Saturday, June 29, 2013

पूजा-आराधना में हमारे भाव और हमारे कर्म



पूजा-आराधना में हमारे भाव और हमारे कर्म कैसे होना चाहिए।
* एक कार्य की तरह न हो पूजा।
* एक भार की तरह न हो पूजा।
* एक अहसान की तरह न हो पूजा।
* अहं भाव का पोषण न हो पूजा।
* एक आडम्बर न हो पूजा।
* अपने कर्मों का लेखा-जोखा न हो पूजा।
* अपनी कामनाओं की पूर्ति का घर न हो पूजा।
* परमात्मा से अपने प्रेम का दिखावा न हो पूजा।


* समय सीमा में बँधी न हो पूजा।
* पौधे और फूल का विग्रह न हो पूजा।
* तन को तकलीफ देने वाली न हो पूजा।
* जन्म की पहली श्वास से अंतिम श्वास तक परमात्मा को धन्यवाद देती हो पूजा।
* जीवन की प्रत्येक श्वास पर परमात्मा के लिए प्यार हो पूजा।
* नयनों का प्रत्येक दृश्य परमात्मा का आभास हो पूजा।
* मन का प्रत्येक विचार परमात्मा का साथ हो पूजा।
* प्रातःकाल की सबसे पहली साँस परमात्मा की मुलाकात हो पूजा।
* हर साँस परमात्मा की आस हो पूजा।
* प्रत्येक प्राणी में उसका आभास हो पूजा।
* प्रत्येक कर्म में उसकी शक्ति का अहसास हो पूजा।

* प्रत्येक कष्ट में उसकी परम निकटता का अहसास हो पूजा।
* अपना प्रत्येक पाप उसको भुलाने का अहसास हो पूजा।
* जीवन में मिले सुखों और दुःखों में उसके परम प्यार का अहसास हो पूजा।
* नियमों और कायदों में बँधी न हो पूजा, बस उसके और मेरे प्यार का अहसास भर हो पूजा।
* मेरी और उनकी (परमात्मा) की एकांत और गहन मुलाकात हो पूजा।
* दोनों को एक-दूसरे की समान तीव्र तड़प हो यही सार्थक पूजा।
कुछ ऐसी ही बातों को रोजमर्रा के जीवन में शामिल करके हम आराधना को सार्थक बना सकते हैं।

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