Thursday, March 29, 2012

विन्ध्येश्वेरी चालीसा



विन्ध्येश्वेरी चालीसा



दोहा



नमो नमो विन्ध्येश्वरी, नमो नमो जगदम्ब।

सन्तजनों के काज में करती नहीं विलम्ब।



चौपाई



जय जय जय विन्ध्याचल रानी, आदि शक्ति जग विदित भवानी।

सिंहवाहिनी जय जग माता, जय जय जय त्रिभुवन सुखदाता।



कष्ट निवारिणी जय जग देवी, जय जय जय असुरासुर सेवी।

महिमा अमित अपार तुम्हारी, शेष सहस्र मुख वर्णत हारी।



दीनन के दुख हरत भवानी, नहिं देख्यो तुम सम कोई दानी।

सब कर मनसा पुरवत माता, महिमा अमित जग विख्याता।



जो जन ध्यान तुम्हारो लावे, सो तुरतहिं वांछित फल पावै।

तू ही वैष्णवी तू ही रुद्राणी, तू ही शारदा अरु ब्रह्माणी।



रमा राधिका श्यामा काली, तू ही मातु सन्तन प्रतिपाली।

उमा माधवी चण्डी ज्वाला, बेगि मोहि पर होहु दयाला।



तू ही हिंगलाज महारानी, तू ही शीतला अरु विज्ञानी।

दुर्गा दुर्ग विनाशिनी माता, तू ही लक्ष्मी जग सुख दाता।



तू ही जाह्नवी अरु उत्राणी, हेमावती अम्बे निरवाणी।

अष्टभुजी वाराहिनी देवी, करत विष्णु शिव जाकर सेवा।



चौसठ देवी और कल्यानी, गौरी मंगला सब गुण खानी।

पाटन मुम्बा दन्त कुमारी, भद्रकाली सुन विनय हमारी।



वज्र धारिणी शोक नाशिनी, आयु रक्षिणी विन्ध्यवासिनी।

जया और विजया बैताली, मातु संकटी अरु विकराली।



नाम अनन्त तुम्हार भवानी, बरनै किमि मानुष अज्ञानी।

जापर कृपा मातु तव होई, तो वह करै चहै मन जोई।



कृपा करहुं मोपर महारानी, सिद्ध करिए अब यह मम बानी।

जो नर धरै मात कर ध्याना, ताकर सदा होय कल्याना।



विपति ताहि सपनेहु नहिं आवै, जो देवी का जाप करावै।

जो नर कहं ऋण होय अपारा, सो नर पाठ करै शतबारा।



निश्चय ऋण मोचन होइ जाई, जो नर पाठ करै मन लाई।

अस्तुति जो नर पढ़ै पढ़ावै, या जग में सो अति सुख पावै।



जाको व्याधि सतावे भाई, जाप करत सब दूर पराई।

जो नर अति बन्दी महं होई, बार हजार पाठ कर सोई।



निश्चय बन्दी ते छुटि जाई, सत्य वचन मम मानहुं भाई।

जा पर जो कछु संकट होई, निश्चय देविहिं सुमिरै सोई।



जा कहं पुत्र होय नहिं भाई, सो नर या विधि करे उपाई।

पांच वर्ष सो पाठ करावै, नौरातन में विप्र जिमावै।



निश्चय होहिं प्रसन्न भवानी, पुत्र देहिं ताकहं गुण खानी।

ध्वजा नारियल आनि चढ़ावै, विधि समेत पूजन करवावै।



नित्य प्रति पाठ करै मन लाई, प्रेम सहित नहिं आन उपाई।

यह श्री विन्ध्याचल चालीसा, रंक पढ़त होवे अवनीसा।



यह जनि अचरज मानहुं भाई, कृपा दृष्टि तापर होइ जाई।

जय जय जय जग मातु भवानी, कृपा करहुं मोहिं पर जन जानी।

Friday, March 23, 2012

नव रात्रि व्रत कथा

नव रात्रि व्रत कथा



प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गा जी का ध्यान करके यह कथा पढ़नी चाहिए। कन्याओं के लिए यह व्रत विशेष फलदायक है। श्री जगदम्बा की कृपा से सब विघ्न दूर होते हैं। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा ही जय हो’ का उच्चारण करें।



कथा प्रारम्भ



बृहस्पति जी बोले- हे ब्राह्मण। आप अत्यन्त बुद्धिमान, सर्वशास्त्र और चारों वेदों को जानने वालों में श्रेष्ठ हो। हे प्रभु! कृपा कर मेरा वचन सुनो। नवरात्र का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? हे भगवान! इस व्रत का फल क्या है? किस प्रकार करना उचित है? और पहले इस व्रत को किसने किया? सो विस्तार से कहो?



बृहस्पति जी का ऐसा प्रश्न सुनकर ब्रह्मा जी कहने लगे कि हे बृहस्पते! प्राणियों का हित करने की इच्छा से तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया। जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेवी, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं, यह नवरात्र व्रत सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसके करने से पुत्र चाहने वाले को पुत्र, धन चाहने वाले को धन, विद्या चाहने वाले को विद्या और सुख चाहने वाले को सुख मिल सकता है। इस व्रत को करने से रोगी मनुष्य का रोग दूर हो जाता है और कारागार हुआ मनुष्य बन्धन से छूट जाता है। मनुष्य की तमाम आपत्तियां दूर हो जाती हैं और उसके घर में सम्पूर्ण सम्पत्तियां आकर उपस्थित हो जाती हैं। बन्ध्या को इस व्रत के करने से पुत्र उत्पन्न होता है। समस्त पापों को दूर करने वाले इस व्रत के करने से ऐसा कौन सा मनोबल है जो सिद्ध नहीं हो सकता। जो मनुष्य अलभ्य मनुष्य देह को पाकर भी नवरात्र का व्रत नहीं करता वह माता-पिता से हीन हो जाता है अर्थात् उसके माता-पिता मर जाते हैं और अनेक दुखों को भोगता है। उसके शरीर में कुष्ठ हो जाता है और अंग से हीन हो जाता है | उसके सन्तानोत्पत्ति नहीं होती है। इस प्रकार वह मूर्ख अनेक दुख भोगता है। इस व्रत को न करने वला निर्दयी मनुष्य धन और धान्य से रहित हो, भूख और प्यास के मारे पृथ्वी पर घूमता है और गूंगा हो जाता है। जो स्त्री इस व्रत को नहीं करतीं वह पति हीन होकर नाना प्रकार के दुखों को भोगती हैं। यदि व्रत करने वाला मनुष्य सारे दिन का उपवास न कर सके तो एक समय भोजन करे और उस दिन बान्धवों सहित नवरात्र व्रत की कथा करे।



हे बृहस्पते! जिसने पहले इस व्रत को किया है उसका पवित्र इतिहास मैं तुम्हें सुनाता हूं। तुम सावधान होकर सुनो। इस प्रकार ब्रह्मा जी का वचन सुनकर बृहस्पति जी बोले- हे ब्राह्मण! मनुष्यों का कल्याण करने वाले इस व्रत के इतिहास को मेरे लिए कहो मैं सावधान होकर सुन रहा हूं। आपकी शरण में आए हुए मुझ पर कृपा करो।



ब्रह्मा जी बोले- पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सम्पूर्ण सद्गुणों से युक्त, मानो ब्रह्मा की सबसे पहली रचना हो, ऐसी सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर पुत्री उत्पन्न हुई। वह कन्या सुमति अपने घर के बालकपन में अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुई इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है। उसका पिता प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम करता था। उस समय वह भी नियम से वहां उपस्थित होती थी। एक दिन वह सुमति अपनी सखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मैं किसी कुष्ठी और दरिद्री मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूंगा।



इस प्रकार कुपित पिता के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुख हुआ और पिता से कहने लगी कि हे पिताजी! मैं आपकी कन्या हूं। मैं आपके सब तरह से आधीन हूं। जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करो। राजा, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ, जैसी तुम्हारी इच्छा हो, मेरा विवाह कर सकते हो पर होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है मेरा तो इस पर पूर्ण विश्वास है।



मनुष्य जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता वही है जो भाग्य में विधाता ने लिखा है |जो जैसा करता है, उसको फल भी उस कर्म के अनुसार मिलता है, क्यों कि कर्म करना मनुष्य के आधीन है। पर फल दैव के आधीन है। जैसे अग्नि में पड़े तृणाति अग्नि को अधिक प्रदीप्त कर देते हैं उसी तरह अपनी कन्या के ऐसे निर्भयता से कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राह्मण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ- जाओ जल्दी जाओ, अपने कर्म का फल भोगो। देखें केवल भाग्य भरोसे पर रहकर तुम क्या करती हो?



