Monday, July 30, 2012

शुभ कार्यों को कल पर मत टालो!!!


राजा दशरथ जी ने जब एक बार शीशा देखा तो उन्हें कान के पास के बाल सफ़ेद दिखे,
सोचने लगे अब सत्ता राम को सौप कर अपने जनम का लाभ क्यों न उठाया जाए.

ऐसा ह्रदय में विचार कर राजा दशरथ गुरु वशिष्ठ जी के पास गए.

राजा ने कहा - हे मुनिराज !
मेरा निवेदन सुनिये!
श्री रामचन्द्र सब प्रकार से योग्य हो गए है.

उन्हें युवराज कीजिये.

मुनि बोले - हे राजन !
अब देर न कीजिये, शीघ्र सब समान सजाये,
शुभ दिन और सुन्दर मंगल तभी है जब श्रीरामचन्द्र जी युवराज हो जाए उनके अभिषेक के लिए सभी दिन शुभ और मंगलमय है.

मानो मुनि कहना चाह रहे हो, कि वे तो जगदीश्वर है उन्हें किसी मुहूर्त कि आवश्यकता नहीं है आप तो अभी इसी समय ही कर दीजिये.

दशरथ जी ने कहा - गुरुदेव !
कल कर लेते है.

मुनि हँसने लगे. क्यों हँसे? क्योकि गुरुदेव जानते है कल कभी नहीं आता.

राजन चले गए,

कहने का तात्पर्य शुभ कार्य को कल पर नहीं टालना चाहिये क्योकि कल कभी नहीं आता.
क्योकि कल क्या हो जाए,
कोई नहीं कह सकता हमे पुण्य करना है तो हम उसे कल पर न टाले,
मन चंचल है इसका कोई भरोसा नहीं है,
कब बदल जाए इसलिए आज मन कर रहा है दान कर दू,पुण्य कर दूँ ,किसी कि मदद का दूँ तो तुरंत का देना
चाहिये,
कल पर टाला तो मन कल तक बदल जायेगा फिर शायद हम कुछ न करे.


एक रात में ही सब बदल गया राज्य अभिषेक होना था वनवास हो गया.


इसी तरह बुरा काम मन में उठे तो उसे कल पर टाल देना चाहिये,
क्योकि बुरे काम को कल पर टालने से शायद कल तक वह बुरा संकल्प ही न रहे,
वह अच्छे में बदल जाए...

Thursday, July 26, 2012


कस न दीनपर द्रवहु उमाबर । दारुन बिपति हरन करुनाकर ॥१॥
बेद - पुरान कहत उदार हर । हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर ॥२॥
कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज । होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज ॥३॥
जो गति अगम महामुनि गावहिं । तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ॥४॥
देहु काम - रिपु ! राम - चरन - रति ! तुलसिदास प्रभु ! हरहु भेद - मति ॥५॥
भावार्थः-- हे उमा - रमण ! आप इस दीनपर कैसे कृपा नहीं करते ? हे करुणाकी खानि ! आप घोर विपत्तियोंके हरनेवाले हैं ॥१॥
वेद - पुराण कहते हैं कि शिवजी बड़े उदार हैं, फिर मेरे लिये आप इतने अधिक कृपण कैसे हो गये ? ॥२॥
गुणनिधि नामक ब्राह्मणने आपकी कौन - सी भक्ति की थी, जिसपर प्रसन्न होकर आपने उसे अपना कल्याणपद दे दिया ॥३॥
जिस परम गतिको महान् मुनिगण भी दुर्लभ बतलाते हैं, वह आपकी काशीपुरीमें कीट - पतंगोंको भी मिल जाती हैं ॥४॥
हे कामारि शिव ! हे स्वामी !! तुलसीदासकी भेद - बुद्धि हरणकर उसे श्रीरामके चरणोंकी भक्ति दीजिये ॥५॥

