Monday, May 9, 2011

रोम रोम में राम..

रोम रोम में राम

गोस्वामी जी ने भगवान मारूति के विभिन्न गुणों में ‘राम चरित सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया’ ऐसा लिखा है। प्रभु चरित्र सुनने के वे रसिक हैं और इसी के परिणाम स्वरूप श्री सीता राम लक्षण के सहित इनके हृदय में ही सदैव विराजमान रहते हैं। लंका विजय के पश्चात् भगवान राम जब लौटकर अयोध्या में आते हैं, सभी को अनेक प्रकार के पुरस्कार देते हैं। श्री आंजनेय उनके चरणों में नतमस्तक हो बैठे हुए हैं। उनकी तरफ देखकर जगदम्बा श्रीसीता के हृदय में यह भाव आता है कि इस अपने प्यारे लाडले पुत्र को तो पुरस्कार रूप में कुछ दिया ही नहीं लंका में अमूल्य रत्न का हार विभीषण ने लाकर जगत्जननी को समर्पित किया था। जब हार को लेकर जगदम्बा हनुमान जी के गले में डाल देती हैं। वह अमूल्य रत्न का हार हनुमान जी के गले में पड़ता है। तो वह निकाल लेते हैं, देखते ही कि यह क्या है ? उसमें कहीं उन्हें राम–नाम दिखाई नहीं देता। मनके को तोड़ते हैं, ऊपर नीचे देखते हैं, जब कुछ दिखाई नहीं देता तो उसे दांत में लगाते हैं – दबाकर दो टुकड़े करते हैं – खोलकर देखते हैं कि वहां कुछ नहीं है तो उसे थूक देते हैं, फैंक देते हैं। एक–2 करके मनके को तोड़ते जाते हैं और फेंकते जाते हैं। अमूल्य रत्न की इस दुर्गति को देखकर विभीषण को क्षोभ होता है।

विभीषण हाथ जोड़कर खड़े होते हैं कि मेरी दी हुई भेंट का यह अपमान अनुचित है, पूछते हैं हनुमान। यह अमूल्य रत्न तुम क्यों तोड़ कर फेंक रहे हो ? भगवान मारूति कहते हैं, विभीषण। मैं देखता हूं कि इसमें कहीं राम नाम नहीं है क्योंकि जो राम से रहित है वह मेरे किसी काम का नहीं है इसलिए इसे फेंकने के सिवा और इसका उपयोग ही क्या हो सकता है ? विभीषण को इस उत्तर से बड़ी व्यथा होती है। एकाएक आदेश में आकर पूछते हैं, क्या जिस शरीर को तूने धारण किया है इसमें भी राम हैं ? हनुमान जी कहते हैं – अवश्य। यदि इसमें राम नही तो यह शरीर मेरे किसी काम का नहीं। यह कहते हुए अपने सीने को फाड़ते हैं – जब फाड़ते हुए दिखाते हैं तो उसमें श्रीसीताराम विराजित हैं। हनुमान जी के इस परम, आस्थामयी पावन भक्ति का दर्शन कर सारा अवध समाज कृतकृत्य हो जाता है। विभीषण अपनी भूल पर पश्चाताप करते हुए क्षमा प्रार्थना करते हैं।

जिसके रोम–रोम में राम बसे हुए हों, जिसके अंग–2 में राम विराजित हों, जिसके श्वांस–2 में राम के सिवा और कुछ न हो, जिसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही राममय हो, भला, वह शक्ति, भक्ति और सेवा का साकार विग्रह क्यों न हो ? उसी प्रकार यदि हम आप सभी उनका प्रतिपल अनुकरण करते हुए अपने आप को प्रभु चारणों में ही समर्पित रखें, श्वांस–2 में प्रभु का दिव्य नाम समा जाए, अंग–2 रामनाम से परिपूण्र हो जाए तो हमारा भी जीवन धन्य हो सकता है।

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