Wednesday, September 15, 2010

गणेशजी को दूर्वा, शमीपत्र तथा मोदक चढ़ाने का रहस्य -

गणेशजी को तुलसी छोड़कर सभी पत्र-पुष्प प्रिय हैं। अतः सभी अनिषिद्ध पत्र-पुष्प इन पर चढ़ाये जा सकते हैं। तुलसीं वर्जयित्वा सर्वाण्यपि पत्रपुष्पाणि गणपतिप्रियाणि। (आचारभूषण) गणपति को दूर्वा अधिक प्रिय है। अतः इन्हें सफेद या हरी दूर्वा अवश्य चढ़ानी चाहिये। दूर्वा की फुनगी में तीन या पाँच पत्ती होनी चाहिये।

हरिताः श्वेतवर्णा वा पंचत्रिपत्रसंयुताः। दूर्वांकुरा मया दत्ता एकविंशतिसम्मिताः।। (गणेशपुराण)

भगवान् गणेशजी को 3 या 5 गांठ वाली दूर्वा (दूब-घास) अर्पण करने से वह प्रसन्न होते हैं और भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। पूजा के अवसर पर दूर्वा-युग्म अर्थात् दो दूर्वा तथा होम के अवसर पर तीन दूर्वाओं के ग्रहण का विधान तन्त्रशास्त्र में मिलता है। जीव सुख और दुःख भोगने के लिये जन्म लेता है। इस सुख और दुःख रूप द्वन्द को दूर्वा-युग्म से समर्पण किया जाता है। होम के अवसर पर तीन दूर्वाओं का ग्रहण इस तात्पर्य का अवगमक है – आवण, कार्मण और मायिक रूपी तीन मलों को भस्मीभूत करना। इसके सम्बन्ध में पुराण में एक कथा का उल्लेख मिलता है – ‘‘एक समय पृथ्वी पर अनलासुर नामक राक्षस ने भयंकर उत्पात मचा रखा था। उसका अत्याचार पृथ्वी के साथ-साथ स्वर्ग और पाताल तक फैलने लगा था। वह भगवद् भक्ति व ईश्वर आराधना करने वाले ऋषि-मुनियों और निर्दोष लागों को जिन्दा निगल जाता था। देवराज इन्द्र ने उससे कई बार युद्ध किया, लेकिन उन्हें हमेशा पराजित होना पड़ा। अनलासुर से त्रस्त होकर समस्त देवता भगवान् शिव के पास गए। उन्होंने बताया कि उसे सिर्फ गणेशजी ही खत्म कर सकते हैं, क्योंकि उनका पेट बड़ा है इसलिये वे उसको पूरा निगल लेंगे। इस पर देवताओं ने गणेश की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। गणेशजी ने अनलासुर का पीछा किया और उसे निगल गए। इससे उनके पेट में काफी जलन होने लगी। अनेक उपाय किए गए, लेकिन ज्वाला शांत नहीं हुई। जब कश्यप ऋषि को यह बात मालूम हुई, तो वे तुरन्त कैलाश गये और 21 दूर्वा एकत्रित कर एक गांठ तैयार कर गणेशजी को खिलाई, जिससे उनके पेट की ज्वाला तुरन्त शांत हो गई।

शमी-वृक्ष को ‘वह्निवृक्ष’ भी कहते हैं। वह्निपत्र गणपति के लिये प्रिय वस्तु है। यह शिव का द्योतक है। यहाँ ज्ञातव्य है कि भूततत्त्वरूपी गणेश का मूलाधार स्थान है। इस प्रकार जानकर वह्निपत्र से विनायक को पूजने से जीव ब्रह्मभाव को प्राप्त कर सकता है।

श्रीगणेशजी को ‘मोदकप्रिय’ कहा जाता है। वे अपने एक हाथ में मोदक पूर्ण पात्र रखते हैं। ‘मन्त्र महार्णव’ में उन्मत्त उच्छिष्टगणपति का वर्णन है - चतुर्भुजं रक्ततनुं त्रिनेत्रं पाशंकुशौ मोदकपात्रदन्तौ। करैर्दधानं सरसीरूहस्थमुन्मत्तमुच्छिष्टगणेशमीडे।।

‘मन्त्र महार्णव’ में एक ध्यान में श्रीगणेश की सूँड के अग्रभाग पर मोदक भूषित है - कवषाणाकुंशावक्षसूत्रं च पाशं दधानं करैर्मोदकं पुष्करेण। स्वपत्न्या युतं हेमभूषाम्बराढ्यं गणेशं समुद्यद्दिनेशाभमीडे।।

मोदक को महाबुद्धि का प्रतीक बताया गया है। त्रिवेन्द्रम् में स्थापित केवल गणपति मूर्ति के हाथों में अंकुश, पाश, मोदक और दाँत शोभित है। मोदक आगे के बाँये हाथ में सुशोभित है। मोदक धारी गणेश का चित्रण है - …………………………………………रूपमादधे। चतुर्भुजं महाकायं मुकुटाटोपमस्तकम्। परशुं कमलं मालां मोदकानावहत्।। (गणेशपु., उपा. 21। 22)

हिमाचल ने भगवती पार्वती को श्रीगणेश का ध्यान करने की जो विधि बतायी है, उसमें उन्होनें मोदक का उल्लेख किया है - एकदन्तं शूपकर्णं गजवक्त्रं चतुर्भुंजं।। पाशांकुशधरं देवं मोकान् बिभ्रतं करै। (गणेशपु., उपा. 49। 21-22)

