Saturday, January 30, 2016

शाकम्भरी देवी

शाकम्भरी देवी :
दुर्गम नाम का एक दैत्य था। दैत्य तपस्या करने के विचार से हिमालय पर्वत पर गया। मन में ब्रह्मा जी का ध्यान करके उसने आसन जमा लिया। वह केवल वायु पीकर रहता था। उसने एक हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की। चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक हंस कर दुर्गम के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले - 'तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो वर पाने की इच्छा हो, मांग लो। ' ब्रह्माजी के मुख से यह वाणी सुनकर दुर्गम ने कहा – मुझे बल दीजिये, जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ।
दुर्गम की यह बात सुनकर चारों वेदों के परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी 'ऐसा ही हो' कहते हुए सत्यलोक की ओर चले गये।
शक्ति पाकर दुर्गम ने लोगों पर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया और धर्म के क्षय ने गंभीर सूखे को जन्म दिया और सौ वर्षों तक कोई वर्षा नहीं हुई ।
ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग भीषण अनिष्टप्रद समय उपस्थित होने पर जगदम्बा की उपासना करने हिमालय पर्वत पर गये, और अपने को सुरक्षित एवं बचाने के लिए हिमालय की कन्दराओं में छिप गए तथा माता देवी को प्रकट करने के लिए कठोर तपस्या की । समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उन्होंने देवी की स्तुति की। भगवती जगदम्बा तुरन्त संतुष्ट हो गयीं। ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग की समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उनके संताप के करुण क्रन्दन से विचलित होकर, देवी-फल, सब्जी, जड़ी-बूटी, अनाज, दाल और पशुओं के खाने योग्य कोमल एवं अनेक रस से सम्पन्न नवीन घास फूस लिए हुए प्रकट हुईं और अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये।,शाक का तात्पर्य सब्जी होता है, इस प्रकार माता देवी का नाम उसी दिन से ''शाकम्भरी'' पड गया।

शाकम्भरी नवरात्रि पौष शुक्ल अष्टमी से आरम्भ होकर पौष की पूर्णिमा को समाप्त होता है ।
यह राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमांचल प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में मनाया जाता है । भारत के इन राज्यों के मन्दिरों में विशाल आयोजन माता की आराधना हेतु होता है ।
शाकम्भरी माता का पहला प्रमुख मंदिर राजस्थान के सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है।
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और
तीसरा उत्तरप्रदेश में सहारनपुर से 42 किलोमीटर दूर स्थित है.


ममलेश्वर महादेव मंदिर

ममलेश्वर महादेव मंदिर हिमाचल प्रदेश की करसोगा घाटी के ममेल गांव में स्थित है। ममलेश्वर महादेव मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर का संबंध पांडवो से भी है क्योकि पांडवो ने अपने अज्ञातवास का कुछ समय इसी गाँव में बिताया था। इस मंदिर में एक प्राचीन ढोल है जिसके बारे में कहा जाता है की ये भीम का ढोल है। इसके अलावा मंदिर में स्थापित पांच शिवलिंगों के बारे में कहा जाता है की इसकी स्थापना स्वयं पांडवों ने की थी। और सबसे प्रमुख गेंहूँ का दाना है जिसे की पांडवों का बताया जाता है। यह गेंहूँ का दाना पुजारी के पास रहता है। यह दाना करीब 5000 साल पुराना है और इस एक दाने का वजन 200 ग्राम है |इस मंदिर में एक धुना है जिसके बारे में मान्यता है कि ये महाभारत काल से निरंतर जल रहा है। इस अखंड धुनें के पीछे एक कहानी है कि जब पांडव अज्ञातवास में घूम रहे थे तो वे कुछ समय के लिए इस गाँव में रूके । तब इस गांव में एक राक्षस ने एक गुफा में डेरा जमाया हुआ था । उस राक्षस के प्रकोप से बचने के लिये लोगो ने उस राक्षस के साथ एक समझौता किया हुआ था कि वो रोज एक आदमी को खुद उसके पास खाने के लिए भेजेंगें जिससे कि वो सारे गांव को एक साथ ना मारे । एक दिन उस घर के लडके का नम्बर आया जिसमें पांडव रूके हुए थे । उस लडके की मां को रोता देख पांडवो ने कारण पूछा तो उसने बताया कि आज मुझे अपने बेटे को राक्षस के पास भेजना है । अतिथि के तौर पर अपना धर्म निभाने के लिये पांडवो में से भीम उस लडके की बजाय खुद उस राक्षस के पास गए । दोनो में भयंकर युद्ध हुआ और भीम ने उस राक्षस को मारकर गांव को उससे मुक्ति दिलाई |कहते है कि भीम की इस विजय की याद में ही यह अखंड धुना चल रहा है।इसके अलावा मंदिर में स्थापित पांच शिवलिंगों के बारे में कहा जाता है कि इनकी स्थापना स्वयं पांडवों ने की थी।