इस प्रकार से कहे हुए पिता के कटु वचनों को सुनकर सुमति मन में विचार करने लगी कि - अहो! मेरा बड़ा दुर्भाग्य है जिससे मुझे ऐसा पति मिला। इस तरह अपने दुख का विचार करती हुई वह सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयावने कुशयुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की। उस गरीब बालिका की ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगीं कि हे दीन ब्राह्मणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूं, तुम जो चाहो वरदान मांग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूं। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्राह्मणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुई हैं, वह सब मेरे लिए कहो और अपनी कृपा दृष्टि से मुझ दीन दासी को कृतार्थ करो। ऐसा ब्राह्मणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं आदिशक्ति हूं और मैं ही ब्रह्मविद्या और सरस्वती हूं मैं प्रसन्न होने पर प्राणियों का दुख दूर कर उनको सुख प्रदान करती हूं। हे ब्राह्मणी! मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूं।



तुम्हारे पूर्व जन्म का वृतान्त सुनाती हूं सुनो! तुम पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और अति पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की। चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ लिया और ले जाकर जेलखाने में कैद कर दिया। उन लोगों ने तेरे को और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया। इस प्रकार नवरात्रों के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल ही पिया। इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया। हे ब्राह्मणी! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हें मनवांछित वस्तु दे रही हूं। तुम्हारी जो इच्छा हो वह वरदान मांग लो।



इस प्रकार दुर्गा के कहे हुए वचन सुनकर ब्राह्मणी बोली कि अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो हे दुर्गे! आपको प्रणाम करती हूं। कृपा करके मेरे पति के कुष्ठ को दूर करो। देवी कहने लगी कि उन दिनों में जो तुमने व्रत किया था उस व्रत के एक दिन का पुण्य अपने पति का कुष्ठ दूर करने के लिए अर्पण करो | मेरे प्रभाव से तेरा पति कुष्ठ से रहित और सोने के समान शरीर वाला हो जायेगा।

ब्रह्मा जी बोले इस प्रकार देवी का वचन सुनकर वह ब्राह्मणी बहुत प्रसन्न हुई और पति को निरोग करने की इच्छा से ठीक है, ऐसे बोली। तब उसके पति का शरीर भगवती दुर्गा की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया जिसकी कान्ति के सामने चन्द्रमा की कान्ति भी क्षीण हो जाती है | वह ब्राह्मणी पति की मनोहर देह को देखकर देवी को अति पराक्रम वाली समझ कर स्तुति करने लगी कि हे दुर्गे! आप दुर्गत को दूर करने वाली, तीनों जगत की सन्ताप हरने वाली, समस्त दुखों को दूर करने वाली, रोगी मनुष्य को निरोग करने वाली, प्रसन्न होने पर मनवांछित वस्तु को देने वाली और दुष्ट मनुष्य का नाश करने वाली हो। तुम ही सारे जगत की माता और पिता हो। हे अम्बे! मुझ अपराध रहित अबला की मेरे पिता ने कुष्ठी के साथ विवाह कर मुझे घर से निकाल दिया। घर से निकाली हुई मैं पृथ्वी पर घूमने लगी। आपने ही मेरा इस आपत्ति रूपी समुद्र से उद्धार किया है। हे देवी! आपको प्रणाम करती हूं। मुझ दीन की रक्षा कीजिए।



ब्रह्माजी बोले- हे बृहस्पते! इसी प्रकार उस सुमति ने मन से देवी की बहुत स्तुति की, उससे हुई स्तुति सुनकर देवी को बहुत सन्तोष हुआ और ब्राह्मणी से कहने लगी कि हे ब्राह्मणी! तुम्हे उदालय नाम का अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिवान और जितेन्द्रिय पुत्र शीघ्र होगा। ऐसे कहकर वह देवी उस ब्राह्मणी से फिर कहने लगी कि हे ब्राह्मणी और जो कुछ तेरी इच्छा हो वही मनवांछित वस्तु मांग सकती है ऐसा भवगती दुर्गा का वचन सुनकर सुमति बोली कि हे भगवती दुर्गे अगर आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे नवरात्रि व्रत विधि बतलाइये। हे दयावन्ती! जिस विधि से नवरात्र व्रत करने से आप प्रसन्न होती हैं उस विधि और उसके फल को मेरे लिए विस्तार से वर्णन कीजिए।



इस प्रकार ब्राह्मणी के वचन सुनकर देवी दुर्गा कहने लगी ,हे ब्राह्मणी! मैं तुम्हारे लिए सम्पूर्ण पापों को दूर करने वाली नवरात्र व्रत विधि को बतलाती हूं जिसको सुनने से तमाम पापों से छूटकर मोक्ष की प्राप्ति होती है।चैत्र और आश्विन मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधि पूर्वक व्रत करे | यदि दिन भर का व्रत न कर सके तो एक समय भोजन करे। पढ़े लिखे ब्राह्मणों से पूछकर कलश स्थापना करें और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सींचे। महाकाली, महालक्ष्मी और महा सरस्वती इनकी मूर्तियां बनाकर उनकी नित्य विधि सहित पूजा करे और पुष्पों से विधि पूर्वक अर्ध्य दें। बिजौरा के फूल से अर्ध्य देने से रूप की प्राप्ति होती है। जायफल से कीर्ति, दाख (किसमिस) से कार्य की सिद्धि होती है। आंवले से सुख और केले से आभूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अर्ध्य देकर यथा विधि हवन करें। खांड, घी, गेहूं, शहद, जौ, तिल, विल्व, नारियल, दाख और कदम्ब, इनसे हवन करें | गेहूं से होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। खीर व चम्पा के पुष्पों से धन और पत्तों से तेज और सुख की प्राप्ति होती है। आंवले से कीर्ति और केले से पुत्र होता है। कमल से राज सम्मान और दाखों से सुख सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। खांड , घी, नारियल, जौ और तिल से होम करने से मनवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला मनुष्य इस विधान से होम कर आचार्य को अत्यन्त नम्रता से प्रणाम करे और व्रत की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दे। इस महाव्रत को पहले बताई हुई विधि के अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इन नौ दिनों में जो कुछ दान आदि दिया जाता है, उसका करोड़ों गुना मिलता है। इस नवरात्र के व्रत करने से ही अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। हे ब्राह्मणी! इस सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले उत्तम व्रत को तीर्थ मंदिर अथवा घर में ही विधि के अनुसार करें।



ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! इस प्रकार ब्राह्मणी को व्रत की विधि और फल बताकर देवी अंतर्ध्यान हो गई। जो मनुष्य या स्त्री इस व्रत को भक्तिपूर्वक करता है वह इस लोक में सुख पाकर अन्त में दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त होता हे। हे बृहस्पते! यह दुर्लभ व्रत का माहात्म्य मैंने तुम्हारे लिए बतलाया है।

बृहस्पति जी कहने लगे- हे ब्रह्मा जी ! आपने मुझ पर अति कृपा की, जो अमृत के समान इस नवरात्र व्रत का माहात्म्य सुनाया। हे प्रभु! आपके बिना और कौन इस माहात्म्य को सुना सकता है? ऐसे बृहस्पति जी के वचन सुनकर ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! तुमने सब प्राणियों का हित करने वाले इस अलौकिक व्रत को पूछा है इसलिए तुम धन्य हो। यह भगवती शक्ति सम्पूर्ण लोकों का पालन करने वाली है, इस महादेवी के प्रभाव को कौन जान सकता है।

Thursday, March 22, 2012

जय माँ शैलपुत्री
जय माँ शैलपुत्री प्रथम, दक्ष की हो संतान।
नवरात्रे के पहले दिन करें आपका ध्यान ॥

अग्नि कुण्ड में जा कूदी, पति का हुआ अपमान।
अगले जनम में पा लिया शिव के पास स्थान ॥

