजमान हैं।हनुमानजी की  अनोखीप्रतिमा वाला यह मंदिर राजस्थान के अलवर जिले में स्थितहै।अलवर जिला मुख्यालय से लगभग 55  किमी दूर सारिस्का अभ्यारण और अरावली की सुन्दर वादियों में स्थित इस मंदिर को पांडूपोल के नाम सेजाना जाता है।इस  मंदिर का एक रोचक इतिहास है जो महाभारत काल सेजुड़ा हुआ है।कहा जाता है कि महाभारत काल में जब पांडव पुत्र अपना बारह वर्ष कावनवास पूर्णकर चुके थे और अज्ञातवास का एक वर्ष पूर्ण करने के लिए छुपे-छुपे फिर रहे थे तभी वेराजस्थान के अलवर के समीप इस स्थान पर पहुंचे।उस समय उन्हें राह में दो पहाड़ियां आपस में जुडी नजरआईं जिससे उनका आगे का मार्ग अवरुद्ध हो रहा था तब माता कुंती नेअपने पुत्रों से पहाड़ी को तोड़ रास्ता बनाने को कहा।माता का आदेश सुनते हीमहावली भीम ने अपनी गदा से एक भरपूर प्रहार किया जिससे पहाड़ियों को चकनाचूर कर रास्ताबना दिया।भीम के इस पौरुष भरे कार्य को देख कर  उनकी माता और भाई प्रशंसा करनेलगे जिससे भीम के मन में अहंकार पैदा हो गया।भीम का यह अहंकार तोड़ने के लिएहनुमानजी ने योजना बनाई और आगे बढ़ रहे पांडवों के रास्ते में बूढ़े वानर कारूप रखकर लेट गए।जब पांडवों ने देखा कि जिस राह से उन्हें गुजरना है वहां एकबूढा वानर आराम कर रहा है तो उन्होंने उससे रास्ता छोड़ने का आग्रहकरते हुए कहा कि वह उनका रास्ता छोड़ कहीं और जाकर विश्राम करे।पांडवों काआग्रह सुन हनुमानजी (जो बूढ़े वानर के रूप में मौजूद थे) ने कहा कि वे बूढ़े होने केकारण हिलडुल नहीं सकते अतः पांडव किसी दूसरे रास्ते से निकल जाएं।अपने अहंकार में चूर भीमको हनुमानजी की यह बात अच्छी नहीं लगी और हनुमानजी को ललकारने लगे।भीम कीललकार सुन हनुमानजी ने बड़े ही नम्र भाव से कहा कि वे उनकी पूंछ को हटाकर निकल जाएंलेकिन भीम उनकी पूंछ को हटाना तो दूर हिला भी न सके और अपने अहंकार पर पछताने लगे साथ हीहनुमानजी से  क्षमा याचना करने लगे।भीम के द्वारा क्षमा याचना करने परहनुमानजी अपने असली रूप में आए और बोले- तुम वीर ही नहीं महाबली हो लेकिन वीरोंको इस तरह अहंकार शोभा नहीं देता।इसके बाद हनुमानजी भीम को महाबलीहोने का वरदान देकर वहां से विदा हो गए लेकिन वह स्थान जहां वे लेटे थे आजभी उनके प्रसिद्ध धाम के रूप में पूज्य है।
  




पांडूपोल हनुमान मंदिर कानिर्माण जंगल  में ही रहने वाले एक संत निर्भयादास ने कराया है।प्रति मंगलवार और शनिवार को इस मंदिर में हनुमानजी के इस अद्भुत रूप के दर्शनकरने भक्तों का मेला  सा लगता है।यहीं से कुछ दूरी पर वह पहाड़ी भी मौजूद है जिसेभीम ने गदा से चकनाचूर कर रास्ता बनाया था।इस पहाड़ी को भीम पहाड़ी केनाम से जाना जाता है।इस पहाड़ी से जल की एक अविरल धारा बहती रहती है जिसे देखनेदूर-दूर से लोगआते हैं।हर वर्ष भादों के महीने में पांडूपोल हनुमानजी के दरवार में मेला लगता है जिसमेंलाखों की संख्या में महावीर हनुमानजी के भक्त एकत्रित होते हैं।