हत्याहरण तीर्थ

हत्याहरण तीर्थ उत्तर प्रदेश प्रदेश के हरदोई जनपद की संडीला तहसील में पवित्र नैमिषारण्य परिक्रमा क्षेत्र में स्थित है। प्रसिद्ध हत्याहारण कुंड तीर्थ के संबंध में यह मान्यता है कि भगवान राम भी रावण वध के उपरांत ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त होने के लिये इस सरोवर में स्नान करने आये थे।
ऐतिहासिक कथा
इस तीर्थ की नीव देवो में देव महादेव ने डाली थी|शिव पुराण में वर्णन है कि माता पार्वती के साथ भगवान भोले नाथ एकांत की खोज में निकले और नैमिषारण्य क्षेत्र में विहार करते हुए एक जंगल में जा पहुचे |वहाँ पर सुरम्य जंगल मिलने पर तपस्या करने लगे ! तपस्या करते हुए माता पार्वती को प्यास लगी | जंगल में जल न मिलने पर उन्होंने देवताओ से पानी के लिए कहा तब भगवान सूर्य ने एक कमंडल जल दिया | माँ पार्वती ने जल पान करने के बाद बचे जल को जमीन पर गिरा दिया |तेजस्वी पवित्र जल से वहाँ पर एक कुण्ड का निर्माण हुआ |जाते वक्त भगवान शंकर ने इस स्थान का नाम प्रभास्कर क्षेत्र रखा |यह कहानी सतयुग की है|द्वापर में ब्रम्हा द्वारा अपनी पुत्री पर कुदृष्टि डालने पर पाप लगा |उन्होंने इस तीर्थ में आकर स्नान किया तब वह पाप मुक्त हुए |तब इस तीर्थ का नाम ब्रम्ह क्षेत्र पड़ा |त्रेता में मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने जब रावण का बध किया तो भगवान राम को ब्रम्ह हत्या का पाप लगा | तब गुरु के कहने पर भगवान राम ब्रम्ह हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए इस तीर्थ पर आये और स्नान किया | इस तरह से उनके पाप धुले और वो ब्रम्ह हत्या के पाप से मुक्त हुए | त्रेता युग से आज तक इस स्थान का नाम हत्या हरण कहा जाता है क्योंकि यहाँ स्नान करने से ह्त्या तक का पाप नष्ट हो जाता है |
 

परशुराम महादेव का मंदिर

परशुराम महादेव का मंदिर राजस्थान के राजसमन्द और पाली जिले की सीमा पर स्थित है। मुख्य गुफा मंदिर राजसमन्द जिले में आता है जबकि कुण्ड धाम पाली जिले में आता है। पाली से इसकी दूरी करीब 100 किलोमीटर और कुम्भलगढ़ दुर्गसे मात्र 10 किलोमीटर है।अरावली की सुरम्य पहाड़ियों में स्थित परशुराम महादेव गुफा मंदिर का निर्माण स्वंय परशुराम ने अपने फरसे से चट्टान को काटकर किया था। इस गुफा मंदिर तक जाने के लिए 500 सीढ़ियों का सफर तय करना पड़ता है। इस गुफा मंदिर के अंदर एक स्वयं भू शिवलिंग है जहां पर विष्णु के छठे अवतार परशुराम ने भगवान शिव की कई वर्षो तक कठोर तपस्या की थी। तपस्या के बल पर उन्होंने भगवान शिव से धनुष, अक्षय तूणीर एवं दिव्य फरसा प्राप्त किया था।
पूरी गुफा एक ही चट्टान में बनी हुई है। ऊपर का स्वरूप गाय के थन जैसा है। प्राकृतिक स्वयं-भू लिंग के ठीक ऊपर गोमुख बना है, जिससे शिवलिंग पर अविरल प्राकृतिक जलाभिषेक हो रहा है। मान्यता है कि मुख्य शिवलिंग के नीचे बनी धूणी पर कभी भगवान परशुराम ने शिव की कठोर तपस्या की थी। इसी गुफा में एक शिला पर एक राक्षस की आकृति बनी हुई है। जिसे परशुराम ने अपने फरसे से मारा था।

दुर्गम पहाड़ी, घुमावदार रास्ते, प्राकृतिक शिवलिंग, कल-कल करते झरने एवं प्राकृतिक सौंदर्य से ओत-प्रोत होने के कारण भक्तों ने इसे मेवाड़ के अमरनाथ का नाम दे दिया है।
इस स्थान से जुडी एक मान्यता के अनुसार भगवान बद्रीनाथ के कपाट वही व्यक्ति खोल सकता है जिसने परशुराम महादेव के दर्शन कर रखे हो।एक अन्य मान्यता गुफा मंदिर में स्थित शिवलिंग से जुडी है|मंदिर में शिवलिंग में एक छिद्र है जिसके बारे में मान्यता है कि इसमें दूध का अभिषेक करने से दूध छिद्र में नहीं जाता जबकि पानी के सैकड़ों घड़े डालने पर भी वह नहीं भरता और पानी शिवलिंग में समा जाता है। इसी जगह पर परशुराम ने दानवीर कर्ण को शिक्षा दी थी।

