Sunday, February 6, 2011

माँ छिन्नमस्तिके मंदिर

माँ छिन्नमस्तिके मंदिर

रजरप्पा का माँ छिन्नमस्तिके मंदिर

कामाख्या के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात माँ छिन्नमस्तिके मंदिर काफी लोकप्रिय है। झारखंड की राजधानी राँची से लगभग 79 किलोमीटर की दूरी पर माँ छिन्नमस्तिके का यह मंदिर है। रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित माँ छिन्नमस्तिके मंदिर आस्था की धरोहर है। रजरप्पा केवल एक मंदिर के लिए ही विख्यात नहीं है।

छिन्नमस्तिके मंदिर के अलावा यहाँ महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंगबली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर के नाम से कुल सात मंदिर हैं। पश्चिम दिशा से दामोदर तथा दक्षिण दिशा से कल-कल करती भैरवी नदी का दामोदर में मिलना मंदिर की खूबसूरती में चार चाँद लगा देता है।

दामोदर और भैरवी के संगम स्थल के समीप ही माँ छिन्नमस्तिके का मंदिर स्थित है। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है। मंदिर के निर्माण काल के बारे में पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है। किसी के अनुसार मंदिर का निर्माण छह हजार वर्ष पहले हुआ था तो कोई इसे महाभारत युग का मानता है। यह दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। असम स्थित माँ कामाख्या मंदिर को सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है। मंदिर में बड़े पैमाने पर विवाह भी संपन्न कराए जाते हैं।

मंदिर में प्रातःकाल चार बजे माता का दरबार सजना शुरू होता है। भक्तों की भीड़ भी सुबह से पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है। खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर भक्तों की तीन-चार किलोमीटर लंबी लाइन लग जाती है। इस भीड़ को संभालने और माता के दर्शन को सुलभ बनाने के लिए कुछ माह पूर्व पर्यटन विभाग द्वारा गाइडों की नियुक्ति की गई है। आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय पुलिस भी मदद करती है। मंदिर के आसपास ही फल-फूल, प्रसाद की कई छोटी-छोटी दुकानें हैं। आमतौर पर लोग यहाँ सुबह आते हैं और दिनभर पूजा-पाठ और मंदिरों के दर्शन करने के बाद शाम होने से पूर्व ही लौट जाते हैं। ठहरने की अच्छी सुविधा यहाँ अभी उपलब्ध नहीं हो पाई है।

माँ छिन्नमस्तिके मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में माँ की तीन आँखें हैं। बायाँ पाँव आगे की ओर बढ़ाए हुए वह कमल पुष्प पर खड़ी हैं। पाँव के नीचे विपरीत रति मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में हैं। माँ छिन्नमस्तिके का गला सर्पमाला तथा मुंडमाल से सुशोभित है। बिखरे और खुले केश, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सुसज्जित माँ नग्नावस्था में दिव्य रूप में हैं। दाएँ हाथ में तलवार तथा बाएँ हाथ में अपना ही कटा मस्तक है। इनके अगल-बगल डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं जिन्हें वह रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं। इनके गले से रक्त की तीन धाराएँ बह रही हैं।

मंदिर का मुख्य द्वारा पूरब मुखी है। मंदिर के सामने बलि का स्थान है। बलि-स्थान पर प्रतिदिन औसतन सौ-दो सौ बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। मंदिर की ओर मुंडन कुंड है। इसके दक्षिण में एक सुंदर निकेतन है जिसके पूर्व में भैरवी नदी के तट पर खुले आसमान के नीचे एक बरामदा है। इसके पश्चिम भाग में भंडार गृह है। रूद्र भैरव के मंदिर के नजदीक एक कुंड है। मंदिर की भित्ति 18 फुट नीचे से खड़ी की गई है। नदियों के संगम के मध्य में एक अद्भुत पापनाशिनी कुंड है जो रोगग्रस्त भक्तों को रोगमुक्त कर उनमें नवजीवन का संचार करता है।