Tuesday, April 16, 2013

राम जी के गीत गाओ राम नवमी आ गई

राम नवमी आ गई

राम नवमी आ गई
राम जी के गीत गाओ राम नवमी आ गई !
प्रेम की गंगा बहाओ राम नवमी आ गई !
राम जी का जन्म हुआ देश भारतवर्ष में !
नाच उठे लोग सभी मग्न हुए हर्ष में !
झूम के खुशियाँ  मनाओ राम नवमी आ गई !
 राम जी के गीत गाओ राम नवमी आ गई !
भूल के माता पिता का हुकम नहीं टालना !
जान की बाजी लगा के वचन सदा पालना !
धर्म की बातें सुनाओ राम नवमी आ गई !
राम जी के गीत गाओ राम नवमी आ गई !
सभ्य हो विनम्र हो गुरुजनों का प्यार लो !
राम के गुणों से अपने जन्म को सुधार लो !
देश  को ऊँचा उठाओ राम नवमी आ गई !
राम जी के गीत गाओ राम नवमी आ गई !
मिल के रहो मिलके चलो मिलके ही विचार लो !
जो बिछुड गए हैं उन्हें प्यार से पुकार लो !
घर की  दीवारें गिराओ राम नवमी आ गई !
राम जी के गीत गाओ राम नवमी आ गई !

Saturday, April 13, 2013

शंख

भारतीय संस्कृति में शंख को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। शंख से कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर
देवता प्रसन्न होते हैं। कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है।

हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म में शंख का महत्त्व अनादि काल से चला आ रहा है। शंख का हमारी पूजा से निकट का सम्बन्ध है। कहा जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के सदृश पवित्र हो जाता है। मन्दिर में शंख में जल भरकर भगवान की आरती की जाती है। आरती के बाद शंख का जल भक्तों पर छिड़का जाता है जिससे वे प्रसन्न होते हैं। जो भगवान कृष्ण को शंख में फूल, जल और अक्षत रखकर उन्हें अर्ध्य देता है, उसको अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। शंख में जल भरकर ऊँ नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने से पापों का नाश होता है।

धार्मिक कृत्यों में शंख का उपयोग किया जाता है। पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना, आरती, महायज्ञ एवं तांत्रिक क्रियाओं के साथ शंख का वैज्ञानिक एवं आयुर्वेदिक महत्त्व भी है। हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। कुछ गुह्य साधनाओं में इसकी अनिवार्यता होती है। शंख साधक को उसकी इच्छित मनोकामना पूर्ण क
रने में सहायक होते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। वैदिक अनुष्ठानों एवं तांत्रिक क्रियाओं में भी विभिन्न प्रकार के शंखों का प्रयोग किया जाता है।

साधारणत: मंदिर में रखे जाने वाले शंख उल्टे हाथ के तरफ खुलते हैं और बाज़ार में आसानी से ये कहीं भी मिल जाते हैं. लक्ष्मी के हाथ में जो शंख होता है वो दक्षिणावर्ती अर्थात सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले होते हैं। वामावर्ती शंख को जहां विष्णु का स्वरुप माना जाता है और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है। दक्षिणावृत्त शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है।

शंख पूजा का महत्त्व -

सभी वैदिक कार्यों में शंख का विशेष स्थान है। शंख का जल सभी को पवित्र करने वाला माना गया है, इसी वजह से आरती के बाद श्रद्धालुओं पर शंख से जल छिड़का जाता है। साथ ही शंख को लक्ष्मी का भी प्रतीक माना जाता है, इसकी पूजा महालक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली होती है। इसी वजह से जो व्यक्ति नियमित रूप से शंख की पूजा करता है उसके घर में कभी धन अभाव नहीं रहता। शास्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण का स्वरूप कहे जाने वाले माह मार्गशीर्ष में उन्हीं के पंचजन्य शंख की पूजा का विशेष महत्त्व है। जिस प्रकार सभी देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, वैसे ही शंख का भी पूजन करें। अर्चना करते समय इस मंत्र का जप करें -