मेंढक मंदिर

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी जिले में एक ऐसा शिव मंदिर है जिसमे शिवजी मेंढक की पीठ पर विराजमान हैं। जिला मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर दूर ओयल कस्बे में स्थित इस मन्दिर को मेंढक मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर की खास बात ये है कि यहां नर्मदेश्वर महादेव का शिवलिंग रंग बदलता है, और यहां नंदी की खड़ी हुई मूर्ति है | मंदिर राजस्थानी स्थापत्य कला पर बना है, और मण्डूक तंत्र पर बना है। मंदिर के बाहरी दीवारों पर शव साधना करती उत्कीर्ण मूर्तियां इसे तांत्रिक मंदिर ही बनाती हैं।
मेंढक मंदिर अड़तीस मीटर लम्बा, पच्चीस मीटर चौड़ाई में निर्मित एक मेढक की पीठ पर बना हुआ है | पाषाण निर्मित मेंढक का मुख तथा अगले दो पैर उत्तर की दिशा में हैं | मेंढक का मुख 2 मीटर लम्बा, डेढ़ मीटर चौड़ा तथा 1 मीटर ऊंचा है| इसके पीछे का भाग 2 मीटर लम्बा तथा 1.5 मीटर चौड़ा है | पिछले पैर दक्षिण दिशा में दिखाई हैं | मेंढक की उभरी हुई गोलाकार आंखें तथा मुख का भाग बड़ा जीवन्त प्रतीत होता है | मेंढक के शरीर का आगे का भाग उठा हुआ तथा पीछे का भाग दबा हुआ है जोकि वास्तविक मेंढक के बैठने की स्वाभविकमुद्रा है.

सामने से मेंढक के पीठ पर करीब सौ फिट का ये मन्दिर अपनी स्थापत्य के लिए यूपी ही नहीं पूरे देश के शिव मंदिर में सबसे अलग है। सावन में महीने भर दूर-दूर से भक्त यहां आकर भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं और आशीर्वाद लेते हैं।
मेंढक मंदिर की एक खास बात इसका कुआं भी है। जमीन तल से ऊपर बने इस कुए में जो पानी रहता है वो जमीन तल पर ही मिलता है। इसके अलावा खड़ी नंदी की मूर्ति मंदिर की विशेषता है। मंदिर का शिवलिंग भी बेहद खूबसूरत है और संगमरमर के कसीदेकारी से बनी ऊंची शिला पर विराजमान है। नर्मदा नदी से लाया गया शिवलिंग भी भगवान नर्मदेश्वर के नाम से विख्यात हैं।




Friday, January 29, 2016

मादीपुर में प्राचीन शिव मंदिर

दिल्ली के  है . कहते हैं कि इस मंदिर के शिवलिंग को पांडवों की माँ माद्री द्वारा स्थापित किया गया था . पहले इस इलाके का नाम माद्रीपुर था जो आज मादीपुर हो गया है . इस मंदिर का अभी नवीनीकरण हुआ है व कई नई मूर्तियाँ भी स्थापित हुई हैं . इस मंदिर में प्रतिदिन भक्तों का शिवलिंग पूजन के लिए जमावड़ा रहता है . इसके पास में एक सरोवर भी है जिसे भगवती सरोवर कहते हैं .
 

























