Tuesday, October 9, 2012

धार्मिक क्रियाकलापों का वैज्ञानिक महत्त्व

धार्मिक क्रियाकलापों का वैज्ञानिक महत्त्व
 हमारा पूरा ब्रह्मांड ऊर्जा के प्रवाह पर ही आधारित है। ऊर्जा अलग-अलग रंगों की कंपन शक्ति से मिलकर कहीं अधिक, कहीं कम, कहीं सकारात्मक तथा कहीं नकारात्मक रूप में प्रवाह होती रहती है। यदि ऊर्जा का प्रवाह हमारे शरीर, घर, मंदिर या किसी भी स्थान पर असंतुलित होता है, तो वह किसी भी सजीव वस्तु के लिए शारीरिक या मानसिक असंतुलन पैदा करने का कारण होता है। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनियों को हर प्रकार की ऊर्जा के बारे में ज्ञात था, इसीलिए उन्होंने हमारी पूजा के क्रियाकलाप या धार्मिक क्रियाकलाप को इस तरह से बनाया कि वह हमारी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा को सकारात्मक तरीके से संतुलित बनाये रखता है। इसी प्रकार कुछ ऐसे पशुओं व पेड़ों को पहचान लिया था  जिनका ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा क्षेत्र से दोगुना या चैगुना बड़ा है | ऐसे पशुओं व वृक्षों को  हमारी धार्मिक क्रिया में शामिल किया गया था।
     नकारात्मक ऊर्जाएं हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित करती हैं। यदि हम नकारात्मक विचार रखते हैं, तो मानसिक अस्थिरता का कारण होते हैं और हमारे शरीर की कंपन शक्ति में बदलाव आता  है। न केवल हमारे शरीर में, बल्कि यह हमारे घर के वातावरण को भी प्रभावित करती है क्योंकि यह नकारात्मक विचार एक कंपन शक्ति के रूप में प्रवाह करते हैं। हमारी मानसिक स्थिति वास्तु  दोष की तीव्रता को दोगुना या
चौगुना कर देती है। हमारे नकारात्मक विचार कंपन शक्ति के रूप में उसमें जुड़ते रहते हैं | इसी तरह से रत्नों  तंत्र-मंत्र तथा यंत्रो मे भी सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा होती है |
      घर में प्रतिदिन हम दीपक जलाते हैं, दीपक जलाते समय हम गाय का घी, सरसों का तेल या तिल का तेल आदि प्रयोग करते हैं। इसका वैज्ञानिक कारण यह है, कि गाय का घी सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है तथा सरसों का तेल व तिल का तेल नकारात्मक ऊर्जा को खत्म करता है। अतः हमें दीपक जलाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि हम किस उद्देश्य से दीपक जला रहे हैं। हम घर में कपूर भी जलाते हैं , कपूर को जलाने से पहले उसकी कंपन शक्ति कम होती है, परंतु जलाने के बाद उसकी  कंपन शक्ति बढ़ जाती है। तिरुपति भगवान के प्रसाद के लड्डू में भी खाने वाले कपूर का प्रयोग किया जाता है। कपूर वायरस को रोकता है। घर या मंदिर में पूजा करते समय जो हम घंटी बजाते हैं, उस ध्वनि से एक कंपन शक्ति उत्पन्न होती है जो नकारात्मक ऊर्जा को काटती है। इसीलिए घर के हर कोने में घंटी बजानी चाहिए। पूजा में नारियल का भी अपना महत्व है,नारियल को पंचभूतों का प्रतीक माना जाता है। जब हम चोटी वाला नारियल हाथ से पकड़कर तोड़ते हैं, तो हमारी हथेली के सारे एक्यूप्रेशर बिंदुओं पर दवाब पड़ता है।