त्वं पुरा सागरोत्पन्न विष्णुना विधृत: करे। निर्मित: सर्वदेवैश्च पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते।
तव नादेन जीमूता वित्रसन्ति सुरासुरा:। शशांकायुतदीप्ताभ पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते॥

शंख-ध्वनि / शंख बजाना -

शंख नाद का प्रतीक है। नाद जगत में आदि से अंत तक व्याप्त है। सृष्टि का आरंभ भी नाद से ही होता है और विलय भी उसी में होता है। दूसरे शब्दों में शंख को ॐ का प्रतीक माना जाता है, इसलिए पूजा-अर्चना आदि समस्त मांगलिक अवसरों पर शंख ध्वनि की विशेष महत्ता है। हिन्दू संस्कृति में पूजा और अनुष्ठान के समय शंख बजाने की परंपरा है जो बहुत पुरानी है। जैन, बौद्ध, शाक्त, शैव, वैष्णव आदि सभी संप्रदायों में शंख ध्वनि शुभ मानी गई है। महाभारत युद्ध में शंख ध्वनि की विशद चर्चा है। कई योद्धाओं के शंखों के नाम भी गिनाए गए हैं जिसमें कृष्ण के पांचजन्य शंख की विशेष महत्ता बताई गई है। जहां तक तीन बार शंख बजाने की परंपरा है वह आदि, मध्य और अंत से जुड़ी है। वैदिक मान्यता के अनुसार शंख को विजय घोष का प्रतीक माना जाता है। कार्य के आरम्भ करने के समय शंख बजाना शुभता का प्रतीक माना जाता है। इसके नाद से सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है और मस्तिष्क के विचारों में भी सकारात्मक बदलाव आ जाता है।

हमारे यहां शंख बजाना एक धार्मिक अनुष्ठान है। पूजा आरती, कथा, धार्मिक अनुष्टानों, हवन, यज्ञ आदि के आरंभ व अंत में भी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इसके पीछे धार्मिक आधार तो है ही, वैज्ञानिक रूप से भी इसकी प्रामाणिकता सिद्ध हो चुकी है। और शंख बजाने वाले व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है। शंख की पवित्रता और महत्त्व को देखते हुए हमारे यहां सुबह और शाम शंख बजाने की प्रथा शुरू की गई है। मंदिरों में नियमित रूप से और बहुत से घरों में पूजापाठ, धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, कथा, जन्मोत्सव आदि अवसरों पर शंख बजाना एक शुभ परम्परा मानी जाती है। कहा जाता है कि शंख बजाने से घर के बाहर की आसुरी शक्तियां घर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाती हैं। पारद शिवलिंग, पार्थिव शिवलिंग एवं मंदिरों में शिवलिंगों पर रुद्राभिषेक करते समय शंख-ध्वनि की जाती है। आरती, धार्मिक उत्सव, हवन-क्रिया, राज्याभिषेक, गृह-प्रवेश, वास्तु-शांति आदि शुभ अवसरों पर शंख-ध्वनि से लाभ मिलता है। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार शंख बजाने से भूत-प्रेत, अज्ञान, रोग, दुराचार, पाप, दुषित विचार और गरीबी का नाश होता है। शंख बजाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा कई बार अपना पंचजन्य शंख बजाया गया था। पुराणों और शास्त्रों में शंख ध्वनि को कल्याणकारी कहा गया है। इसकी ध्वनि विजय का मार्ग प्रशस्त करती है। शंख की ध्वनि से भक्तों को पूजा-अर्चना के समय की सूचना मिलती है। आरती के समापन के बाद इसकी ध्वनि से मन को शांति मिलती है।

समुद्र मंथन के समय देव- दानव संघर्ष के दौरान समुद्र से 14 अनमोल रत्नों की प्राप्ति हुई। जिनमें आठवें रत्न के रूप में शंखों का जन्म हुआ। जिनमें सर्वप्रथम पूजित देव गणेश के आकार के गणेश शंख का प्रादुर्भाव हुआ जिसे गणेश शंख कहा जाता है।