श्री गणेश संकट चतुर्थी

श्री गणेश संकट चतुर्थी या सकत चौथ के दिन श्री विध्नहर्ता की पूजा- अर्चना और व्रत करने से व्यक्ति के समस्त संकट दूर होते है. यह व्रत इस वर्ष 27 जनवरी, 2016 को है. माघ माह के कृष्ण पक्ष चतुर्थी के दिन को संकट चौथ के नाम से भी जाना जाता है.
हिन्दू धर्म शास्त्रों में के अनुसार भगवान श्री गणेश कई रुपों में अवतार लेकर प्राणीजनों के दुखों को दूर करते हैं. श्री गणेश मंगलमूर्ति है, सभी देवों में सबसे पहले श्री गणेश का पूजन किया जाता है. श्री गणेश चतुर्थी का उपवास जो भी भक्त संपूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ करता है, उसकी जीवन में आने वाली सभी विध्न बाधाओं का नाश होता है. यह व्रत मुख्यत संतान की कुशलता की कामना व लंबी आयु हेतु भगवान गणेश और माता पार्वती की विधिवत पूजा अर्चना के साथ किया जाता है . व्रत का आरंभ तारों की छांव में करना चाहिए व्रतधारी को पूरा दिन अन्न, जल ग्रहण किए बिना पूजा अर्चना करनी चाहिए और बच्चों की दीर्घायु के लिए कामना करनी चाहिए. इसके बाद संध्या समय पूजा की तैयारी के लिए गुड़, तिल, गन्ने और मूली को उपयोग करना चाहिए. व्रत में यह सामग्री विशेष महत्व रखती है, देर शाम चंद्रोदय के समय व्रतधारी को तिल, गुड़ आदि का अ‌र्घ्य देकर भगवान चंद्र देव से व्रत की सफलता की कामना करनी चाहिए.
व्रत कथा :किसी नगर में एक कुम्हार रहता था । एक बार उसने बर्तन बनाकर आंवा लगाया तो आंवा गर्म ही नहीं हुआ .। हारकर वह राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगा । राजा ने राजपंडित को बुलाकर कारण पूछा तो पंडित ने कहा कि हर बार आंवा लगाते समय बच्चे की बलि देने से आंवा पक जाएगा । राजा का आदेश हो गया । बलि आरम्भ हुई । जिस परिवार की बारी होती वह परिवार अपने बच्चो में से एक बच्चा बलि के लिए भेज देता । इसी तरह कुछ दिनों बाद सकट के दिन एक बुढ़िया के लड़के की बारी आयी । दुखी बुढ़िया सोच रही थी की मेरा तो एक ही बेटा है ,वह भी मुझसे जुदा हो जाएगा । बुढ़िया ने लड़के को सकट की सुपारी और दूब का बीड़ा देकर कहा "भगवान का नाम लेकर आंवा में बैठ जाना । सकट माता रक्षा करेंगी । " बालक आंवा में बिठा दिया गया और बुढ़िया सकट माता के सामने बैठकर पूजा करने लगी । पहले तो आंवा पकने में कई दिन लग जाते थे,पर इस बार सकट माता की कृपा से एक ही रात में आंवा पक गया । सवेरे कुम्हार ने देखा तो हैरान रह गया । आंवा पक गया था । बुढ़िया का बेटा एवं अन्य बालक भी जीवित एंव सुरक्षित थे । नगर वासियों ने सकट की महिमा स्वीकार की तथा लड़के को भी धन्य माना । सकट माता की कृपा से नगर के अन्य बालक भी जी उठे ।
सकट चौथ माता का एक प्रसिद्द मंदिर राजस्थान के अलवर जिले के सकट ग्राम में है .यह स्थान अलवर जिले की राजगढ़ तहसील में अलवर से करीब 60 किलोमीटर दूर है . 
 

राधारानी मंदिर बरसाना

बरसाने में यूं तो कई मंदिर हैं पर यहां का विशेष आकर्षण है-राधारानी
मंदिर। इसकी सुंदरता देखते ही बनती है। यहां राधारानी की प्रतिमा बहुत सुंदर है।
मंदिर में ही वृषभानुजी की मूर्ति है जिसके एक ओर किशोरी सहारा दिए खड़ी हैं तो
दूसरी ओर श्रीदामा खड़े हैं।बरसाना के बीचो-बीच एक पहाड़ी है जो कि बरसाने के मस्तिष्क पर आभूषण के समान है। उसी के ऊपर राधा रानी मंदिर है और इस मंदिर को बरसाने की लाड़ली जी का मंदिर भी कहा जाता है। राधा का प्राचीन मंदिर मध्यकालीन है जो लाल और पीले पत्थर का बना है।
राधा-कृष्ण को समर्पित इस भव्य और सुन्दर मंदिर का निर्माण राजा वीर सिंह ने 1675 में करवाया था। बाद में स्थानीय लोगों द्वारा पत्थरों को इस मंदिर में लगवाया। राधा जी
को प्यार से बरसाना के लोग ललि जी और वृषभानु दुलारी भी कहते हैं। राधाजी के पिता
का नाम वृषभानु और उनकी माताजी का नाम कीर्ति था। राधा रानी का मंदिर बहुत ही
सुन्दर और मनमोहक है। राधा रानी मंदिर कऱीब ढाई सौ मीटर ऊंची पहाड़ी पर बना है और इस मंदिर में जाने के लिए सैकड़ों सीढिय़ां चढऩी पढ़ती है।अभी यहाँ रोपवे बनाने का कार्य प्रारम्भ होने वाला है |

 









ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर इंदौर से 77 किमी एवं मोरटक्का से 13 किमी की दुरी पर भगवान शिव का ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है. यहाँ पर नर्मदा नदी दो भागों में बंट कर मान्धाता या शिवपूरी नामक द्वीप का निर्माण करती है यह द्वीप या टापू करीब 4 किमी लंबा एवं 2 किमी चौड़ा है. इस द्वीप का आकार ॐ समान है.
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
द्वादश ज्योतिर्लिंग में चौथा ओम्कारेश्वर है | स्कन्द पुराण, शिवपुराण व वायुपुराण में ओम्कारेश्वर शेत्र की महिमा का उल्लेख है | ओम्कारेश्वर में 68 तीर्थ है | यहाँ 33 करोड़ देवता विराजमान है | 84 योजन का विस्तार करने वाली माँ नर्मदा का विराट स्वरुप यहाँ पर है | इस प्रणव ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से समस्त पाप भस्म हो जाते है |
पुराणों के अनुसार विन्ध्य पर्वत ने भगवान शिव की पार्थिव लिंग रूप में पूजन व तपस्या की थी एवं भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया एवं प्रणव लिंग के रूप में अवतरित हुए .यह भी कहा जाता है कि देवताओं की प्रार्थना के पश्चात शिवलिंग २ भागो में विभक्त हो गया एवं एक भाग ओम्कारेश्वर एवं दूसरा भाग ममलेश्वर कहलाया. ऐसा कहा जाता है की ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर में एवं पार्थिव लिंग मम्लेश्वर में स्थित है. अन्य कथानुसार इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता ने यहाँ कठोर तपस्या की तब भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया एवं यहाँ प्रकट हुए, तभी से भगवान ओंकारेश्वर में रूप में विराजमान हैं.
मंदिर में एक विशाल सभा मंडप है जो की लगभग 14 फुट ऊँचा है एवं 60 विशालकाय खम्बों पर आधारित है.मंदिर कुल मिला कर 5 मजिलों वाला है एवं सभी पर अलग अलग देवता स्थापित हैं. जो की नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: श्री ओंकारेश्वर , श्री महाकालेश्वर, श्री सिद्धनाथ , श्री गुप्तेश्वर, एवं ध्वजाधारी शिखर देवता हैं.
श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ऐसा एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जो नर्मदा के उत्तर तट पर स्थित है.यहाँ भगवान शिव ओम्कार स्वरुप में प्रकट हुए हैं. एवं ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव व माता पार्वती प्रतिदिन तीनो लोकों में भ्रमण के पश्चात यहाँ आकर विश्राम करते हैं. अतएव यहाँ प्रतिदिन भगवान शिव की शयन आरती की जाती है .
भगवान् ओंकारेश्वर की शयन आरती के पश्चात रात्रि 9 बजे से 9.30 बजे तक भगवान् के शयन दर्शन होते है। जिसमे भगवान् के शयन हेतु चांदी का झूला लगाया जाता है, तथा शयन सेज बिछाई जाती है, तथा सेज पर चोपड़ पासा सजाया जाता है एवं संपूर्ण गर्भगृह का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है।
ओंकारेश्वर आने वालों दर्शनार्थियों के लिए झूला पुल एक विशेष आकर्षण है। यह पुल सीधे मुख्य मंदिर के द्वार तक पहुँचता है. एवं पूरे वर्ष उपयोग में लाया जाता है. यहाँ से नर्मदा नदी ओंकारेश्वर बांध एवं मंदिर का मनोरम द्रश्य दिखलाई पड़ता है।


मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर इंदौर से 77 किमी एवं मोरटक्का से 13 किमी की दुरी पर भगवान शिव का ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है. यहाँ पर नर्मदा नदी दो भागों में बंट कर मान्धाता या शिवपूरी नामक द्वीप का निर्माण करती है यह द्वीप या टापू करीब 4 किमी लंबा एवं 2 किमी चौड़ा है. इस द्वीप का आकार ॐ समान है.
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
द्वादश ज्योतिर्लिंग में चौथा ओम्कारेश्वर है | स्कन्द पुराण, शिवपुराण व वायुपुराण में ओम्कारेश्वर शेत्र की महिमा का उल्लेख है | ओम्कारेश्वर में 68 तीर्थ है | यहाँ 33 करोड़ देवता विराजमान है | 84 योजन का विस्तार करने वाली माँ नर्मदा का विराट स्वरुप यहाँ पर है | इस प्रणव ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से समस्त पाप भस्म हो जाते है |
पुराणों के अनुसार विन्ध्य पर्वत ने भगवान शिव की पार्थिव लिंग रूप में पूजन व तपस्या की थी एवं भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया एवं प्रणव लिंग के रूप में अवतरित हुए .यह भी कहा जाता है कि देवताओं की प्रार्थना के पश्चात शिवलिंग २ भागो में विभक्त हो गया एवं एक भाग ओम्कारेश्वर एवं दूसरा भाग ममलेश्वर कहलाया. ऐसा कहा जाता है की ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर में एवं पार्थिव लिंग मम्लेश्वर में स्थित है. अन्य कथानुसार इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता ने यहाँ कठोर तपस्या की तब भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया एवं यहाँ प्रकट हुए, तभी से भगवान ओंकारेश्वर में रूप में विराजमान हैं.
मंदिर में एक विशाल सभा मंडप है जो की लगभग 14 फुट ऊँचा है एवं 60 विशालकाय खम्बों पर आधारित है.मंदिर कुल मिला कर 5 मजिलों वाला है एवं सभी पर अलग अलग देवता स्थापित हैं. जो की नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: श्री ओंकारेश्वर , श्री महाकालेश्वर, श्री सिद्धनाथ , श्री गुप्तेश्वर, एवं ध्वजाधारी शिखर देवता हैं.
श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ऐसा एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जो नर्मदा के उत्तर तट पर स्थित है.यहाँ भगवान शिव ओम्कार स्वरुप में प्रकट हुए हैं. एवं ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव व माता पार्वती प्रतिदिन तीनो लोकों में भ्रमण के पश्चात यहाँ आकर विश्राम करते हैं. अतएव यहाँ प्रतिदिन भगवान शिव की शयन आरती की जाती है .
भगवान् ओंकारेश्वर की शयन आरती के पश्चात रात्रि 9 बजे से 9.30 बजे तक भगवान् के शयन दर्शन होते है। जिसमे भगवान् के शयन हेतु चांदी का झूला लगाया जाता है, तथा शयन सेज बिछाई जाती है, तथा सेज पर चोपड़ पासा सजाया जाता है एवं संपूर्ण गर्भगृह का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है।
ओंकारेश्वर आने वालों दर्शनार्थियों के लिए झूला पुल एक विशेष आकर्षण है। यह पुल सीधे मुख्य मंदिर के द्वार तक पहुँचता है. एवं पूरे वर्ष उपयोग में लाया जाता है. यहाँ से नर्मदा नदी ओंकारेश्वर बांध एवं मंदिर का मनोरम द्रश्य दिखलाई पड़ता.


मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर इंदौर से 77 किमी एवं मोरटक्का से 13 किमी की दुरी पर भगवान शिव का ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है. यहाँ पर नर्मदा नदी दो भागों में बंट कर मान्धाता या शिवपूरी नामक द्वीप का निर्माण करती है यह द्वीप या टापू करीब 4 किमी लंबा एवं 2 किमी चौड़ा है. इस द्वीप का आकार ॐ समान है.
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
द्वादश ज्योतिर्लिंग में चौथा ओम्कारेश्वर है | स्कन्द पुराण, शिवपुराण व वायुपुराण में ओम्कारेश्वर शेत्र की महिमा का उल्लेख है | ओम्कारेश्वर में 68 तीर्थ है | यहाँ 33 करोड़ देवता विराजमान है | 84 योजन का विस्तार करने वाली माँ नर्मदा का विराट स्वरुप यहाँ पर है | इस प्रणव ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से समस्त पाप भस्म हो जाते है |
पुराणों के अनुसार विन्ध्य पर्वत ने भगवान शिव की पार्थिव लिंग रूप में पूजन व तपस्या की थी एवं भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया एवं प्रणव लिंग के रूप में अवतरित हुए .यह भी कहा जाता है कि देवताओं की प्रार्थना के पश्चात शिवलिंग २ भागो में विभक्त हो गया एवं एक भाग ओम्कारेश्वर एवं दूसरा भाग ममलेश्वर कहलाया. ऐसा कहा जाता है की ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर में एवं पार्थिव लिंग मम्लेश्वर में स्थित है. अन्य कथानुसार इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता ने यहाँ कठोर तपस्या की तब भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया एवं यहाँ प्रकट हुए, तभी से भगवान ओंकारेश्वर में रूप में विराजमान हैं.
मंदिर में एक विशाल सभा मंडप है जो की लगभग 14 फुट ऊँचा है एवं 60 विशालकाय खम्बों पर आधारित है.मंदिर कुल मिला कर 5 मजिलों वाला है एवं सभी पर अलग अलग देवता स्थापित हैं. जो की नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: श्री ओंकारेश्वर , श्री महाकालेश्वर, श्री सिद्धनाथ , श्री गुप्तेश्वर, एवं ध्वजाधारी शिखर देवता हैं.
श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ऐसा एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जो नर्मदा के उत्तर तट पर स्थित है.यहाँ भगवान शिव ओम्कार स्वरुप में प्रकट हुए हैं. एवं ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव व माता पार्वती प्रतिदिन तीनो लोकों में भ्रमण के पश्चात यहाँ आकर विश्राम करते हैं. अतएव यहाँ प्रतिदिन भगवान शिव की शयन आरती की जाती है .
भगवान् ओंकारेश्वर की शयन आरती के पश्चात रात्रि 9 बजे से 9.30 बजे तक भगवान् के शयन दर्शन होते है। जिसमे भगवान् के शयन हेतु चांदी का झूला लगाया जाता है, तथा शयन सेज बिछाई जाती है, तथा सेज पर चोपड़ पासा सजाया जाता है एवं संपूर्ण गर्भगृह का आकर्षक श्रृंगार किया जाता है।
ओंकारेश्वर आने वालों दर्शनार्थियों के लिए झूला पुल एक विशेष आकर्षण है। यह पुल सीधे मुख्य मंदिर के द्वार तक पहुँचता है. एवं पूरे वर्ष उपयोग में लाया जाता है. यहाँ से नर्मदा नदी ओंकारेश्वर बांध एवं मंदिर का मनोरम द्रश्य दिखलाई है .