    इसी प्रकार जब हम किसी को तिलक लगाते हैं  तो उसका भी एक अपना महत्व है। हमारी पांचों अंगुलियां पंचभूतों का प्रतीक हैं। अंगूठा अग्नि का, तर्जनी अंगुली वायु का, मध्यमा अंगुली गगन का, अनामिका पृथ्वी का तथा कनिष्ठिका जल का प्रतीक होती हैं। हम तिलक लगाने में अधिकतर अनामिका अंगुली का प्रयोग करते हैं इसका अर्थ है, कि जिसको तिलक लगा रहे हैं वह भूमि तत्व से जुड़ा रहे। प्राचीन समय में योद्धा जब युद्ध पर जाते थे, तो उन्हें अंगूठे से त्रिकोण के रूप में तिलक लगाया जाता था, अग्नि वाली अंगुली से अग्नि के प्रतीक के रूप में तिलक लगाने से उनके आग्नेय चक्र में अग्नि रूप शक्ति समाहित हो जाती थी, जिससे वह बड़ी वीरता के साथ युद्ध स्थल में युद्ध करते थे। तिलक हमेशा गोलाकार या त्रिकोण (पिरामिड आकार) के रूप में ही लगाया जाता है। पहले समय में तिलक को लगाने के लिए कुमकुम, सिंदूर और केसर को मिलाकर प्रयोग किया जाता था, जिससे बैंगनी रंग की ऊर्जा निकलती थी जो हमारी आग्नेय चक्र की आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाती थी। उस समय स्त्रियां जब तिलक लगाती थीं तथा मांग भरती थीं, तो वह हमारे ऊपर के चक्रों को बैंगनी रंग की ऊर्जा से हमारे आध्यात्मिक चक्रों को ऊर्जा प्रदान करती थी। आजकल हम बिंदी के नाम पर स्टीकर लगाते हैं उसके पीछे जो चिपकाने वाला पदार्थ होता है वह सूअर की चर्बी से बना होता है, जिनको लगाने से हमारी बुद्धि भ्रष्ट होती जा रही है।
    स्त्रियां जो कांच की चूड़ियां पहनती हैं वह सिलीकान  मिट्टी से बनी होती  हैं तथा ये भूमि तत्व का प्रतीक होती हैं। स्त्रियों के ऊपर नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने पर चूड़ियां उस ऊर्जा को अपने ऊपर लेकर टूट जाती है। स्त्रियों की कलाई में गर्भाशय के एक्यूप्रेशर बिदुं भी होते हैं, चूड़ियों के इधर-उधर खिसकने से उन पर दवाब पड़ता रहता है जिससे वे सक्रिय रहते हैं और स्त्रियों को गर्भाशय संबंधी परेशानी का सामना बहुत कम करना पड़ता है | परंतु आजकल फैशन के इस दौर में केवल शादी या पार्टी के समय जब साड़ी पहनते हैं तभी कुछ स्त्रियाँ   कभी-कभी एक-दो घंटे के लिए कांच की चूड़ियां पहन लेती  हैं, अन्यथा इनका प्रयोग विशेषकर शहरों में स्त्रियों ने बिल्कुल ही बंद कर दिया है।यह सब घोर मूर्खता के कारण हो रहा है |
  नवजात शिशु को काली पोत की माला पहनाने से उनपर राहु-केतू व शनि की नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव नहीं होता है। स्त्रियों को कमर से निचले भाग में चांदी का आभूषण पहनने के लिए कहा गया है । इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि चांदी नकारात्मक ऊर्जा को रोकती है, स्त्री का गर्भाशय एक उल्टा पिरामिड शेप में है जिसका नीचे का नुकीला हिस्सा ऊर्जा ऊपर की तरफ खींचता है तथा स्त्री जब गर्भधारण करती है, तब गर्भाशय मूलाधार चक्र से ऊपर की तरफ ऊर्जा खींचता है जो बच्चे के विकास में सहायक होता है। पैरों से होती हुई नकारात्मक ऊर्जा गर्भाशय तक न पहुंचे, उसे रोकने के लिए पैरों में चांदी की पायल तथा कमर बंध का प्रयोग किया जाता था। दक्षिण भारत की स्त्रियां पैरों में हल्दी लगाती हैं, जो नकारात्मक ऊर्जा को रोकने में सहायक होती है। प्राचीन समय में पुरुष भी पैरों में चांदी के मोटे-मोटे कड़े पहनते थे जिसका कारण था कि वे नगें पैर लंबा सफर भी पैदल ही करते थे। पैरों के द्वारा नकारात्मक ऊर्जा उनके शरीर में न आ सके, इसलिए पैरों में चांदी का प्रयोग किया जाता था। हमारे भारत में मेंहदी लगाने का एक विशेष महत्व है। जब मौसम बदलता है तो शरीर की सारी गर्मी निकालने के लिए मेंहदी का प्रयोग हाथ और पैरों में लगाकर करते हैं क्योंकि हाथ-पैरों में हमारे नाड़ियों के बिंदु होते हैं जिसके द्वारा यह ऊर्जा बाहर निकलती है।
