Monday, August 20, 2012

मां छिन्नमस्तिका


मां छिन्नमस्तिका




झारखंड की राजधानी रांची से 75 किमी स्थित मां छिन्नमस्तिका का विख्यात सिद्धपीठ दस महा विद्याओं  में से एक है. रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित यह मंदिर रामगढ़, बिहार, झारखंड, बंगाल और छत्तीसगढ़ के भक्तों की आस्था की धरोहर है. इस मंदिर को दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में भी मान्यता है.
मंदिर के निर्माण के बारे में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं. कुछ लोगों का कहना है कि मां छिन्नमस्तिका के इस शक्तिपीठ का निर्माण छह हजार वर्ष पहले हुआ था. वहीं कोई इसे महाभारत युग का मानता है. मां छिन्नमस्तिका के दर्शन करने वाले श्रद्धालुओं की मानें, तो मां का प्राचीन मंदिर सालों पहले ही नष्ट हो गया था, लेकिन भक्तों की श्रद्धा के चलते इसे एक बार फिर नया रूप देकर नये मंदिर का निर्माण किया गया. हां, मगर पुराने मंदिर की प्राचीन प्रतिमा आज भी यहां मौजूद है. यह मूल प्रतिमा कितनी पुरानी है. इसका कोई सही प्रमाण नहीं मिल पाया है.
मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में मां की तीन आंखें बनीं हैं. बायां पांव आगे की ओर बढ़ाये हुए मां कमल के पुष्प पर खड़ी हैं. पांव के नीचे रति मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में लेटे हैं. मां छिन्नमस्तिका के गले में सर्प की माला और मुंडमाला सुशोभित है. उनके दाएं हाथ में तलवार और बाएं हाथ में अपना ही कटा हुआ मस्तक है.
मां की शिला के अगल-बगल उनकी सहचरियां डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं, जिन्हें मां अपना रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं. इनके गले से रक्त की तीन धाराएं बह रही हैं. बिखरे और खुले बाल, बाहर निकली जीभ और आभूषणों से सजी मां..
पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि एक बार भगवती भवानी अपनी दो सहचरियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने आयी थीं. स्नान करने के बाद मां के संग आयी दोनों सहचरियों को बहुत तेज भूख लग गयी और भूख की पीड़ा से उनका रंग काला हो गया. सहचरियों ने भोजन के लिए भवानी से कुछ मांगा. भवानी ने उनसे कुछ देर प्रतीक्षा करने के लिए कहा, लेकिन वे भूख से तड़पने लगीं. तभी सहचरियों ने मां से अनुरोध करते हुए कहा कि मां तो अपने हर काम को भूलकर अपने भूखे शिशु को भोजन कराती है.
सहचरियों का यह कथन सुनते ही भवानी ने खड़ग से अपना सिर काट दिया. कटा हुआ सिर उनके बायें हाथ में आ गिरा और तीन रक्तधाराएं बह निकली. सिर से निकली दो रक्त धाराओं को उन्होंने सहचरियों की और प्रवाहित कर दिया. मां के रक्त का पान कर दोनों सहचरियां तृप्त हो गयीं. तीसरी धारा जो ऊपर की ओर बह रही थी, उसका मां स्वयं पान करने लगीं. तभी से मां इस रूप को छिन्नमस्तिका के नाम से पूजा जाने लगा.
मां छिन्नमस्तिका की पूजा-अर्चना के लिए मंदिर में सुबह के चार बजे से ही माता का दरबार सजना शुरू हो जाता है. भक्तों की भीड़ पंक्तिबद्ध होकर मां के दर्शन करना शुरू कर देती है. खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर यहां भक्तों की तीन-चार किलोमीटर लंबी लाइन नजर आती है. मंदिर के आसपास ही फल-फूल, प्रसाद की कई छोटी दुकानें हैं. आमतौर पर लोग यहां सुबह आते हैं. दिनभर पूजा-पाठ और मंदिर के दर्शन करने के बाद शाम तक मां के दर्शन करके लौट जाते हैं. -

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