 


















Saturday, January 2, 2016

माँ वैष्णो देवी की पुरानी गुफा

माँ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए लाखों भक्त जाते हैं पर बहुत कम लोगों को माँ की पुरानी गुफा से जाकर दर्शन का सौभाग्य मिलता है . अधिक भीड़ होने के कारण यह पुरानी गुफा का रास्ता बहुत कम दिन ही खोला जाता है . पुरानी गुफा की दीवारों पर भी बहुत सुन्दर आकृतियाँ बनी हुई हैं ,पर इस गुफा से जाने वाले सौभाग्यशाली भक्त भी इन आकृतियों को अन्धेरा व भीड़ के कारण देख नहीं पाते हैं .इन आकृतियों के कुछ अति दुर्लभ चित्र आप के लिए प्रस्तुत हैं . यह चित्र अति दुर्लभ हैं |(These images are taken from www.ranima.com which is a beautiful site containing all details about Vaishno Devi Yatra)













शिव के नंदी

शिव की मूर्ति के सामने या उनके मंदिर के बाहर शिव के वाहन नंदी की मूर्ति स्थापित होती है। नंदी बैल को पुराणों में भी विशेष स्थान दिया गया है। नंदी भगवान शिव का केवल एक वाहन ही नहीं बल्कि उनके परम भक्त होने के साथ-साथ उनके साथी, उनके गणों में सबसे ऊपर और उनके मित्र भी हैं।पुराणों के अनुसार एक बार ब्रह्मचारी व्रत का पालन करते हुए शिलाद ऋषि को यह भय सताने लगा कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनका पूरा वंश समाप्त हो जाएगा, इसलिए उन्होंने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय किया। इस के लिए शिलाद ऋषि ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी आराधना शुरू की। शिलाद ऋषि की कठोर तपस्या की वजह से भगवान शिव स्वयं उनके सामने प्रस्तुत हुए और उन्हें वरदान मांगने को कहा। शिलाद ऋषि ने उनसे कहा कि वह एक पुत्र की कामना रखते हैं। भगवान शिव ने उनसे कहा कि जल्द ही उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति होगी। अगले ही दिन खेती करने के लिए वह खेत पर पहुंचे, जहां उन्हें एक खूबसूरत नवजात शिशु मिला। वह शिशु बेहद आकर्षक तो था ही, उसके चेहरे पर एक अजीब सा तेज भी था। इतने में ही उन्हें एक आवाज सुनाई दी, “यही तुम्हारी संतान है, इसका अच्छी तरह पालन-पोषण करना।“
कुछ समय बाद कुछ संत ऋषि के यहाँ पधारे . शिलाद ऋषि ने उन साधुओं को प्रणाम किया तब उन दोनों ने उन्हें लंबे और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद दिया। लेकिन जब नंदी ने साधुओं के चरण स्पर्श किए तो संतों ने यह आशीर्वाद नहीं दिया | शिलाद ने इसका कारण पूछा तब संतों ने कहा की नंदी अल्पायु है | नंदी ने जैसे ही सुना कि वो अल्पायु है, वह हंसने लगा। उसने अपने पिता से कहा कि आपने मुझे भगवान शिव की कृपा से पाया है, इसलिए मेरी उम्र की रक्षा भी वही करेंगे। नंदी का कहना था कि जो लोग भगवान शिव की आराधना करते हैं, उन्हें कोई तकलीफ छू भी नहीं सकती।यह कह कर अपने पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर नंदी भुवन नदी के किनारे तप करने चले गए। नंदी का तप इतना कठोर, आस्था इतनी प्रबल और ध्यान इतना मजबूत था कि शिव को प्रकट होने में ज्यादा समय नहीं लगा। नंदी ने उनसे प्रार्थना की कि वह हर समय उनके साथ रहना चाहते हैं। नंदी के समर्पण से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने नंदी को पहले अपने गले लगाया और उन्हें बैल का चेहरा देकर उन्हें अपने वाहन, अपना दोस्त, अपने गणों में सर्वोत्तम के रूप में स्वीकार कर लिया।
समुद्र मंथन के समय जब हलाहल विष निकला, तब शिवजी ने उसे पीकर संसार की रक्षा की | इस बीच विष की कुछ बूंदे भूमि पर गिर गयी जिन्हें नंदी ने चाट लिया | देवता और असुर दोनों ही नंदी को देखकर हैरान रह गए कि नंदी ने जान-बूझकर इस विष को क्यों ग्रहण किया।नंदी ने जवाब दिया कि जब उनके स्वामी ने इस विष को ग्रहण किया है तो उन्हें तो करना ही था। नंदी का यह समर्पण देखकर शिव भी प्रसन्न हुए और कहा कि नंदी मेरे सबसे बड़े भक्त हैं इसलिए मेरी सभी ताकतें नंदी की भी हैं। शिव और नंदी के बीच इसी संबंध की वजह से शिव की मूर्ति के साथ नंदी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। ऐसा माना जाता है कि शिव तो हमेशा ध्यान में लीन होते हैं, वह हमेशा समाधि में रहते हैं इसलिए उनके भक्तों की आवाज उन तक नंदी ही पहुंचाते हैं।नंदी के कान में की गई प्रार्थना नंदी की अपने स्वामी से प्रार्थना बन जाती है और वह शिव को इसे पूरा करने के लिए कहते हैं। नंदी की प्रार्थना शिव कभी अनसुनी नहीं करते इसलिए वह जल्दी पूरी हो जाती है।