राजा हिमाचल से मिला पुत्री बन सम्मान।
उमा नाम से पा लिया देवों का वरदान ॥

सजा है दाये हाथ में संघारक त्रिशूल।
बाए हाथ में ले लिया खिला कमल का फूल ॥

बैल है वाहन आपका, जपती हो शिव नाम।
दर्शन ने आनंद मिले अम्बे तुम्हे प्रणाम ॥

नवरात्रों की माँ, कृपा कर दो माँ।
जय माँ शैलपुत्री, जय माँ शैलपुत्री ॥

Wednesday, March 21, 2012

अपनी भारत की संस्कृति को पहचाने

''अपनी भारत की संस्कृति को पहचाने ---
दो पक्ष - कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष !
तीन ऋण - देव ऋण, पित्र ऋण एवं ऋषि त्रण !
चार युग - सतयुग , त्रेता युग , द्वापरयुग एवं कलयुग !
चार धाम - द्वारिका , बद्रीनाथ, जगन्नाथ पूरी एवं रामेश्वरम धाम !
चारपीठ - शारदा पीठ ( द्वारिका ), ज्योतिष पीठ ( जोशीमठ बद्रिधाम), गोवर्धन पीठ ( जगन्नाथपुरी ) एवं श्रन्गेरिपीठ !
चर वेद- ऋग्वेद , अथर्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद !
चार आश्रम - ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , बानप्रस्थ एवं संन्यास !
चार अंतःकरण - मन , बुद्धि , चित्त , एवं अहंकार !
पञ्च गव्य - गाय का घी , दूध , दही , गोमूत्र एवं गोबर , !
पञ्च देव - गणेश , विष्णु , शिव , देवी और सूर्य !
पंच तत्त्व - प्रथ्वी , जल , अग्नि , वायु एवं आकाश !
छह दर्शन - वैशेषिक , न्याय , सांख्य, योग , पूर्व मिसांसा एवं दक्षिण मिसांसा !
सप्त ऋषि - विश्वामित्र , जमदाग्नि , भरद्वाज , गौतम , अत्री , वशिष्ठ और कश्यप !
सप्त पूरी - अयोध्या पूरी , मथुरा पूरी , माया पूरी ( हरिद्वार ) , कशी , कांची ( शिन कांची - विष्णु कांची ) , अवंतिका और द्वारिका पूरी !
आठ योग - यम , नियम, आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान एवं समाधी !
आठ लक्ष्मी - आग्घ , विद्या , सौभाग्य , अमृत , काम , सत्य , भोग , एवं योग लक्ष्मी !
नव दुर्गा - शैल पुत्री , ब्रह्मचारिणी , चंद्रघंटा , कुष्मांडा , स्कंदमाता , कात्यायिनी , कालरात्रि , महागौरी एवं सिद्धिदात्री !
दस दिशाएं - पूर्व , पश्चिम , उत्तर , दक्षिण , इशान , नेत्रत्य , वायव्य आग्नेय ,आकाश एवं पाताल !
मुख्या ग्यारह अवतार - मत्स्य , कच्छप , बराह , नरसिंह , बामन , परशुराम , श्री राम , कृष्ण , बलराम , बुद्ध , एवं कल्कि !
बारह मास - चेत्र , वैशाख , ज्येष्ठ ,अषाड़ , श्रावन , भाद्रपद , अश्विन , कार्तिक , मार्गशीर्ष . पौष , माघ , फागुन !
बारह राशी - मेष , ब्रषभ , मिथुन , कर्क , सिंह , तुला , ब्रश्चिक , धनु , मकर , कुम्भ , एवं कन्या !
बारह ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ , मल्लिकर्जुना , महाकाल , ओमकालेश्वर , बैजनाथ , रामेश्वरम , विश्वनाथ , त्रियम्वाकेश्वर , केदारनाथ , घुष्नेश्वर , भीमाशंकर एवं नागेश्वर !
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा , द्वतीय , तृतीय , चतुर्थी , पंचमी , षष्ठी , सप्तमी , अष्टमी , नवमी , दशमी , एकादशी , द्वादशी , त्रयोदशी , चतुर्दशी , पूर्णिमा , अमावश्या !
स्मृतियाँ --मनु , विष्णु, अत्री , हारीत , याज्ञवल्क्य , उशना , अंगीरा , यम , आपस्तम्ब , सर्वत , कात्यायन , ब्रहस्पति , पराशर , व्यास , शांख्य , लिखित , दक्ष , शातातप , वशिष्ठ !

Tuesday, March 20, 2012

शिव सहस्त्र नामावली

http://docs.com/J8IW

श्री हनुमान चालीसा (भाग-1)

।। श्री हनुमते नम: ।।

श्री हनुमान चालीसा



हमारी भारतीय संस्कृति में राम और कृष्ण की भांति हनुमानजी भी संस्कृति के आधार स्तंभ तथा निष्ठा के केन्द्र हैं । प्रत्येक भारतीय के हृदयमें उनका प्रेम शासन अभी भी चल रहा है । हनुमानजी भक्तों में ज्येष्ठ , श्रेष्ठ तथा अपूर्व हैं । ‘‘नर अपनी करनी करे तो नर का नारायण हो जाए’’ । इस प्रकार हनुमानजी ने अपने अंदर देवत्व स्वयं निर्माण किया है । मानव भी उच्च ध्येय और आदर्श रखें तो देवत्व प्राप्त कर सकता है । हनुमानजी ने अपने कर्तव्य से देवत्व प्राप्त किया है । हनुमान जी की स्वतंत्र उपासना की जा सकती है और उनका स्वतंत्र मंदिर भी हो सकता है । जिस प्रकार भगवान शिव का शिवालय नंदी के बिना अधूरा रहता है । उसी प्रकार भगवान श्रीराम के देवालय की पूर्णता हनुमान के मूर्ति के बिना अधूरी रहती है । परन्तु हनुमानजी के मंदिर में रामजी की मूर्ति नहीं भी है तो भी चलेगा , ऐसी अलौकिकता हनुमानजी में है । जन-समुदाय में रामजी के समान ही आदरणीय स्थान हनुमानजी को प्राप्त हुआ है । हनुमानजी की रामजी के प्रति एकनिष्ठता और एकनिष्ठ भक्ति अपूर्व है ।

गोस्वामी तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम के दर्शन हनुमानजी की कृपासे ही प्राप्त हुए थे। इसीलिए गोस्वामीजी ने हनुमानजी को अपना गुरु माना है । तथा हनुमानजी के प्रति उनकी अपार श्रध्दा थी । तुलसीदासजी ने हनुमानजी पर कई रचनायें की है जैसे हनुमान चालीसा, बजरंगबाण, हनुमान बाहुक इत्यादि, उन्हीमें से हनुमान चालीसा एक है । ‘‘हनुमान चालीसा’’ उनके द्वारा रचित एक बहुत ही सिद्ध एवं लोकप्रिय ग्रंथ है ।

‘हनुमान चालीसा’ में उन्होने हनुमानजी के चरित्र तथा गुणों का वर्णन किया है । नियमित श्रध्दासे भक्ति-भावसे यदि हनुमान चालीसा का पाठ किया जाए तो मनुष्य मनवांछित फल पाता है तथा उसकी मनोकामना पूर्ण होती है ।

आज मानव जीवन जड, भोगवादी तथा भावशून्य बनता जा रहा है । जहाँ थोडी बहुत धार्मिकता एवं अध्यात्मिकता है, वहाँ दम्भ तथा दिखावे का प्रदर्शन ज्यादा हो रहा है । ऐसी विषम स्थिति में मनुष्यमात्र के लिए विषेश तया युवकों और बालकों के लिए भक्त श्रेष्ठ श्री महावीर हनुमानजी की उपासना अत्यंत आवश्यक है । क्योंकि उनके चरित्र से हमें ब्रम्हचर्य व्रतपालन, चरित्र रक्षण, बल, बुध्दि, विद्या इत्यादि गुणों का विकास करने की शिक्षा प्राप्त होती है । हनुमानजी अपने भक्तों को बुध्दि प्रदान कर के उनकी रक्षा करतें है ।