शंख का महत्त्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वैज्ञानिक रूप से भी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख-ध्वनि के प्रभाव में सूर्य की किरणें बाधक होती हैं। अतः प्रातः व सायंकाल में जब सूर्य की किरणें निस्तेज होती हैं, तभी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इससे आसपास का वातावरण तथा पर्यावरण शुद्ध रहता है। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।
ऋषि श्रृंग की मान्यता है कि छोटे-छोटे बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बाँधने तथा शंख में जल भरकर अभिमंत्रित करके पिलाने से वाणी-दोष नहीं रहता है। बच्चा स्वस्थ रहता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजायें तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं।
रूक-रूक कर बोलने व हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल का पान करें, तो उन्हें आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा। दरअसल मूकता व हकलापन दूर करने के लिए शंख-जल एक महौषधि है।
हृदय रोगी के लिए यह रामबाण औषधि है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।
http://www.youtube.com/watch?v=eX7CqSyef4Y

पूजा का अर्थ

पूजा का अर्थ -
 'पूजा' यह शब्द २ पदों से मिलकर बना है। 'पो' अर्थात पूर्णता तथा 'जा' अर्थात 'से उत्पन्न'। अर्थात जो पूर्णता से उत्पन्न होती है वह है पूजा। जब हमारी चेतना पूर्ण हो जाती है तथा इस पूर्णता की स्थिति में हम कोई कर्म करते हैं तो वह कर्म पूजा कहलाता है। जब ह्रदय पूर्णता से आलोकित होता है और पूर्णता से अभिभूत स्थिति में हमारे द्वारा किये गए कार्य पूजा बन जाते हैं।

यह मानकर कि ईश्वर हमारे लिए जो कुछ कर रहा है वह सबकुछ पूजा है। ईश्वर हमें धान्य और अनाज देता है अतः हम उसे चावल चढाते हैं। ईश्वर हमें जल देता है अतः हम ईश्वर को जल चढाते हैं।

ईश्वर ने हमें सुगंधों का उपहार दिया है अतः हम ईश्वर को इत्र चढाते हैं। वृक्षों पर हमारे लिए फल उत्पन्न किये गए हैं अतः हम भी ईश्वर को फल चढाते हैं। ईश्वर सूर्य और चन्द्र के माध्यम से प्रतिदिन हमारी आरती करता है अतः हम दिया  जलाकर उसकी आरती का अनुसरण करते हैं।  ह्रदय से किसी को आदर देना... आदर जो पूर्ण हो, वह पूजा कहलाता है।

पूजा-कर्म का अंतिम चरण आरती के रूप में जाना जाता है।
'आरती' का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है - 'पूर्ण आनंद'। रति का अर्थ है आनंद।
अतः आरती का अर्थ है पूर्णानंद, अर्थात वह आनंद जिसमे दुःख का
लेशमात्र भी ना हो और वह पूर्ण हो।

आरती कैसे की जाती है? एक दिया  जलाकर भगवान् के चारों ओर फिराया जाता है। दिया  क्या बताता है? यह बताता है कि जीवन प्रकाश की भांति है। आप चाहे जिस दिशा में अग्नि को घुमाएँ, वह ऊर्ध्व के ओर ही गमन करेगी। इसी प्रकार जीवन की दिशा भी सदैव ऊर्ध्व की ओर होनी चाहिए।

हमारा जीवन किसका परिक्रमण करे? हमारे जीवन को सदैव दिव्यता का परिक्रमण करना चाहिए। यही आरती है। इसके पश्चात् बारी आती है मंत्रपुष्पांजलि की। मन्त्रों के माध्यम से मन की शुद्धि होती है और शुद्ध मन एक पुष्प की भांति खिलता है और यही खिला हुआ मन दिव्यता को अर्पित किया जाता है। आरती के माध्यम से मन एक खिला हुआ पुष्प बन जाता है।