Monday, December 12, 2011

ज्ञान-दायिनी सिद्ध देवी-स्तुति

श्रीमद्-देवी-भगवत की ज्ञान-दायिनी सिद्ध देवी-स्तुति

नमो देव्यै प्रकृत्यै च, विधात्र्यै सततं नमः ।

कल्याण्यै कामदायै च, वृद्ध्यै सिद्ध्यै नमो नमः ।।१

सच्चिदानन्द-रुपिण्यै, संसारारणये नमः ।

पञ्च-कृत्य-विधात्र्यै ते, भुवनेश्यै नमो नमः ।।२

सर्वाधिष्ठान-रुपायै, कूटस्थायै नमो नमः ।

अर्ध-मात्रार्थ-भूतायै, हृल्लेखायै नमो नमः ।।३

प्रकृति-रुपिणी, विधातृ-रुपा, कल्याण-स्वरुपा, कामनाओं को देनेवाली, सिद्धा वृद्धा देवी को सर्वदा नमस्कार ।

सत्, चित् और आनन्द-स्वरुपिणी, संसार की पालिका, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु को बनाने वाली, तीनों लोकों की ऐश्वर्य-स्वरुपा देवी को नमस्कार ।

अखिल-विश्व के स्थावर और जंगम पदार्थों की निवास-स्वरुपा और परिपूर्णा देवी को नमस्कार । अर्ध-मात्रा वाले अक्षरों के अर्थ को धारण करने वाली और हृदय-देश में लेखन-शक्ति के रुप में निवास करने वाली देवी को नमस्कार ।।

ज्ञातं मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टम्, त्वत्तोऽस्य सम्भव-लयावपि मातरद्य ।

शक्तिश्च तेऽस्य करणे वितत-प्रभावा , ज्ञाताऽधुना सकल लोकमयोति नूनम् ।।४

विस्तार्य सर्वमखिलं सदसद्-विकारम्, सन्दर्शयस्यविकलं पुरुषाय काले ।

तत्त्वैश्च षोडशभिरेव च सप्तभिश्च, भासीन्द्र-जालमिव नः किल रञ्जनाय ।।५

हे मां ! आज मुझे मालूम हो गया कि यह सारा विश्व तुममें ही निवास करता है । इस विश्व का तुमसे ही जन्म होता है और तुममें ही इसका विलयन भी हो जाता है । तुम्हारी शक्ति ही जगत् को विस्तृत कर डालती है । अतः तुम अवश्य ही लोक-मयी हो, मैंने आज और अब समझा है ।

हे मां ! अखिल विश्च को तूने विस्तार कर सुन्दर और असुन्दर विकारों को समय-समय पर अविकल रुप में दिखाया है । अपनी षोडश कलाओं तथा सातों रुपों द्वारा जगत् को इस चमत्कार पूर्ण ढंग से तू दिखायी है कि जगत्-वासी प्राणियों को मालूम पड़ता है कि यह एक इन्द्र-जाल जादू का तमाशा है । इससे जग के प्राणियों का मनोरञ्जन ही होता है ।

न त्वामृते किमपि वस्तु-गतं विभाति, व्याप्येव सर्वमखिलं त्वमवस्थिताऽसि ।

शक्तिं बिना व्यवहृतौ पुरुषोऽप्यशक्तः, बम्भण्यते जननि ! बुद्धि-मता जनेन ।।६

प्रीणाऽसि विश्वमखिलं सततं प्रभावैः, स्वैस्तेजसा च सकलं प्रकटी करोषि ।

अत्स्येव देवि ! तरसा किल कल्प-काले, को वेद देवि ! चरितं तव वैभवस्य ।।७

हे मां ! कोई भी वस्तु संसार में तुम्हारे बिना शोभा नहीं पाती । इसी से ज्ञात होता है कि तुम समस्त संसार को अपने में समेट कर विराजमान होकर बैठी हो । बुद्धिमान् लोग इसीलिए कहा करते हैं कि सांसारिक व्यवहार में जब तक पुरुष को शक्ति का सहयोग नहीं मिलता, तब तक पुरुष अशक्त और लाचार है । हे देवि ! तुम अपने प्रभाव के द्वारा समस्तविश्व का सदा पोषण करती हो और अपने तेज से पूरे जगत् को प्रकट करती हो तथ प्रलय के समय तू ही सम्पूर्ण संसार का संहार भी कर डालती हो । इसलिए तुम्हारे इस विचित्र वैभव और चरित को भला कौन जान सकता है ?