हनुमानजी में राम का नाम और राम का काम, भक्ति और सेवा का अद्भुत समन्वय दिखायी देता है । विचारोंकी उत्तमता के साथ भगवान में अनुरक्ति और सेवा व्यक्ति के पूर्ण विकास की द्योतक है, जो हनुमानजी के चरित्र में देखी जा सकती है । जीवनमें केवल राम-राम रटने से काम नहीं चलता। रामका नाम और राम का काम दोनों का जीवनमें समन्वय होना चाहिए, यह हनुमानजी के चरित्र से हमें सीखने को मिलता है । हनुमानजी जिस तरह हर पल रामजी का ध्यान तथा स्मरण करते थे उसी प्रकार रामजी का काम करने को हर पल तैयार रहते थे । ‘‘राम काज करिबे को आतुर’’ ऐसा ‘हनुमान चालीसा’ में उल्लेख है । उसी प्रकार हमें भी भगवान के कार्य के लिए हरपल कटिबद्ध होना चाहिए । तथा हनुमानजी की भांति हमारे मन को सुंदर, सुगंधित, हृदय को मृदुल तथा बुद्धि को सुन्दर बनाना होगा ।



माथेपर चंदन लगाकर आदमी अध्यात्मिक नहीं बनता और कोई गुरु बन कर प्रवचन देने से भी अध्यात्मिक नहीं बनता । अध्यात्मिकता जीवन का मानसिक और बौध्दिक विकास (Psychological and Intellectual development) है। दैवी गुणों से संपन्न हमारे उपास्य देवता के जीवनका अध्ययन कर उनके दिव्य गुणों को अपने जीवनमें लाने का प्रयत्न करना चाहिए ।

नैतिक मूल्योंपर अविचल निष्ठा रखनी पडती है । इस सृष्टिमें भगवान ने भेजा है यह मनुष्य को समझना चाहिए । इस सृष्टिमें हमारा आगमन होने पर शांति से जीवन व्यतीत करना, भक्तिपूर्ण अंत:करण से जीना और अंतमे सृष्टि से विदा लेना, यह अपना ध्येय होना चाहिए । मानव को प्रभु से मिली हुई दो शक्तियाँ है - मन और बुध्दि ! इन शक्तियों के विकास द्वारा मानव स्वयं को ऊपर ले जा सकता है । ‘मुझमें भी कंकड में से शंकर, नर से नारायण और जीव से शिव बनने की शक्ति है’ ऐसा विचार केवल मनुष्य को ही आ सकता है । अनंत जन्मों की साधना के बाद प्राप्त हुए इस चिंतामणि स्वरुप मानव देह को उज्वल बनाकर प्रभु के चरणों मे अर्पण करना ही श्रेष्ठ भक्ति है । इसलिए सृष्टि में कैसे रहें, किस तरह जीयें और प्रभु की तरफ कैसे जायें, यह हमारी संस्कृति हमें सिखाती है ।

जीवनमें ज्ञान-कर्म और भक्ति का समन्वय होना चाहिए । कर्मयोग का हाथ, ज्ञानी की आँख और भक्त का हृदय इन तीनों के समन्वय से त्रिवेणी संगम होता है । ऐसा त्रिवेणी संगम हमें हनुमानजी के चरित्र में दृष्टिगोचर होता है ।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘‘हनुमान चालीसा’’ में इन सभी गुणोंका चित्रण किया है, तथा गागरमें सागर रूपी अमृत उन्होने हनुमान चालीसा में भरा है । श्री हनुमानजी के चरित्र पर कुछ कहना हम जैसे साधारण मनुष्य के लिए असंभव है ।

हनुमानजी हमारे आदर्श हों तथा भगवान श्रीराम हमारे सहायक बने, इन दो महापुरूषोंके चरित्र को दृष्टि के सन्मुख रख कर अपने जीवन को सुयोग्य रीति से गढने के लिये भगवान हम सब की बुध्दि को वैसा बनायें तथा हमें योग्य शक्ति प्रदान करें यही प्रार्थना है ।



( शेष भाग-२ में )

आञ्जनेय अष्टोत्तरशत नामावलि

1.ॐ आञ्जनेयाय नमः .
2.ॐ महावीराय नमः .
3.ॐ हनूमते नमः .
4.ॐ मारुतात्मजाय नमः .
5.ॐ तत्वज्ञानप्रदाय नमः .
6.ॐ सीतादेविमुद्राप्रदायकाय नमः .
7.ॐ अशोकवनकाच्छेत्रे नमः .
8.ॐ सर्वमायाविभंजनाय नमः .
9.ॐ सर्वबन्धविमोक्त्रे नमः .
10.ॐ रक्षोविध्वंसकारकाय नमः .
11.ॐ परविद्या परिहाराय नमः .
12.ॐ पर शौर्य विनाशकाय नमः .
13.ॐ परमन्त्र निराकर्त्रे नमः .
14.ॐ परयन्त्र प्रभेदकाय नमः .
15.ॐ सर्वग्रह विनाशिने नमः .
16.ॐ भीमसेन सहायकृथे नमः .
17.ॐ सर्वदुखः हराय नमः .
18.ॐ सर्वलोकचारिणे नमः .
19.ॐ मनोजवाय नमः .
20.ॐ पारिजात द्रुमूलस्थाय नमः .
21.ॐ सर्व मन्त्र स्वरूपाय नमः .
22.ॐ सर्व तन्त्र स्वरूपिणे नमः .
23.ॐ सर्वयन्त्रात्मकाय नमः .
24.ॐ कपीश्वराय नमः .
25.ॐ महाकायाय नमः .
26.ॐ सर्वरोगहराय नमः .
27.ॐ प्रभवे नमः .
28.ॐ बल सिद्धिकराय नमः .
29.ॐ सर्वविद्या सम्पत्तिप्रदायकाय नमः .
30.ॐ कपिसेनानायकाय नमः .
31.ॐ भविष्यथ्चतुराननाय नमः .
32.ॐ कुमार ब्रह्मचारिणे नमः .
33.ॐ रत्नकुन्डलाय नमः .
34.ॐ दीप्तिमते नमः .
35.ॐ चन्चलद्वालसन्नद्धाय नमः .
36.ॐ लम्बमानशिखोज्वलाय नमः .
37.ॐ गन्धर्व विद्याय नमः .
38.ॐ तत्वञाय नमः .
39.ॐ महाबल पराक्रमाय नमः .
40.ॐ काराग्रह विमोक्त्रे नमः .
41.ॐ शृन्खला बन्धमोचकाय नमः .
42.ॐ सागरोत्तारकाय नमः .
43.ॐ प्राज्ञाय नमः .
44.ॐ रामदूताय नमः .
45.ॐ प्रतापवते नमः .
46.ॐ वानराय नमः .
47.ॐ केसरीसुताय नमः .
48.ॐ सीताशोक निवारकाय नमः .
49.ॐ अन्जनागर्भ संभूताय नमः .
50.ॐ बालार्कसद्रशाननाय नमः .
51.ॐ विभीषण प्रियकराय नमः .
52.ॐ दशग्रीव कुलान्तकाय नमः .
53.ॐ लक्ष्मणप्राणदात्रे नमः .
54.ॐ वज्र कायाय नमः .
55.ॐ महाद्युथये नमः .
56.ॐ चिरंजीविने नमः .
57.ॐ राम भक्ताय नमः .
58.ॐ दैत्य कार्य विघातकाय नमः .
59.ॐ अक्षहन्त्रे नमः .
60.ॐ काञ्चनाभाय नमः .
61.ॐ पञ्चवक्त्राय नमः .
62.ॐ महा तपसे नमः .
63.ॐ लन्किनी भञ्जनाय नमः .
64.ॐ श्रीमते नमः .
65.ॐ सिंहिका प्राण भन्जनाय नमः .
66.ॐ गन्धमादन शैलस्थाय नमः .
67.ॐ लंकापुर विदायकाय नमः .
68.ॐ सुग्रीव सचिवाय नमः .
69.ॐ धीराय नमः .
70.ॐ शूराय नमः .
71.ॐ दैत्यकुलान्तकाय नमः .
72.ॐ सुवार्चलार्चिताय नमः .
73.ॐ तेजसे नमः .
74.ॐ रामचूडामणिप्रदायकाय नमः .
75.ॐ कामरूपिणे नमः .
76.ॐ पिन्गाळाक्षाय नमः .
77.ॐ वार्धि मैनाक पूजिताय नमः .
78.ॐ लोकपूज्याय नमः .
79.ॐ विजितेन्द्रियाय नमः .
80.ॐ रामसुग्रीव सन्धात्रे नमः .
81.ॐ महिरावण मर्धनाय नमः .
82.ॐ स्फटिकाभाय नमः .
83.ॐ वागधीशाय नमः .
84.ॐ नवव्याकृतपण्डिताय नमः .
85.ॐ चतुर्बाहवे नमः .
86.ॐ दीनबन्धुराय नमः .
87.ॐ मायात्मने नमः .
88.ॐ भक्तवत्सलाय नमः .
89.ॐ संजीवननगायार्था नमः .
90.ॐ सुचये नमः .
91.ॐ वाग्मिने नमः .
92.ॐ दृढव्रताय नमः .
93.ॐ कालनेमि प्रमथनाय नमः .
94.ॐ हरिमर्कट मर्कटाय नमः .
95.ॐ दान्ताय नमः .
96.ॐ शान्ताय नमः .
97.ॐ प्रसन्नात्मने नमः .
98.ॐ शतकन्टमुदापहर्त्रे नमः .
99.ॐ योगिने नमः .
100.ॐ रामकथा लोलाय नमः .
101.ॐ सीतान्वेशण पठिताय नमः .
102.ॐ वज्रद्रनुष्टाय नमः .
103.ॐ वज्रनखाय नमः .
104.ॐ रुद्र वीर्य समुद्भवाय नमः .
105.ॐ जाम्बवत्प्रीतिवर्धनाय नमः
106.ॐ पार्थ ध्वजाग्रसंवासिने नमः .
107.ॐ शरपंजरभेधकाय नमः .
108.ॐ दशबाहवे नमः .