Tuesday, July 17, 2012

शिवापराधक्षमापण स्तोत्रम्

शिवापराधक्षमापण  स्तोत्रम्
आदौ कर्मप्रसङ्गात्कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां
विण्मूत्रामेध्यमध्ये कथयति नितरां जाठरो जातवेदाः ।
यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥१॥
बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा
नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिताः जन्तवो मां तुदन्ति ।
नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवशः शङ्करं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥२॥
प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पञ्चभिर्मर्मसन्धौ
दष्टो नष्टोऽविवेकः सुतधनयुवतिस्वादुसौख्ये निषण्णः ।
शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥३॥
वार्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापैः
पापै रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपुः प्रौढहीनं च दीनम् ।
मिथ्यामोहाभिलाषैर्भ्रमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥४॥
नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं
श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गेऽसुसारे ।
ज्ञातो धर्मो विचारैः श्रवणमननयोः किं निदिध्यासितव्यं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥५॥
स्नात्वा प्रत्यूषकाले स्नपनविधिविधौ नाहृतं गाङ्गतोयं
पूजार्थं वा कदाचिद्बहुतरगहनात्खण्डबिल्वीदलानि ।
नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धधूपैः त्वदर्थं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥६॥
दुग्धैर्मध्वाज्युतैर्दधिसितसहितैः स्नापितं नैव लिङ्गं
नो लिप्तं चन्दनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः ।
धूपैः कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतैर्नैव भक्ष्योपहारैः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥७॥
ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो
हव्यं ते लक्षसङ्ख्यैर्हुतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रैः ।
नो तप्तं गाङ्गातीरे व्रतजननियमैः रुद्रजाप्यैर्न वेदैः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥८॥
स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुम्भके (कुण्डले)सूक्ष्ममार्गे
शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपेऽपराख्ये ।
लिङ्गज्ञे ब्रह्मवाक्ये सकलतनुगतं शङ्करं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥९॥
नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो
नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विदितभवगुणो नैव दृष्टः कदाचित् ।
उन्मन्याऽवस्थया त्वां विगतकलिमलं शङ्करं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्री महादेव शम्भो  ॥१०॥
चन्द्रोद्भासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शङ्करे
सर्पैर्भूषितकण्ठकर्णयुगले (विवरे)नेत्रोत्थवैश्वानरे ।
दन्तित्वक्कृतसुन्दराम्बरधरे त्रैलोक्यसारे हरे
मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिमचलामन्यैस्तु किं कर्मभिः  ॥११॥
किं वाऽनेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं
किं वा पुत्रकलत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम् ।
ज्ञात्वैतत्क्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः
स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज मन श्रीपार्वतीवल्लभम्  ॥१२॥
आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं
प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः ।
लक्ष्मीस्तोयतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं जीवितं
तस्मात्त्वां (मां)शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना  ॥१३॥
वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं वन्दे जगत्कारणं
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनां पतिम् ।
वन्दे सूर्यशशाङ्कवह्निनयनं वन्दे मुकुन्दप्रियं
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम्  ॥१४॥
गात्रं भस्मसितं च हसितं हस्ते कपालं सितं
खट्वाङ्गं च सितं सितश्च वृषभः कर्णे सिते कुण्डले ।
गङ्गाफेनसिता जटा पशुपतेश्चन्द्रः सितो मूर्धनि
सोऽयं सर्वसितो ददातु विभवं पापक्षयं सर्वदा  ॥१५॥
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्ष्मस्व
शिव शिव करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो  ॥१६॥
 ॥इति श्रीमद् शङ्कराचार्यकृत शिवापराधक्षमापण स्तोत्रं संपूर्णम् ॥

Tuesday, July 10, 2012

हर हर महादेव शिव हर हर महादेव

हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||
सत्य, सनातन, सुन्दर, शिव! सबके स्वामी।
अविकारी, अविनाशी, अज, अन्तर्यामी ॥1॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

आदि, अनन्त, अनामय, अकल, कलाधारी।
अमल, अरूप, अगोचर, अविचल, अघहारी ॥2॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