यहाँ मुंडन कुंड, चेताल के समीप ईशान कोण का यज्ञ कुंड, वायु कोण कुंड, अग्निकोण कुंड जैसे कई कुंड हैं। दामोदर के द्वार पर एक सीढ़ी है। इसका निर्माण 22 मई, 1972 को संपन्न हुआ था। इसे तांत्रिक घाट कहा जाता है जो 20 फुट चौड़ा तथा 208 फुट लंबा है। यहाँ से भक्त दामोदर में स्नान कर मंदिर में जा सकते हैं। दामोदर और भैरवी नदी का संगम स्थल भी अत्यंत मनोहारी है। भैरवी नदी स्त्री नदी मानी जाती है जबकि दामोदर पुरुष। संगम स्थल पर भैरवी नदी ऊपर से नीचे की ओर दामोदर नदी के ऊपर गिरती है। कहा जाता है कि जहाँ भैरवी नदी दामोदर में गिरकर मिलती है उस स्थल की गहराई अब तक किसी को पता नहीं है।

माँ छिन्नमस्तिके की महिमा की कई पुरानी कथाएँ प्रचलित हैं। प्राचीन काल में छोटानागपुर में रज नामक एक राजा राज करते थे। राजा की पत्नी का नाम रूपमा था। इन्हीं दोनों के नाम से इस स्थान का नाम रजरूपमा पड़ा जो बाद में रजरप्पा हो गया। एक कथा के अनुसार एक बार पूर्णिमा की रात में शिकार की खोज में राजा दामोदर और भैरवी नदी के संगम स्थल पर पहुँचे।

रात्रि विश्राम के दौरान राजा ने स्वप्न में लाल वस्त्र धारण किए तेज मुखमंडल वाली एक कन्या देखी। उसने राजा से कहा - हे राजन, इस आयु में संतान न होने से तेरा जीवन सूना लग रहा है। मेरी आज्ञा मानोगे तो रानी की गोद भर जाएगी। राजा की आंखें खुलीं तो वह इधर-उधर भटकने लगे। इस बीच उनकी आँखें स्वप्न में दिखी कन्या से जा मिलीं। वह कन्या जल के भीतर से राजा के सामने प्रकट हुई। उसका रूप अलौकिक था। यह देख राजा भयभीत हो उठे।

राजा को देखकर देख वह कन्या कहने लगी- हे राजन, मैं छिन्नमस्तिके देवी हूँ। कलियुग के मनुष्य मुझे नहीं जान सके हैं जबकि मैं इस वन में प्राचीन काल से गुप्त रूप से निवास कर रही हूँ। मैं तुम्हें वरदान देती हूँ कि आज से ठीक नौवें महीने तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। हे राजन, मिलन स्थल के समीप तुम्हें मेरा एक मंदिर दिखाई देगा। इस मंदिर के अंदर शिलाखंड पर मेरी प्रतिमा अंकित दिखेगी। तुम सुबह मेरी पूजा कर बलि चढ़ाओ। ऐसा कहकर छिन्नमस्तिके अंतर्ध्यान हो गईं।

इसके बाद से ही यह पवित्र तीर्थ रजरप्पा के रूप में विख्यात हो गया। एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवती भवानी अपनी सहेलियों जया और विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं। स्नान करने के बाद भूख से उनका शरीर काला पड़ गया। सहेलियों ने भी भोजन माँगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने को कहा। बाद में सहेलियों के विनम्र आग्रह पर उन्होंने दोनों की भूख मिटाने के लिए अपना सिर काट लिया। कटा सिर देवी के हाथों में आ गिरा व गले से तीन धाराएँ निकलीं। वह दो धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं। तभी से ये छिन्नमस्तिके कही जाने लगीं।

रजरप्पा के स्वरूप में अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। तीर्थ स्थल के अलावा यह पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो चुका है। आदिवासियों के लिए यह त्रिवेणी है। मकर संक्रांति के मौके पर लाखों श्रद्धालु आदिवासी और भक्तजन यहाँ स्नान व चौडाल प्रवाहित करने तथा चरण स्पर्श के लिए आते हैं।

No comments:

Post a Comment