   भारत में शादी भी एक उच्चतर वैज्ञानिक प्रक्रिया है। शादी से पहले लड़के और लड़की को हल्दी और बेसन का उबटन लगाया जाता है जो शरीर के अंदर वाली नकारात्मक ऊर्जा को बाहर निकालती है तथा बाहर से आने वाली नकारात्मक ऊर्जा को रोकती है। आग के चारों तरफ भांवर या सात फेरे लेने का भी अपना महत्व है क्योंकि पंचभूतों में अग्नि ही सबसे पवित्र ऊर्जा मानी जाती है। किसी भी वस्तु को शुद्ध करने के लिए उसे आग में तपाया जाता है तथा इच्छानुसार आकार दिया जा सकता है| इसी तरह  वर-वधु एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जब सात फेरे अग्नि के चारों तरफ लेते हैं, तो उन दोनों के बीच की जो नकारात्मक ऊर्जा होती है वह उस अग्नि में भस्म हो जाती है और उनका एक नया रिश्ता आकार लेता है। सात फेरे सात दिन का भी प्रतीक होते हैं। वधू को लाल कपड़े पहनने को कहा जाता है क्योंकि लाल और पीला रंग नकारात्मक शक्ति को रोकता है। शादी के बाद लड़की को काली पोत का मंगल सूत्र पहनाया जाता है जिससे उसको कोई नकारात्मक शक्ति प्रभावित न करे। पूजा स्थल जैसे, मंदिर हमारे यहां सबसे ज्यादा सकारात्मक ऊर्जा का स्थान माना जाता है। यहां पर लोग अपने दुःख-दर्द लेकर आते हैं तथा यहां पर आकर उनको मानसिक शांति का अनुभव होता है। इसलिए इनकी स्थापना करते समय हमें बहुत ही ध्यान रखना चाहिए। मंदिर को बहुत ही सकारात्मक ऊर्जा का क्षेत्र बनाना चाहिए। जब मंदिर के लिए भूमि पूजन होते हैं व  वहां पर मूर्ति की स्थापना होनी होती है, वहां पर नव धान्य नवरत्न गाड़ देते हैं तथा वहां पर गायमूत्र छिड़कते थे | मंदिर में हमेशा मंत्रोंच्चारण होते रहते हैं तथा हवन व यज्ञ होते रहते हैं जिससे मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है| भगवान को फूलों से अलंकृत किया जाता है क्योंकि प्रत्येक फूल का ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा से अधिक होता है इसलिए दक्षिण भारत की स्त्रियां अपने बालों में फूलों व गजरों का प्रयोग करती हैं। पूजा के समय हाथ में कलावा बांधा जाता है। यह बाहरी नकारात्मक ऊर्जा को रोकता है तथा शरीर के अंदर की ऊर्जा को खींचता है। जब इसका रंग फीका पड़ने लगे या अधिक से अधिक नौ दिनों में हमें इसे अपने हाथ से खोल देना चाहिए। वेद मंत्रों का उच्चारण कपूर आदि जलाकर मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा इतनी बढ़ायी जाती है कि वहां पर जाकर हमें एक आत्मिक आनंद का अहसास होता है। भारत में कई तीर्थ स्थल ऐसे हैं, जिनका अपना एक विशेष महत्व है तथा वह ऐसी ऊर्जा ग्रहित क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं कि वहां जाने पर वहां की सकारात्मक ऊर्जा हमारी नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट कर देती है|
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