ब्रह्मा, विष्णु महेश्वर, तुम त्रिमूर्तिधारी।
कर्ता, भर्ता, धर्ता तुम ही संहारी ॥3॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

रक्षक, भक्षक, प्रेरक, प्रिय, औढरदानी।
साक्षी, परम अकर्ता, कर्ता, अभिमानी ॥4॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

मणिमय-भवन निवासी, अति भोगी, रागी.
सदा श्मशान विहारी, योगी वैरागी ॥5॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

छाल-कपाल,गरल-गल, मुण्डमाल,व्याली।
चिताभस्मतन, त्रिनयन, अयनमहाकाली ॥6॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

प्रेत-पिशाच-सुसेवित, पीतजटाधारी।
विवसन विकट रूपधर रुद्र प्रलयकारी ॥7॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

शुभ्र-सौम्य, सुरसरिधर, शशिधर, सुखकारी।
अतिकमनीय, शांतिकर, शिवमुनि-मन-हारी ॥8॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

निर्गुण, सगुण, निरंजन, जगमय, नित्य-प्रभो।
कालरूप केवल हर! कालातीत विभो ॥9॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

सत्‌, चित्‌, आनंद, रसमय, करुणामय धाता।
प्रेम-सुधा-निधि, प्रियतम, अखिल विश्वत्राता ॥10॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||

हम अतिदीन, दयामय! चरण-शरण दीजै।
सब बिधि निर्मल मति कर अपना कर लीजै ॥11॥
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||
हर हर महादेव शिव हर हर महादेव ||.