इति आञ्जनेय अष्टोत्तरशत नामावलि सम्पूर्णं ||

Friday, March 16, 2012

श्रीललितापञ्चरत्नं...


श्रीललितापञ्चरत्नं

प्रातः स्मरामि ललितावदनारविन्दं बिम्बाधरं पृथुलमौक्तिकशोभिनासम् । आकर्णदीर्घनयनं मणिकुण्डलाढ्यं मंदस्मितं मृगमदोज्ज्वलफालदेशम् ।। 1 ।।
प्रातर्भजामि ललिताभुजकल्पवल्लीँ रक्तांगुलीयलसदंगुलिपल्लवाढ्याम

् ।
माणिक्यहेमवलयाङ्गदशोभमानां पुण्ड्रेक्षुचापकुसुमेषुसृणीर्द

धानाम् ।। 2 ।।

प्रातर्नमामि ललिताचरणारविँदं भक्तेष्टदाननिरतं भवसिन्धुपोतम् ।
पद्मासनादिसुरनायकपूजनीयं पद्मांकुशध्वजसुदर्शनलाञ्छनाढ्य

म् ।। 3 ।।

प्रातः स्तुवे परशिवां ललितां भवानीं त्रय्यन्तवेद्यविभवां करुणानवद्याम् ।

विश्वस्य सृष्टिविलयस्थितिहेतुभूतां विद्येश्वरीं निगमवाङ्मनसातिदूराम् ।। 4 ।।

प्रातर्वदामि ललिते तव पुण्यनाम कामेश्वरीति कमलेति महेश्वरीति ।

श्री शांभवीति जगतां जननी परेति वाग्देवतेति वचसा त्रिपुरेश्वरीति ।। 5 ।।

यः श्लोकपञ्चकमिदं ललिताम्बिकायाः सौभाग्यदंसुललितं पठति प्रभाते ।

तस्मै ददाति ललिता झटिति प्रसन्ना विद्यां श्रियं विमलसौख्यमनन्तकीर्तिम् ।। 6 ।।
।। श्रीललितापञ्चरत्नं संपूर्णम् ।।

राम राज्य .में पर्यावरण ..

'श्रीरामचरितमानस' में तुलसीदास जी ने इस बात पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय-शोक दूर हो गए एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई। इसका प्रमुख कारण यह है कि रामराज्य में किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं था। इसीलिए कोई भी अल्पमृत्यु, रोग-पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे।

राम राज बैठे त्रैलोका।
हरषित भए गए सब सोका।।
बयस न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।
सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
राम राज नभगेस सुनु
सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत
दुख काहुहि नाहिं।।
(रा.च.मा. 7।20।7-8; 21।1, 5-6, 8; 21)

वाल्मीकि रामायण में श्रीभरत जी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, "राघव! आपके राज्य पर अभिषिक्त हुए एक मास से अधिक समय हो गया। तब से सभी लोग निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े प्राणियों के पास भी मृत्यु नहीं फटकती है। स्त्रियाँ बिना कष्ट के प्रसव करती हैं। सभी मनुष्यों के शरीर हृष्ट-पुष्ट दिखाई देते हैं। राजन! पुरवासियों में बड़ा हर्ष छा रहा है। मेघ अमृत के समान जल गिराते हुए समय पर वर्षा करते हैं। हवा ऐसी चलती है कि इसका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन नगर तथा जनपद के लोग इस पुरी में कहते हैं कि हमारे लिए चिरकाल तक ऐसे ही प्रभावशाली राजा रहें।"

पाप से पापी की हानि ही नहीं होती अपितु वातावरण भी दूषित होता है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रामराज्य में पाप का अस्तित्व नहीं है, इसलिए दु:ख लेशमात्र भी नहीं है। पर्यावरण की शुद्धि तथा उसके प्रबंधन के लिए रामराज्य में सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ की जाती रहीं। वृक्षारोपण, बाग-बगीचे, फल-फूलवाले पौधे तथा सुगंधित वाटिका लगाने में सब लोग रुचि लेते थे। नगर के भीतर तथा बाहर का दृश्य मनोहारी था -

सुमन बाटिका सबहिं लगाईं।
बिबिध भाँति करि जतन बनाईं।।
लता ललित बहु जाति सुहाई।
फूलहिं सदा बसंत कि नाईं।।
(रा.च.मा. 7।28।1-2)

बापीं तड़ाग अनूप कूद मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं।।
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।
रमानाथ जहं राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।
(रा.च.मा. 7।29।छ.29)

अर्थात सभी लोगों ने विविध प्रकार के फूलों की वाटिकाएँ अनेक प्रकार के यत्न करके लगा रखीं हैं। बहुत प्रकार की सुहावनी ललित बेलें सदा वसंत की भाँति फूला करती हैं। नगर की शोभा का जहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता, वहाँ बाहर चारों ओर का दृश्य भी अत्यंत रमणीय है। रामराज्य में बावलियाँ और कूप जल से भरे रहते थे, जलस्तर भी काफ़ी ऊपर था। तालाब तथा कुओं की सीढ़ियाँ भी सुंदर और सुविधाजनक थीं। जल निर्मल था। अवधपुरी में सूर्य-कुंड, विद्या-कुंड, सीता-कुंड, हनुमान-कुंड, वसिष्ठ-कुंड, चक्रतीर्थ आदि तालाब थे, जो प्रदुषण से पूर्णत: मुक्त थे। नगर के बाहर- अशोक, संतानक, मंदार, पारिजात, चंदन, चंपक, प्रमोद, आम्र, पनस, कदंब एवं ताल-वृक्षों से संपन्न अनेक वन थे।

'गीतावली' में भी सुंदर वनों-उपवनों के मनोहारी दृश्यों का वर्णन मिलता है -

बन उपवन नव किसलय,
कुसुमित नाना रंग।
बोलत मधुर मुखर खग
पिकबर, गुंजत भृंग।।
(गीतावली उत्तरकांड 21।3)

अर्थात अयोध्या के वन-उपवनों में नवीन पत्ते और कई रंग के पुष्प खिलते रहते थे, चहचहाते हुए पपीहा और सुंदर कोकिल सुमधुर बोली बोलते हैं और भौरें गुंजार करते रहते थे।

रामराज्य में जल अत्यंत निर्मल एवं शुद्ध रहता था, दोषयुक्त नहीं। स्थान-स्थान पर पृथक-पृथक घाट बँधे हुए थे। कीचड़ कहीं भी नहीं होता था। पशुओं के उपयोग हेतु घाट नगर से दूर बने हुए थे और पानी भरने के घाट अलग थे, जहाँ कोई भी व्यक्ति स्नान नहीं करता था। नहाने के लिए राजघाट अलग से थे, जहाँ चारों वर्णों के लोग स्नान करते थे -

उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बांधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।
दूरि फराक रुचिर सो घाटा।
जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना।
तहां न पुरुष करहिं अस्नाना।।
(रा.च.मा. 7।28; 29।1-2)

रामराज्य में शीतल, मंद तथा सुगंधित वायु सदैव बहती रहती थी -

गुंजत मधुकर मुखर मनोहर।
मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर।।
(रा.च.मा. 7।28।3)

पक्षी-प्रेम रामराज्य में अद्वितीय था। पक्षी के पैदा होते ही उसका पालन-पोषण किया जाता था। बचपन से ही पालन करने से दोनों ओर प्रेम रहता था। बड़े होने पर पक्षी उड़ते तो थे किंतु कहीं जाते नहीं थे। पक्षियों को रामराज्य में पढ़ाया और सुसंस्कारित किया जाता था।

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक।
कहहु राम रघुपति जनपालक।।
(रा.च.मा. 7।28।7)

रामराज्य की बाजार-व्यवस्था भी अतुलनीय थी। राजद्वार, गली, चौराहे और बाजार स्वच्छ, आकर्षक तथा दीप्तिमान रहते थे। विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करनेवाले कुबेर के समान संपन्न थे। रामराज्य में वस्तुओं का मोलभाव नहीं होता था। सभी दुकानदार सत्यवादी एवं ईमानदार थे -

बाज़ार स्र्चिर न बनइ बरनत
बस्तु बिनु गथ पाइए।
(रा.च.मा. 7।28)

रामराज्य में तो यहाँ तक ध्यान रखा जाता था कि जो पौधे चरित्र-निर्माण में सहायक हैं, उनका रोपण अधिक किया जाना चाहिए। पर्यावरण-विशेषज्ञों तथा आयुर्वेदशास्त्र की मान्यता है कि तुलसी का पौधा जहाँ सभी प्रकार से स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है वहाँ चरित्र-निर्माण में भी सहायक है। यही कारण है कि रामराज्य में ऋषि-मुनि नदियों के तथा तालाबों के किनारे तुलसी के पौधे लगाते थे -

तीर तीर तुलसिका सुहाई।
बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।
(रा.च.मा. 7।29।6)

रामराज्य में सब लोग सत्साहित्य का अनुशीलन करते थे। चरित्रवान और संस्कारवान थे। सबके घरों में सुखद वातावरण था और सभी लोग शासन से संतुष्ट थे। जहाँ राजा अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत करता हो वहाँ का समाज निश्चित ही सदा प्रसन्न एवं समृद्ध रहता है। उन अवधपुरवासियों की सुख-संपदा का वर्णन हज़ार शेष जी भी नहीं कर सकते, जिनके राजा श्रीरामचंद्र जी हैं -

सब के गृह गृह होहिं पुराना।
रामचरित पावन बिधि नाना।
नर अस्र् नारि राम गुन गानहिं।
करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहं नृप राम बिराज।।
(रा.च.मा. 7।26।7-8; 26)

इस प्रकार रामराज्य में किसी भी प्रकार का दूषित परिवेश नहीं था। राजा तथा प्रजा में परस्पर अटूट स्नेह, सम्मान और सामंजस्य था। मनुष्यों में जहाँ वैरभाव नहीं रहता वहाँ पशु-पक्षी भी अपने सहज वैरभाव को त्याग देते हैं। हाथी और सिंह एक साथ रहते हैं - परस्पर प्रेम रखते हैं। वन में पक्षियों के अनेक झुंड निर्भय होकर विचरण करते हैं। उन्हें शिकारी का भय नहीं रहता। गौएँ कामधेनु की तरह मनचाहा दूध देती हैं।

रामराज्य में पृथ्वी सदा खेती से हरी-भरी रहती थी। चंद्रमा उतनी ही शीतलता और सूर्य उतना ही ताप देते थे जितनी ज़रूरत होती थी। पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दी थीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल, स्वादिष्ट और सुख देनेवाला जल बहाती थीं। जब जितनी ज़रूरत होती थी, मेघ उतना ही जल बरसाते थे -

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन।
रहहिं एक संग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई।
सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा।
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।
लता बिटप मागें मधु चवहिं।
मनभावतो धेनु पय स्रवहीं।।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज।।
(रा.च.मा. 7।23।१1-3, 5; 23)

रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने सूत्ररूप में यह संकेत दिया है कि पर्यावरण-संतुलन तथा पर्यावरण-प्रबंधन में शासक और प्रजा का संयुक्त उत्तरदायित्व होता है। दोनों के परस्पर सहयोग, स्नेह, सम्मान, सौहार्द तथा सामंजस्य से ही समाज एवं राष्ट्र को दोषमुक्त किया जा सकता है। पर्यावरण-चेतना का शासक और प्रजा दोनों में पर्याप्त विकास होना चाहिए। राज्य की व्यवस्था में प्रजा का पूर्ण सहयोग हो और प्रजा की सुख-सुविधा का शासक पूरा-पूरा ध्यान रखे - यही रामराज्य का संदेश है।

Thursday, March 15, 2012

वैष्णो देवी चालीसा


वैष्णो देवी चालीसा



मात् स्वरूपा सर्व गुणी वैष्णो कष्ट निदान !!

शक्ति भक्ति दो हमको , दिव्य शक्ति की ख़ान !!

अभय दायिनी भय मोचनी, करुणा की अवतार !!

संकट त्रस्त भक्तों का,अब कर भी दो उद्धार !!

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

गुफा निवासिनी मंगला माता ! दया तुम्हारी जग विख्याता !!

अल्प बुद्धि हम हैं अज्ञानी ! ज्ञान उजियारा दो महारानी !!

दुख सागर से हमें निकालो ! भ्रम के भूतों से हमें बचा लो !!

पूत के सब अवरोध हटाना ! अपनी छाया में हमें छुपाना !!४

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

भक्त वत्सला भव भय हरिणी ! आदि अनंत मातु जग जननी !!

दिव्य ज्योति जहाँ होये उजागर ! वहाँ उदय हो धर्म दिवाकर !!

पाप नाशिनी पुण्य की गंगा ! तेरी सुधा से तरें कुसंगा !!

अमृतमयी तेरी मधुकर वाणी ! हर लेती अभिमान भवानी !!८

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

सुखद सामग्री दो भक्तन को ! करो फल दायक मेरी चिंतन को !!

दुख में न विचलित होने देना ! धीरज धर्म न खोने देना !!

उत्साह वर्धक कला तुम्हारी ! मार्ग दर्शक बनो तुम हमारी !!

घेरे कभी जो विषम अवस्था ! तू ही सुझाना माँ कोई रस्ता !!१२

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

माया द्वेष के विषधर काले ! हैं सदभाव को डसनेवाले !!

उनपर अंकुश सदा लगाना ! दुर्गुण को सद्गुण से मिटाना !!

परम तृप्ति का जल दे देना ! दुर्बल काया को बल देना !!

आत्मिक शांति के हम अभिलाषी ! हमें बना दे दृण विश्वासी !!१६

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

बसी हो तुम श्रीधर के मन में ! ज्योत तुम्हारी है कन कन में !!

हम अभिषेक माँ करें तुम्हारा ! कर दो माँ उद्धार हमारा !!

विकट लंगूर हैं प्रहरी तेरे ! भजे तुम्हे माँ सांझ सवेरे !!

विश्व विजयी है तेरी शक्ति ! भव निधि तारक पावन भक्ति !!२०

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

विघ्न हरण जग पालन कारी ! सिंह वाहिनी मैया प्यारी !!

कृपा दृष्टि हम पर कर देना ! सच्चे सुख की वृष्टि करना !!

यश गौरव सम्मान बढ़ाना ! प्रतिभा का सूरज चमकाना !!

स्वच्छ सार्थक श्रद्धा देना ! शरण में अपनी तुम ले लेना !!२४

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

शारदा, लक्ष्मी और महाकाली ! तीनो का संगम बलशाली !!

रखना सिरों पे हाथ हमारे ! सदा ही रहियो साथ हमारे !!

संकट विपदा भव भय हरना ! दुर्गम काज सुगम माँ करना !!