याचेम्ब ! तेऽघ्रिं-कमलं प्रणिपत्यकामम्, चित्ते सदा वसतु रुपमिदं तवैतत् ।

नामापि वक्त्र-कुहरे सततं तवैव, सन्दर्शनं तव पदाम्बुजयोः सदैव ।।८

विद्या त्वमेव ननु बुद्धि-मतां नराणाम्, शक्तिस्त्वमेव किल शक्ति-मतां सदैव ।

त्वं कीर्ति-कान्ति-कमलामल-तुष्टि-रुपा, मुक्ति-प्रदा विरतिरेव मनुष्य-लोके ।।९

हे मां ! मैं तुम्हारे चरण-कमलों पर नत-मस्तक होकर प्रार्थना करता हूँ, तुम्हारा यह रुप मेरे हृदय में सदा निवास करे । हे देवि ! तुम्हारा ही नाम मेरे मुख-रुपी गुफा में सदा गूंजता रहे और मेरी आँखें तुम्हारे ही चरण-कमलों को सदैव देखा करें ।

हे जननी ! बुद्धिमान् पुरुषों की विद्या तू ही है, शक्ति-वानों की भी निश्चय ही सदा शक्ति तू ही रही है । तू ही मनुष्यों की कीर्ति, शोभा, लक्ष्मी और निर्मल तुष्टि है तथा इस मनुष्य-लोक में मुक्ति देनेवाली विरति भी तू ही है ।

गायत्र्यसि प्रथम वेद-कला त्वमेव, स्वाहा स्वधा भगवती सगुणार्ध-मात्रा ।

आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्या, सञ्जीवनाय सततं सुर-पूर्वजानाम् ।।१०

मोक्षार्थमेव रचयस्यखिलं प्रपञ्चम्, तेषां खलु यतो ननु जीव-भावम् ।

अंशा अनादि निधनस्य किलानघस्य, पूर्णार्णवस्य वितता हि यथा तरंगा ।।११

हे मां ! गायत्री तू ही है । वेद की प्रथम विद्या तू ही है । स्वाहा, स्वधा, भगवती सगुण अर्ध-मात्रा भी तू ही है । तुम्हारे प्रभाव से सम्पूर्ण शास्त्र-पुराण उत्पन्न हुए है, जो आदि-काल से ही देवताओं के पूर्वजों को भी सञ्जीवन देते आ रहे हैं ।

हे देवि ! तुम हम लोगों के लिए ही विश्व की रचना करती हो, जिससे तुम्हारे भक्त मुक्त हो जाए । तू उस निष्पाप, अनादि, पूर्ण समुद्र की तरह गम्भीर है और संसार के ये प्राणी तरंग की तरह तुमसे ही निकलते और तुममें ही पुनः विलीन हो जाते हैं ।

जीवो यदा तु परि-वेत्ति तवैव कृत्यम्, त्वं संहरस्यखिलमेतदिति प्रसिद्धम् ।

नाट्यं नटेन रचितं वितथेऽन्तरंगे, कार्ये कृते विरमसे प्रथित-प्रभावा ।।१२

हे जननि ! जब जीव को तुम्हारा कृत्य मालूम हो जाता है कि तू ही सम्पूर्ण प्रसिद्ध विश्व का संहार करती है, तो तुम्हारे भक्तों को यह भी मालूम हो जाता है कि तुम इस जगत् को नाटक की तरह अभिनय बनाकर रखती हो और एक नाटक-कार की तरह अपना नाट्य यहाँ विश्व के पर्दे पर कर दिखाती हो । तब तक न तो स्वयं विराम लेती है और न विश्व को ही चैन लेने देती है, यह बात अब समझ में आ गयी माँ ! क्योंकि तु विख्यात प्रभाव-शालिनी है ।

त्राता त्वमेव मम मोह-मयाद् भवाब्धेः, त्वामम्बिके ! सततमेमि महाऽऽर्तिहे च ।

रागादिभिर्विरचिते वितथे किलान्ते, मामेव पाहि बहु-दुःख-करे च काले ।।१३

नमो देवि महा-विद्ये ! नमामि चरणौ तव । सदा ज्ञान-प्रकाशं मे, देहि सर्वार्थदे शिवे ! ।।१४

हे मां ! मोह से परिपूर्ण इस संसार-समुद्र में मेरी रक्षा करनेवाली तू ही है । तू ही सब दुःखों को दूर करनेवाली है । संसार में जब रागात्मक वृत्ति बढ़ जाती है, तो उससे विनाश के समय अन्त में तू ही बचाती है । इस दुःख की घड़ी में मेरी रक्षा करो । हे देवि ! तू महा-विद्या है । मैं तुम्हारे चरणों को नमस्कार करता हूँ । हे सर्वार्थ-दायिनि देवि ! सदा मुझे ज्ञान का प्रकाश दो ।।

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