Wednesday, July 4, 2012

श्रावण मास  मे शिव  पूजा......
 श्रावण मासमें आशुतोष भगवान्‌ शंकरकी पूजाका विशेष महत्व है। जो प्रतिदिन पूजन न कर सकें उन्हें सोमवारको शिवपूजा अवश्य करनी चाहिये और व्रत रखना चाहिये। सोमवार भगवान्‌ शंकरका प्रिय दिन है, अत: सोमवारको शिवाराधन करना चाहिये।
श्रावणमें पार्थिव शिवपूजाका विशेष महत्व है। अत: प्रतिदिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोषको शिवपूजा या पार्थिव शिवपूजा अवश्य करनी चाहिये।
सोमवार (Shravan Somvar) के व्रत के दिन प्रातःकाल ही स्नान ध्यान के उपरांत मंदिर देवालय या घर पर श्री गणेश जी की पूजा के साथ शिव-पार्वती और नंदी की पूजा की जाती है। इस दिन प्रसाद के रूप में जल  ,  दूध  ,  दही  ,  शहद  ,  घी  ,  चीनी  ,  जने‌ऊ  ,  चंदन  ,  रोली  ,  बेल पत्र  ,  भांग  ,  धतूरा  ,  धूप  ,  दीप और दक्षिणा के साथ ही नंदी के लि‌ए चारा या आटे की पिन्नी बनाकर भगवान पशुपतिनाथ का पूजन किया जाता है। रात्रिकाल में घी और कपूर सहित गुगल, धूप की आरती करके शिव महिमा का गुणगान किया जाता है। लगभग श्रावण मास के सभी सोमवारों को यही प्रक्रिया अपना‌ई जाती है।
इस मासमें लघुरुद्र, महारुद्र अथवा अतिरुद्र पाठ करानेका भी विधान है।
इस मास के प्रत्येक सोमवार को शिवलिंग पर शिवामूठ च़ढ़ा‌ई जाती है। वह क्रमशः इस प्रकार है :
प्रथम सोमवार को- कच्चे चावल एक मुट्ठी, दूसरे सोमवार को- सफेद तिल्ली एक मुट्ठी, तीसरे सोमवार को- ख़ड़े मूँग एक मुट्ठी, चौथे सोमवार को- जौ एक मुट्ठी और यदि पाँचवाँ सोमवार आ‌ए तो एक मुट्ठी सत्तू च़ढ़ाया जाता है।
शिव की पूजा में बिल्वपत्र (Belpatra) अधिक महत्व रखता है। शिव द्वारा विषपान करने के कारण शिव के मस्तक पर जल की धारा से जलाभिषेक शिव भक्तों द्वारा किया जाता है। शिव भोलेनाथ ने गंगा को शिरोधार्य किया है।
एक कथा के अनुसार श्रीविष्णु पत्नी लक्ष्मी ने शंकर के प्रिय श्रावण माह में शिवलिंग पर प्रतिदिन 1001 सफेद कमल अर्पण करने का निश्चय किया। स्वर्ण तश्तरी में उन्होंने गिनती के कमल रखे, लेकिन मंदिर पहुँचने पर तीन कमल अपने आप कम हो जाते थे। सो मंदिर पहुँचकर उन्होंने उन कमलों पर जल छींटा, तब उसमें से एक पौधे का निर्माण हु‌आ। इस पर त्रिदल ऐसे हजारों पत्ते थे, जिन्हें तोड़कर लक्ष्मी शिवलिंग पर चढ़ाने लगीं, सो त्रिदल के कम होने का तो सवाल ही खत्म हो गया।
और लक्ष्मी ने भक्ति के सामर्थ्य पर निर्माण कि‌ए बिल्वपत्र शिव को प्रिय हो ग‌ए। लक्ष्मी यानी धन-वैभव, जो कभी बासी नहीं होता। यही वजह है कि लक्ष्मी द्वारा पैदा किया गया बिल्वपत्र भी वैसा ही है। ताजा बिल्वपत्र न मिलने की दशा में शिव को अर्पित बिल्वपत्र पुनः चढ़ाया जा सकता है। बिल्वपत्र का वृक्ष प्रकृति का मनुष्य को दिया वरदान है।
सुहागन स्त्रियों को इस दिन व्रत रखने से अखंड सौभाग्य प्राप्त होता है। विद्यार्थियों को सोमवार का व्रत रखने से और शिव मंदिर में जलाभिषेक करने से विद्या और बुद्धि की प्राप्ति होती है। बेरोजगार और अकर्मण्य जातकों को रोजगार तथा काम मिलने से मानप्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। सदगृहस्थ नौकरी पेशा या व्यापारी को श्रावण के सोमवार व्रत करने से धन धान्य और लक्ष्मी की वृद्धि होती है।
वहीं भगवान श्री कृष्‍ण के वृन्‍दावन में भी सावन के महीने में बहारें छायीं रहेंगीं, जहॉं झूलों और रास लीला‌ओं का परम्‍परागत उत्‍सव रहेगा वहीं कृष्‍ण साधना और कृष्‍ण पूजा भी इन दिनों भारी संख्‍या में होगी ।
सावन (shavan) के पूरे महीने जहॉं शिव और कृष्‍ण की पूजा और साधना परम्‍परा चलेगी वहीं शिवालय और कृष्‍ण मन्दिर इन दिनों लोगों के मेलों से घिरे रहेंगे ।
आज भी उत्तर भारत में कांवड़ परम्परा का बोलबाला है। श्रद्धालु गंगाजल लाने के लि‌ए हरिद्वार  ,  गढ़ गंगा और प्रयाग जैसे तीर्थो में जाकर जलाभिषेक करने हेतु कांवड़ लेकर आते हैं। यह सब साधन शिवजी की कृपा प्राप्त करने के लि‌ए है।