हे दिव्य ज्योति सर्व व्यापक ! तेरी दया के हम हैं याचक !!२८

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

बुद्धि विवेक विद्या दायिनी ! शक्ति तुम्हारी है रसायनी !!

रोग शोक संताप को हरती ! दुर्लभ वस्तु सुलभ है करती !!

जाप तेरा जब रंग दिखाता ! भावसागर जल सूख है जाता !!

रत्नो से घर भर दो मैया ! विष को अमृत कर दो मैया !!३२

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

भक्ति सुमन जो करते अर्पण ! धो देती उनके मन दर्पण !!

हे त्रिभुवन की सिरजन हारी ! सदा ही रखियो लाज हमारी !!

सुखमय जीवन का वर देना ! सकल मनोरथ सिद्ध कर देना !!

हिम पर्वत पर रहनेवाली ! करना आश्रित की रखवाली !!३६

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

दैत्यों की संघारक माता ! सबकी कष्ट निवारक माता !!

अखिल विश्व है तेरे सहारे ! रोम रोम तेरा नाम उच्चारे !!

स्वामिनी हो हम सब पूतन की ! त्रैलोकी के आवागमन की !!

हाथ दया का सिर पर रखना ! हे मंगला, अमंगल हरना !!४०

!! जय जय अंबे जय जगदम्बे !!

वैष्णो मैया रक्षा करना हम भक्तो की सर्वदा |

दूर भगाना जब भी आये हम पर कोई आपदा ||

हर हर हर महादेव।

हर हर हर महादेव।



सत्य, सनातन, सुन्दर शिव! सबके स्वामी।

अविकारी, अविनाशी, अज, अन्तर्यामी॥

हर हर हर महादेव।



आदि, अनन्त, अनामय, अकल कलाधारी।

अमल, अरूप, अगोचर, अविचल, अघहारी॥

हर हर हर महादेव।



ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, तुम त्रिमूर्तिधारी।

कर्ता, भर्ता, धर्ता तुम ही संहारी॥

हर हर हर महादेव।



रक्षक, भक्षक, प्रेरक, प्रिय औघरदानी।

साक्षी, परम अकर्ता, कर्ता, अभिमानी॥

हर हर हर महादेव।



मणिमय भवन निवासी, अति भोगी, रागी।

सदा श्मशान विहारी, योगी वैरागी॥

हर हर हर महादेव।



छाल कपाल, गरल गल, मुण्डमाल, व्याली।

चिताभस्मतन, त्रिनयन, अयनमहाकाली॥

हर हर हर महादेव।



प्रेत पिशाच सुसेवित, पीत जटाधारी।

विवसन विकट रूपधर रुद्र प्रलयकारी॥

हर हर हर महादेव।



शुभ्र-सौम्य, सुरसरिधर, शशिधर, सुखकारी।

अतिकमनीय, शान्तिकर, शिवमुनि मनहारी॥

हर हर हर महादेव।.



निर्गुण, सगुण, निर†जन, जगमय, नित्य प्रभो।

कालरूप केवल हर! कालातीत विभो॥

हर हर हर महादेव।



सत्, चित्, आनन्द, रसमय, करुणामय धाता।

प्रेम सुधा निधि, प्रियतम, अखिल विश्व त्राता।

हर हर हर महादेव।



हम अतिदीन, दयामय! चरण शरण दीजै।

सब विधि निर्मल मति कर अपना कर लीजै।

हर हर हर महादेव।

हर हर हर महादेव।.

Wednesday, March 14, 2012

शीतलाष्टकं .


शीतला अष्टक

वन्देऽहं शीतलां-देवीं, रासभस्थां दिगम्बराम्।

मार्जनी-कलशोपेतां, शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम्।।



वन्देऽहं शीतलां-देवीं, सर्व-रोग-भयापहाम्।
यामासाद्य निवर्तन्ते, विस्फोटक-भयंमहत्।।



शीतले शीतले चेति, यो ब्रूयाद् दाह-पीडितः।
विस्फोटक-भयं घोरं, क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति।।



यस्त्वामुदक-मध्ये तु, ध्यात्वा पूजयते नरः।
विस्फोटक-भयं घोरं, गृहे तस्य न जायते।।



शीतले! ज्वर-दग्धस्य पूति-गन्ध-युतस्य च।
प्रणष्ट-चक्षुषां पुंसां , त्वामाहुः जीवनौषधम्।।



शीतले! तनुजान् रोगान्, नृणां हरसि दुस्त्यजान्।
विस्फोटक-विदीर्णानां, त्वमेकाऽमृत-वर्षिणी।।



गल-गण्ड-ग्रहा-रोगा, ये चान्ये दारुणा नृणाम्।
त्वदनुध्यान-मात्रेण, शीतले! यान्ति सङ्क्षयम्।।



न मन्त्रो नौषधं तस्य, पाप-रोगस्य विद्यते।
त्वामेकां शीतले! धात्री, नान्यां पश्यामि देवताम्।।


।।फल-श्रुति।।



मृणाल-तन्तु-सदृशीं, नाभि-हृन्मध्य-संस्थिताम्।
यस्त्वां चिन्तयते देवि! तस्य मृत्युर्न जायते।।



अष्टकं शीतलादेव्या यो नरः प्रपठेत्सदा।
विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते।।



श्रोतव्यं पठितव्यं च श्रद्धाभाक्तिसमन्वितैः।
उपसर्गविनाशाय परं स्वस्त्ययनं महत्।।



शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता।
शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः।।



रासभो गर्दभश्चैव खरो वैशाखनन्दनः।
शीतलावाहनश्चैव दूर्वाकन्दनिकृन्तनः।।



एतानि खरनामानि शीतलाग्रे तु यः पठेत्।
तस्य गेहे शिशूनां च शीतलारुङ् न जायते।।



शीतलाष्टकमेवेदं न देयं यस्यकस्यचित्।
दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धाभक्तियुताय वै।।


।।इति श्रीस्कन्दपुराणे शीतलाष्टकं सम्पूर्णम् ।।

Tuesday, March 13, 2012

संकटमोचन संकट हर लो

जय महावीर मारूतनंदन ,
आरती नमन स्‍वीकार करो।
संकटमोचन संकट हर लो ,
बाधाओं का प्रतिकार करो।।

सागर को पार किया तुमने,
अरिपुर को छार किया तुमने ,
सबपर उपकार किया तुमने ,
इस जन का भी उद्धार करो।।
संकटमोचन संकट हर लो ,
बाधाओं का प्रतिकार करो।।

जय कपिवर द्रोणाचल धारी ,
रघुनायक तक हैं आभारी ,
शरणागत के दुःख भयकारी ,
सुखमय सबका संसार करो।।
संकटमोचन संकट हर लो ,
बाधाओं का प्रतिकार करो।।

बलवान निरोग रहे काया,
व्‍यापे न कभी कलि की माया,
मन हो प्रभुपद में लपटाया,
ऐसा वरदान उदार करो।। 
संकटमोचन संकट हर लो ,
बाधाओं का प्रतिकार करो।।

विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्

विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्

श्रीसुदर्शनसंहिता में भक्त प्रवर विभीषण महात्मा गरुड़ को श्रीमारुति की महिमा सुनाते हुए कहते हैं कि सर्व प्रकार के भय, बाधा, संताप तथा दुष्ट गृहजन्य समस्त संकटों का उन्मूलन करने वाला श्री हनुमान जी का यह स्तोत्र है। कल्याणकांक्षी मनुष्य यदि नित्य प्रति इसका पाठ करता है तो वह सर्वबाधाजन्य संकटों से मुक्त हो मारुति की कृपा से सुख, शान्ति एवं समृद्धि को प्राप्त करता है। स्तोत्र इस प्रकार है –



नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे।
नम: श्रीरामभक्ताय श्यामास्याय च ते नम:।। 1।।



नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे।
लंकाविदाहनार्थय हेलासागरतारिणे।। 2।।



सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च।
रावणान्तकुलच्छेदकारिणे ते नमो नम:।। 3।।


मेघनादमखध्वंसकारिणे ते नमो नम:।

अशोकवनविध्वंसकारिणे भयहारिणे।। 4।।



वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने।
वनपालशिरश्छेदलंकाप्रासादभज्जिने।। 5।।



ज्वल्तकनकवर्णाय दीर्घलाङ्गूलधारिणे।
सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते नम:।। 6।।