खोले के हनुमानजी

खोले के हनुमानजी :
जयपुर शहर की पूर्वी अरावली पहाडियों में नेशनल हाईवे-8 से लगभग 5 किमी अंदर विशाल क्षेत्र में फैला भव्य दोमंजिला मंदिर खोले के हनुमान जी वर्तमान में जयपुर के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। वर्ष 1960 में पंडित राधेलाल चौबे ने इस निर्जन स्थान में भगवान हनुमान की लेटी हुई विशाल प्रतिमा खोजी। यहां पहाडियों में एक खोला अर्थात बरसाती नाला बहता था। इसलिए इस स्थान का खोले के हनुमान नाम से जाना गया। इस मंदिर में कई मंजिला परिसर में श्रीराम मंदिर, गायत्री मंदिर, गणेश मंदिर, शिव मंदिर भी स्थित हैं।यहाँ पर कई रसोइयाँ भी हैं जिनमे लोग अपनी श्रद्धा अनुसार 200 से 1100 लोगों तक भंडारा विभिन्न अवसरों जैसे जन्मदिन,विवाह या किसी मान्यता के पूरे होने पर करते रहते हैं | मंदिर का भवन निर्माण नई शैली में है और अब पहाडियों की गोद में बसा यह सुरम्य स्थल शहरवासियों के लिए श्रद्धा और पिकनिक का प्रमुख स्थल बन चुका है |


शिवलिंग पर जल, बिल्व पत्र और आक क्यूं चढ़ाते हैं ?

शिवलिंग पर जल, बिल्व पत्र और आक क्यूं चढ़ाते हैं ?
भारत का रेडियोएक्टिविटी मैप उठा लो तो हैरान हो जाओगे की भारत सरकार के नुक्लिएर रिएक्टर के अलावा सभी ज्योत्रिलिंगो के स्थानों पर सबसे ज्यादा रेडिएशन पाया जाता है | शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि न्यूक्लिअर रिएक्टर्स ही हैं तभी उनपर जल चढ़ाया जाता है ताकि वो शांत रहे। महादेव के सभी प्रिय पदार्थ जैसे किए बिल्व पत्र, आक, आकमद, धतूरा, गुड़हल, आदि सभी न्यूक्लिअर एनर्जी सोखने वाले हैं | क्यूंकि शिवलिंग पर चढ़ा पानी भी रिएक्टिव हो जाता है तभी जल निकासी नलिका को लांघा नहीं जाता | भाभा एटॉमिक रिएक्टर का डिज़ाइन भी शिव लिंग की तरह है |
शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल नदी के बहते हुए जल के साथ मिल कर औषधि का रूप ले लेता है | तभी हमारे बुजुर्ग हम लोगों से कहते कि महादेव शिव शंकर अगर नराज हो जाएं गे तो प्रलय आ जाए गी |
ज़रा गौर करो, हमारी परम्पराओं के पीछे कितना गहन विज्ञान छिपा हुआ है | ये इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारी परम्पराओं को समझने के लिए जिस विज्ञान की आवश्यकता है वो हमें पढ़ाया नहीं जाता और विज्ञान के नाम पर जो हमें पढ़ाया जा रहा है उस से हम अपनी परम्पराओं को समझ नहीं सकते |
जिस संस्कृति की कोख से हमने जन्म लिया है वो सनातन है, विज्ञान को परम्पराओं का जामा इसलिए पहनाया गया है ताकि वो प्रचलन बन जाए और हम भारतवासी सदा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें |
ॐ नमः शिवाय