Monday, July 2, 2012

दशा मुझ दीन की भगवन संभालोगे तो क्या होगा

दशा मुझ दीन की भगवन संभालोगे तो क्या होगा | अगर चरणों की सेवा में लगा लोगे तो क्या होगा || कि नामी पातकी मैं हूँ कि नामी पाप हर हो तुम | जो लज्जा दोनों नामों की बचा लोगे तो क्या होगा || दशा मुझ दीन की भगवन संभालोगे तो क्या होगा | जिन्होंने तुमको करुणा कर पतित पावन बनाया है || उन्ही पतितों को तुम पावन बना लोगे तो क्या होगा | दशा मुझ दीन की भगवन संभालोगे तो क्या होगा || यहाँ सब मुझसे कहते हैं किसी के काम का ना तू | मैं किसका हूँ ये झगड़ा ही मिटा दोगे तो क्या होगा || दशा मुझ दीन की भगवन संभालोगे तो क्या होगा || अजामिल गीध गणिका जिस दया गंगा में बहते हैं | उसी में बूँद सा पापी मिला दोगे तो क्या होगा || दशा मुझ दीन की भगवन संभालोगे तो क्या होगा || दशा मुझ दीन की भगवन संभालोगे तो क्या होगा ||

फिर मेरी ही किस्मत में क्यूँ देर लगाना है

जब दर पे तुम्हारे ही अधमों का ठिकाना है | फिर मेरी ही किस्मत में क्यूँ देर लगाना है || तारोगे तो तर जायेंगे छोड़ोगे तो बैठे हैं | दरबार से अब हरगिज उठकर नहीं जाना है | फिर मेरी ही किस्मत में क्यूँ देर लगाना है || फरियाद को सुनने में है कौन सिवा तुमसे | गर् तुम न सुनोगे तो फिर किसको सुनाना है | फिर मेरी ही किस्मत में क्यूँ देर लगाना है || दृग बिंदु की शक्लों में ख्वाहिश है मेरे दिल की | जरिया तो है आँखों का आंसू का बहाना है | फिर मेरी ही किस्मत में क्यूँ देर लगाना है ||

कहानी नंदी की

कहानी नंदी की संकलित पुराणों में यह कथा मिलती है कि शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। शिलाद निरंतर योग तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे अतः उन्होंने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान माँगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया और उनके ही समान मृत्युहीन तथा दिव्य पुत्र की माँग की। भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया- वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भय से मुक्त, अजर-अमर और अदु:खी हो। मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा।" भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों, गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर का वरदान है कि जहाँ पर नंदी का निवास होगा वहाँ उनका भी निवास होगा। तभी से हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी की स्थापना की जाती है। शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का प्रतीक है। नंदी का एक संदेश यह भी है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की दृष्टि शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी दृष्टि भी आत्मा की ओर होनी चाहिये। हर व्यक्ति को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। नंदी यह संकेत देता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही सामान्य भाषा में मन का स्वच्छ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाते हुए मनुष्य अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि जब शिव अवतार नंदी का रावण ने अपमान किया तो नंदी ने उसके सर्वनाश को घोषणा कर दी थी। रावण संहिता के अनुसार कुबेर पर विजय प्राप्त कर जब रावण लौट रहा था तो वह थोड़ी देर कैलाश पर्वत पर रुका था। वहाँ शिव के पार्षद नंदी के कुरूप स्वरूप को देखकर रावण ने उसका उपहास किया। नंदी ने क्रोध में आकर रावण को यह श्राप दिया कि मेरे जिस पशु स्वरूप को देखकर तू इतना हँस रहा है। उसी पशु स्वरूप के जीव तेरे विनाश का कारण बनेंगे। नंदी का एक रूप सबको आनंदित करने वाला बी है। सबको आनंदित करने के कारण ही भगवान शिव के इस अवतार का नाम नंदी पड़ा। शास्त्रों में इसका उल्लेख इस प्रकार है- त्वायाहं नंन्दितो यस्मान्नदीनान्म सुरेश्वर। तस्मात् त्वां देवमानन्दं नमामि जगदीश्वरम।। -शिवपुराण शतरुद्रसंहिता ६/४५ अर्थात नंदी के दिव्य स्वरूप को देख शिलाद मुनि ने कहा तुमने प्रगट होकर मुझे आनंदित किया है। अत: मैं आनंदमय जगदीश्वर को प्रणाम करता हूं।