Wednesday, February 15, 2012

श्री राम स्तुति..


श्री राम स्तुति



श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं |

नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं ||





हे मन! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर | वे संसार के जन्म-मरणरूप दारुण भय को दूर करने वाले हैं, उनके नेत्र नव-विकसित कमल के सामान हैं, मुख-हाथ और चरण भी लाल कमल के सदृश हैं |



कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरद सुंदरं |

पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरं ||



उनके सौन्दर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर है, उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है, पीताम्बर मेघरूप शरीरों में मानो बिजली के सामान चमक रहा है, ऐसे पावन रूप जानकी पति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ |



भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकन्दनं |

रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नन्दनं ||



हे मन ! दीनों के बन्धु, सूर्य के सामान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनंदकंद, कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चंद्रमा के सामान दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर |



सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं |

आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं ||



जिनके मस्तक पर रत्न-जटित मुकुट, कानों में कुंडल, भाल पर सुन्दर तिलक और प्रत्येक अंग में सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं, जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं, जो धनुष-बाण लिए हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिए है -



इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं |

मम ह्रदय-कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ||



- जो शिव, शेष, और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं; तुलसीदास प्रार्थना करते हैं की वे श्री रघुनाथजी मेरे हृदयकमल में सदा निवास करें |



मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो |

करुना निधान सुजान सीलू सनेहु जानत रावरो ||



जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुन्दर सांवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा | वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है |



एहि भाँति गौरी असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली |

तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली |



इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय में हर्षित हुईं | तुलसीदासजी कहते हैं - भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल लौट चलीं |



जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि |

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ||



गौरी जी को अनुकूल जानकर सीता जी के ह्रदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता | सुन्दर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे |

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