अक्षस्य वधकत्र्रे च बह्मपाशनिवारिणे।
लक्ष्मणांगमहाशक्तिघातक्षतविनाशिने।। 7।।



रक्षोघ्नाय निपुघ्नाय भूतघ्नाय च ते नम:।
ऋक्षवानरवीरौघप्राणदाय नमो नम:।। 8।।



परसैन्यबलध्नाय शस्त्रास्त्रघ्नाय ते मन:।
विषध्नाय द्विषघ्नाय ज्वरघ्नाय च ते नम:।। 9।।



महाभयरिपुघ्नाय भक्तत्राणैककारिणे।
परप्रेरितमन्त्राणां यन्त्राणां स्तम्भकारिणी।। 10।।



पय:पाषाणतरणकारणाय नमो नम:।
बालार्कमण्डलग्रासकारिणे भवतारिणे।। 11।।



नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च।
रिपुमायाविनाशाय रामाज्ञालोकरक्षिणे।। 12।।



प्रतिग्रामस्थितायाथ रक्षोभूतवधार्थिने।
करालशैलशस्त्राय दु्रमशस्त्राय ते नम:।। 13।।



बालैकब्रह्मचर्याय रुद्रमूर्तिधराय च।
विहंगमाय सर्वाय वज्रदेहाय ते नम:।। 14।।



कौपीनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च।
दक्षिणाशाभास्कराय शतचन्द्रोदयात्मने।। 15।।



कृत्याक्षतव्याथाघ्नाय सर्वक्लेशहराय च।
स्वाम्याज्ञापार्थसंग्रामसंख्ये संजयधारिणे।।16।।



भक्तान्तदिव्यवादेषु संग्रामे जयदायिने।
किल्किलाबुबुकोच्चारघोरशब्दकराय च।।17।।



सर्पाग्निव्याधिसंत्तम्भकारिणी वनचारिणे।
सदा वनफलाहारसंतृप्ताय विशेषत:।।18।।



महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नम:।
वादे विवादे संग्रामे भये घोरे महावने।।19।।



सिंहव्याघ्रादिचौरेभ्य: स्तोत्रपाठाद् भयं न हिं
दिव्ये भूतभये व्याधौ विषे स्थावरजंगमे।।20।।



राजशस्त्रभये चोग्रे तथा ग्रहभयेषु च।
जले सर्वे महावृष्टौ दुर्भिक्षे प्राणसम्प्लवे।।21।।



पठेत् स्तोत्रं प्रमुच्यते भयेभ्य: सर्वतो नर:।
तस्य क्वापि भयं नास्ति हनुमत्स्तवपाठत:।।22।।



सर्वदा वै त्रिकालं च पठनीयमिमं स्तवम्।
सर्वान् कामानवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।। 23।।



विभषणकृतं स्तोत्रं ताक्ष्र्येण समुदीरितम्।
ये पठिष्यन्ति भक्त्या वै सिद्धयस्तत्करे स्थिता:।। 24।।


इति श्रीसुदर्शनसंहितायां विभीषणगरुडसंवादे विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रं सम्पूर्णम्।

Sunday, March 11, 2012

भद्रा

भद्रा की उत्पत्रि के विषय में ऐसा माना जाता है कि दैत्यों को मारने के लिए भद्रा गर्दभ (गधा) के मुख और लंबे पुछँ और तीन पैर युक्त उत्पन्न हुई है। शुभ कार्यों में भद्रा त्यागना ही उचित माना जाता है |
भद्रा पंचांग के पांच अंगों में से एक करण पर आधारित है |यह एक अशुभ योग है। भद्रा (विष्टि करण ) में अग्नि लगाना, किसी को दंड देना इत्यादि दुष्ट कर्म तो किये जा सकते हैं पर मांगलिक कर्म करना वर्जित है |
पौराणिक कथा के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य नारायण और पत्नी छाया की कन्या है | भद्रा का स्वरुप काले वर्ण, लंबे केश तथा बड़े दांतं वाली तथा भयंकर रूप वाली कन्या है।
जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न -बाधा पहुंचाने लगी और मंगल-कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सम्पूर्ण जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके दुष्ट स्वभाव को देख कर सूर्य देव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस दुष्टा कुरूपा कन्या का विवाह कैसे होगा |सभी ने सूर्य देव के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया
सूर्य देव ने तब ब्रह्मा जी से उचित परामर्श माँगा |ब्रह्मा जी तब विष्टि से कहा कि -'भद्रे, बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो तथा जो व्यक्ति तुम्हारे समय में गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य करे, तो तुम उन्ही में विघ्न डालो , जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम बिगाड़ देना। इस प्रकार विष्टि को उपदेश देकर बृह्मा जी अपने लोक चले गए ।
बृह्मा जी की सुनकर विष्टि अपने समय में ही देव-दानव-मानव समस्त प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी। इस प्रकार भद्रा की उत्पत्ति हुई।
भद्रा का दूसरा नाम विष्टि करण है । कृष्णपक्ष की तृतीया , दशमी और शुक्ल पक्ष की चर्तुथी, एकादशी के उत्तरार्ध में एवं कृष्णपक्ष की सप्तमी चतुर्दसी , शुक्लपक्ष की अष्टमी पूर्णमाशी के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है।
जिस भद्रा के समय चन्द्रमा मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक राशि में स्थित तो भद्रा निवास स्वर्ग में होता है ।यदि चन्द्रमा कन्या, तुला, धनु, मकर राशि में हो तो भद्रा पाताल में निवास करती है और कर्क , सिंह, कुंभ, मीन राशी का चन्द्रमा हो तो भद्रा का भुलोक पर निवास रहता है। शास्त्रों के अनुसार भुलोक की भद्रा सबसे अधिक अशुभ मानी जाती है। तिथि के पूर्वार्ध की दिन की भद्रा कहलाती है। तिथि के उत्तरार्ध की भद्रा को रात की भद्रा कहते हैं | यदि दिन की भद्रा रात के समय और रात्री की भद्रा दिन के समय आ जाय तो भद्रा को शुभ मानते हैं |
यदि भद्रा के समय कोई अति आवश्यक कार्य करना हो तो भद्रा की प्रारम्भ की ५ घटी जो भद्रा का मुख होती है , अवश्य त्याग देना चाहिए |

भद्रा पांच घटी मुख में , दो घटी कंठ में , ग्यारह घटी ह्रदय में और चार घटी पुच्छ में स्थित रहती है।
शास्त्रोक्त मत
• जब भद्रा मुख में रहती है तो कार्य का नाश होता है ।
• जब भद्रा कण्ठ में रहती है तो धन का नाश होता है ।
• जब भद्रा हृदय में रहती है तो प्राण का नाश होता है ।
• जब भद्रा पुच्छ में होती हं, तो विजय की प्राप्त एवं कार्य सिद्ध होते है।
भद्रा के दुष्प्रभावों से बचने के लिए व्रत इत्यादि बताया गया है | पर एक आसान उपाय भद्रा के १२ नामों का जप करना है |
धन्या दधमुखी भद्रा महामारी खरानना।
कालारात्रिर्महारुद्रा विष्टिस्च कुल पुत्रिका |
भैरवी च महाकाली असुराणां क्षयन्करी |
द्वादशैव तु नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्॥
न च व्याधिर्भवैत तस्य रोगी रोगात्प्रमुच्यते |
गृह्यः सर्वेनुकूला: स्यर्नु च विघ्रादि जायते |

Sunday, March 4, 2012

द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रम्.


द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रम्
सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये।।1।।

श्रीशैलशृंगे विबुधातिसंगे तुलाद्रितुंगेऽपि मुदा वसन्तम्।
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम्।।2।।

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्।।3।।

कावेरिकानर्मदयो: पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे।।4।।

पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि।।5।।

याम्ये सदंगे नगरेतिऽरम्ये विभूषितांगम् विविधैश्च भोगै:।
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये।।6।।

महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै: केदारमीशं शिवमेकमीडे।।7।।

सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात् पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्रयम्बकमीशमीडे।।8।।

सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यै:।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि।।9।।

यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि।।10।।

सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये।।11।।

लापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरं स्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये॥ 12॥

ज्योतिर्मयद्वादशलिंगकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च॥ 13॥