पद्मपुराण के अनुसार (सृष्टिखण्ड 61। 1 से 63। 11) – एक दिन व्यासजी के शिष्य महामुनि संजय ने अपने गुरूदेव को प्रणाम करके प्रश्न किया कि गुरूदेव! आप मुझे देवताओं के पूजन का सुनिश्चित क्रम बतलाइये। प्रतिदिन की पूजा में सबसे पहले किसका पूजन करना चाहिये ? तब व्यासजी ने कहा – संजय विघ्नों को दूर करने के लिये सर्वप्रथम गणेशजी की पूजा करनी चाहिये। पूर्वकाल में पार्वती देवी को देवताओं ने अमृत से तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक दिया। मोदक देखकर दोनों बालक (स्कन्द तथा गणेश) माता से माँगने लगे। तब माता ने मोदक के प्रभावों का वर्णन कर कहा कि तुममें से जो धर्माचरण के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आयेगा, उसी को मैं यह मोदक दूँगी। माता की ऐसी बात सुनकर स्कन्द मयूर पर आरूढ़ हो मुहूर्तभर में सब तीर्थों की स्न्नान कर लिया। इधर लम्बोदरधारी गणेशजी माता-पिता की परिक्रमा करके पिताजी के सम्मुख खड़े हो गये। तब पार्वतीजी ने कहा- समस्त तीर्थों में किया हुआ स्न्नान, सम्पूर्ण देवताओं को किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब प्रकार के व्रत, मन्त्र, योग और संयम का पालन- ये सभी साधन माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते। इसलिये यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणों से भी बढ़कर है। अतः देवताओं का बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेश को ही अर्पण करती हूँ। माता-पिता की भक्ति के कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञ में सबसे पहले पूजा होगी। तत्पश्चात् महादेवजी बोले- इस गणेश के ही अग्रपूजन से सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हों।

गणपत्यथर्वशीर्ष में लिखा है - ‘‘यो दूर्वाकुंरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति, स मेधावान् भवति। यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वांछितफलमवाप्नोति।……………….’’ अर्थात् ‘जो दूर्वाकुंरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा (धान-लाई) के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, मेधावान् होता है। जो सहस्त्र (हजार) मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है।’ श्री गणपति की दूर्वाकुंर से प्रियता तथा मोदकप्रियता को प्रदर्शित करता है। देवताओं ने मोदकों से विघ्नराज गणेश की पूजा की थी- ‘लड्डुकैश्च ततो देवैर्विघ्ननाथस्समर्चितः।। (स्कन्दपु., अवन्ती. 36। 1) उपरोक्त पौराणिक आख्यान से गणेश जी की मोदकप्रियता की पुष्टि होती है। गणेशजी को मोदक यानी लड्डू काफी प्रिय हैं। इनके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी ही मानी जाती है।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय पत्रिका – 1 में कहा है - गाइये गनपति जगबंदन। संकर-सुवन भवानी-नंदन।। सिद्धि-सदन गज बदन विनायक। कृपा-सिंधु सुन्दर सब लायक।। मोदकप्रिय मुद मंगलदाता। विद्या वारिधि बुद्धि विधाता।। श्रीज्ञानेश्वरजी ने शब्दब्रह्म गणेश के रूप-वर्णन में उनके हाथ में शोभित मोदक को परम मधुर अद्वैत वेदान्त का रूपक बताया है - ‘वेदान्तु तो महारसु। मोदक मिरवे।’ (ज्ञानेश्वरी 1। 11) प्रसिद्ध श्रीगणेश आरती में जन-जन गाता है – ‘…………..लडुवन का भोग लगे संत करे सेवा।’ पं. श्रीपट्टाभिराम शास्त्री, मीमांसाचार्य ने कल्याण श्रीगणेश अंक वर्ष 48 अंक 1 पृष्ठ 151-152 पर गणेशजी को दूर्वा, शमीपत्र तथा मोदक चढ़ाने का रहस्य की अत्यन्त सुन्दर व्याख्या की है - ‘………………मोद-आनन्द ही मोदक है -‘आनन्दो मोदः प्रमोदः’ श्रुति है। इसका परिचायक है – ‘मोदक’। मोदक का निर्माण दो-तीन प्रकार से होता है। कई लोग बेसन को भूँजकर चीनी की चासनी बनाकर लड्डू बनाते हैं। इसको ‘मोदक’ कहते हैं। यह मूँग के आटे से भी बनाया जाता है। कतिपय लोग गरी या नारियल के चूर्ण को गुड़-पाक कर, गेहूँ, जौ या चावल से आटे को सानकर कवच बनाकर, उसमें सिद्ध गुड़पाक को थोड़ा रखकर घी में तल लेते हैं या वाष्प से पकाते हैं। आटे के कवच में जिस गुड़पाक को रखते हैं, उसका ‘पूर्णम्’ नाम है। ‘पूर्णम्’ से 51 संख्या निकलती है। यह संख्या अकारादि 51 अक्षरों की परिचायिका है। यही तन्त्रशास्त्र में ‘मातृका’ कहलाती है। ‘न क्षरजीति अक्षरम्’ – नाशरहित परिपूर्ण सच्चिदानन्द ब्रह्मशक्ति का यह द्योतक है। पूर्ण ब्रह्मतत्त्व माया से आच्छादित होने से वह दीखता नहीं, यह हमें ‘मोदक’ सिखलाता है। गुड़पाक आनन्दप्रद है। उसको आटे का कवच छिपाता है। वह आस्वाद से ही गम्य है, इसी प्रकार ब्रह्मतत्त्व स्वानुभवैक-गम्य है। विनायक भगवान् के हाथ में इस मोदक को रखते हैं तो वे स्वाधीनमाय, स्वाधीनप्रपंच आदि शब्दों में व्यवहृत होते है।’




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